गोचर का अर्थ होता है। गमन यानी चलना. गो अर्थात तारा जिसे आप नक्षत्र या ग्रह के रूप में समझ सकते हैं। और चर का मतलब होता है।


गोचर
गोचर का अर्थ होता है। गमन यानी चलना. गो अर्थात तारा जिसे आप नक्षत्र या ग्रह के रूप में समझ सकते हैं। और चर का मतलब होता है। चलना. इस तरह गोचर का सम्पूर्ण अर्थ निकलता है। ग्रहों का चलना. ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य से लेकर राहु केतु तक सभी ग्रहों की अपनी गति है। अपनी-अपनी गति के अनुसार ही सभी ग्रह राशिचक्र में गमन करने में अलग-अलग समय लेते हैं। नवग्रहों में चन्द्र का गोचर सबसे कम अवधि का होता है। क्योंकि इसकी गति तेज है। जबकि, शनि की गति मंद होने के कारण शनि का गोचर सबसे अधिक समय का होता है।

गोचर से फल ज्ञात करनासंपादित करें :-

ग्रह विभिन्न राशियों में भ्रमण करते हैं। ग्रहों के भ्रमण का जो प्रभाव राशियों पर पड़ता है। उसे गोचर का फल या गोचर फल कहते हैं। गोचर फल ज्ञात करने के लिए एक सामान्य नियम यह है। कि जिस राशि में जन्म समय चन्द्र हो यानी आपकी अपनी जन्म राशि को पहला घर मान लेना चाहिए उसके बाद क्रमानुसार राशियों को बैठाकर कुण्डली तैयार कर लेनी चाहिए. इस कुण्डली में जिस दिन का फल देखना हो उस दिन ग्रह जिस राशि में हों उस अनुरूप ग्रहों को बैठा देना चाहिए. इसके पश्चात ग्रहों की दृष्टि एवं युति के आधार पर उस दिन का गोचर फल ज्ञात किया जा सकता है।

ग्रहों का राशियों में भ्रमण काल-संपादित करें :-

सूर्य, शुक्र, बुध का भ्रमण काल 1 माह, चंद्र का सवा दो दिन, मंगल का 57 दिन, गुरू का 1 वर्ष, राहु-केतु का 1-1/2 (डेढ़ वर्ष) व शनि का भ्रमण का - 2-1/2 (ढ़ाई वर्ष) होता है।

गोचर से जन्म कुन्डली का फ़लादेशसंपादित करें :-

जन्म कुन्डली मे उपस्थित ग्रह गोचर के ग्रहों के साथ जब युति करते हैं। तो उनका फ़लादेश अलग अलग ग्रहों के साथ अलग होता है, वे अपना प्रभाव जातक पर जिस प्रकार से देते हैं, वह इस प्रकार से है।

सूर्य का व्यास १,३९,२००० किलोमीटर है। यह पृथ्वी पर प्रकाश और ऊर्जा देता है। और जीवन भी इसी ग्रह के द्वारा सम्भव हुआ है। यह ८’-२०" में अपना प्रकाश धरती पर पहुंचा पाता है।  पृथ्वी से सूर्य की दूरी १५० मिलिअन किलोमीटर है, राशि चक्र से पृथ्वी सूर्य ग्रह की परिक्रमा एक साल में पूर्ण करती है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी है और कभी वक्री नही होता है। जन्म कुन्डली में ग्रहों के साथ जब यह गोचर करता है, उस समय जातक के जीवन में जो प्रभाव प्रतीत होता है, वह इस प्रकार से है।
 

गोचर का अर्थ :-

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य से लेकर राहु केतु तक सभी ग्रहों की अपनी अपनी गति होती है।  यह गति निरंतर चलती रहती है। और इसी गति के अनुसार सभी ग्रह राशिचक्र में गमन करने में अलग-अलग समय लेते हैं। यह तो आप जानते ही होंगे कि ग्रहों की संख्या मुख्य तौर पर 9 होती है। और इन नवग्रहों में चन्द्र का गोचर सबसे कम अवधि का होता है। क्योंकि इसकी गति तेज होती है। जबकि, शनि की गति सबसे धीमी होती है। शनि ग्रह की गति मंद होने के कारण शनि का गोचर सबसे अधिक समय का होता है। सभी ग्रहों की आपसी गति में लगने वाला समय ही गोचर कहलाता है। गोचर समय में राशि परिवर्तन जातक को शुभ अशुभ फल की प्राप्ति वाला होता है।

गोचर फल प्राप्ति :-

गोचर ग्रह से तात्पर्य है। कि जातक का कौन सा ग्रह किस स्थिति में है। गोचर ग्रहों का अध्ययन जातक की चन्द्र राशि से किया जाता है। गोचर ग्रहों की वर्तमान स्थिति जातक को प्रभावित करती है। इस प्रकार सभी नवग्रहों की स्थिति और गति के अनुसार जातक को निम्न फलों की प्राप्ति होती है।

सूर्य ग्रह का गोचर फल

 प्रथम भाव में- यह होने पर रक्त में कमी की सम्भावना होती है। इसके अलावा गुस्सा आता है। नेत्र रोग , हृदय रोग ,मानसिक अशांति ,थकान आदि। .

द्वितीय भाव में – इस भाव में सूर्य के आने से धन की हानि ,उदासी ,सुख में कमी , असफ़लत अ, धोका .नेत्र विकार , मित्रो से विरोध , सिरदर्द , व्यापार में नुकसान होने लगता है।

तृतीय भाव में – इस भाव में सूर्य के फल अच्छे होते है। यहाँ जब सूर्य होता है। तो सभी प्रकार के लाभ मिलते है। धन , पुत्र ,दोस्त और उच्चाधिकारियों से अधिक लाभ मिलता है। जमीन का भी फायदा होता है। आरोग्य और प्रसस्नता मिलती है। शत्रु हारते हैं। समाज में सम्मान प्राप्त होता है।

चतुर्थ भाव – इस भाव में सूर्य के होने से ज़मीन सम्बन्धी, यात्रा सम्बन्धी समस्या आती है।

पंचम भाव – इस भाव में भी सूर्य परेशान करता है। पुत्र को परेशानी , उच्चाधिकारियों से हानि होने की सम्भावना बढ़ने लगती है।

छटवें भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है। सप्तम भाव में – इस भाव में सूर्य यात्रा ,पेट रोग , दीनता , वैवाहिक जीवन के कष्ट देता है। स्त्री – पुत्र बीमारी से परेशान हो जाते हैं। पेट व् सिरदर्द की समस्या आ जाती है। धन व् मान में कमी आ जाती है।

अष्टम भाव में – इस में सूर्य होने पर बवासीर अपच की समस्या पैदा करता है।

नवम भाव में – इसमें दीनता ,रोग ,धन हानि बन्धुओं से विरोध हो सकता है।

दशम भाव में – इस भाव में सफलता , विजय , सिद्धि की प्राप्ति होती है।

एकादश भाव में – इस भाव में घर में मांगलिक कार्य संपन्न होते हैं।

द्वादश भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है।

 

चन्द्र की गोचर भाव के फल

प्रथम भाव में – जब चन्द्र प्रथम भाव में होता है। तो जातक को सुख , समागम , आनंद व् निरोगता का लाभ होता है। उत्तम भोजन ,शयन सुख , शुभ वस्त्र की प्राप्ति होती है।

द्वितीय भाव – इस भाव में जातक के सम्मान और धन में बाधा आती है। .मानसिक तनाव ,परिवार से अनबन , नेत्र विकार , भोजन में गड़बड़ी हो जाती है।  विद्या की हानि , पाप कर्मी और हर काम में असफलता मिलने लगती है।

तृतीय भाव में – इस भाव में चन्द्र शुभ होता है। धन , परिवार ,वस्त्र , निरोग , विजय की प्राप्ति शत्रुजीत मन खुश रहता है। बंधु लाभ , भाग्य वृद्धि ,और हर तरह की सफलता मिलती है।

चतुर्थ भाव में – इस भाव में शंका , अविश्वास , चंचल मन , भोजन और नींद में बाधा आती है। स्त्री सुख में कमी , जनता से अपयश मिलता है।  छाती में विकार , जल से भय होता है।

पंचम भाव में – इस भाव में दीनता , रोग ,यात्रा में हानि , अशांत , जलोदर , कामुकता की अधिकता और मंत्रणा शक्ति में न्यूनता आ जाती है।

सिक्स्थ भाव में – इस भाव में धन व् सुख लाभ मिलता है। शत्रु पर जीत मिलती है .निरोय्गता ,यश आनंद , महिला से लाभ मिलता है।

सप्तम भाव में – इस भाव में वाहन की प्राप्ति होती है। सम्मान , सत्कार ,धन , अच्छा भोजन , आराम काम सुख , छोटी लाभ प्रद यात्रायें , व्यापर में लाभ और यश मिलता है।

अष्टम भाव में – इस भाव में जातक को भय , खांसी , अपच . छाती में रोग , स्वांस रोग , विवाद ,मानसिक कलह , धन नाश और आकस्मिक परेशानी आती है।

नवम भाव में – बंधन , मन की चंचलता , पेट रोग ,पुत्र से मतभेद , व्यापार हानि , भाग्य में अवरोध , राज्य से हानि होती है।

दशम भाव में – इस में सफलता मिलती है। हर काम आसानी से होता है . धन , सम्मान , उच्चाधिकारियों से लाभ मिलता है। घर का सुख मिलता है। पद लाभ मिलता है। आज्ञा देने का सामर्थ्य आ जाता है।

एकादश भाव में – इस भाव में धन लाभ , धन संग्रह , मित्र समागम , प्रसन्नता , व्यापार लाभ , पुत्र से लाभ , स्त्री सुख , तरल पदार्थ और स्त्री से लाभ मिलता है।

द्वादस भाव में – इस भाव में धन हानि ,अपघात , शारीरिक हानियां होती है।

 

मंगल ग्रह का गोचर

प्रथम भाव में -जब मंगल आता है, तो बवासीर ,रक्त विकार और अस्त्र से हानि देता है।

द्वतीय भाव में –यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से खतरा और शत्रु से परेशानियाँ आती है।

तृतीय भाव – इस भाव में मंगल के आ जाने से धन , वस्त्र , धातु की प्राप्ति होती है।

चतुर्थ भाव में – यहं पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार , शत्रु पनपते हैं।

पंचम भाव – यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग , क्रोध , पुत्र शोक पल पल स्वास्थ्य गिरता रहता है।

छठा भाव – यहाँ पर मंगल शुभ होता है।

सप्तम भाव – इस भाव में स्त्री से कलह होने लगते हैं।

अष्टम भाव में – यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी हो जाती हैं।

दशम भाव – यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं।

एकादश भाव – यहाँ मंगल शुभ हैं।

द्वादश भाव – इस भाव में धन हानि होती है।

 

बुध का गोचर  प्रभाव

प्रथम भाव में – इस भाव में अहितकारी वचन से हानियाँ होती हैं।

द्वीतीय भाव में – यहाँ पर बुध अपमान दिलाने के बावजूद धन भी दिलाता है।

तृतीय भाव – यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है।

चतुर्थ भाव् – यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है।

पंचम भाव – इस भाव में मन बैचैन रहता है।

छठा भाव – यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं।

अष्टम भाव – यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है।

नवम – यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं।

दशम भाव – यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं।

एकादश भाव में – यहाँ भी बुध लाभ देता हैं।

द्वादश भाव– यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता है।

 

गुरु का गोचर प्रभाव

प्रथम भाव – इस भाव में धन नाश होता है।

तृतीय भाव  – यहाँ पर काम में बाधा और स्थान परिवर्तन करता है।

चतुर्थ भाव – यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा दिलाता है।

पंचम भाव – यहाँ पर गुरु शुभ होता है।

छथा भाव में – यहाँ पर दुःख होता है।

सप्तम भाव – सैय्या , रति सुख , धन वृद्धि करता हैं।

अष्टम भाव – यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा परशानियाँ देता है।

नवम भाव में – कुशलता ,प्रमुख पद प्राप्ति होती है।

दशम भाव में– स्थान परिवर्तन में हानि होती है।

एकादश भाव –आरोग्य और अच्छा स्थान दिलवाता है।

 

शुक्र गोचर का फल

प्रथम भाव में –जब शुक्र यहाँ पर होता है तब सुख ,आनंद तथा लाभ प्राप्त होते हैं।

द्वीतीय भाव में – यहाँ पर शुक्र संतान और परिवार के प्रति हितकारी होता है।

तृतीय भाव – इस जगह शत्रु का नास करवाता हैं।

चतुर्थ भाव –इस भाव में मित्र लाभ और शक्ति की प्राप्ति करवाता हैं।

पंचम भाव – इस भाव में गुरु से लाभ मिलता है।

छठा भाव –इस भाव में शुक्र रोग दिलवाता है।

सप्तम भाव – इसमें सम्बन्धियों से मेल होता है।

अष्टम भाव – इस भाव में भवन आभूषण व् वस्त्र की प्राप्ति होती है।

दशम भाव – इसमें अपमान और कलह मिलती है।

एकादश भाव – इसमें मित्र ,धन ,अन्न ,प्रशाधन सामग्री मिलती है।

द्वादश भाव – इसमें धन के मार्ग बनते हैं।

 

शनि की गोचर दशा

प्रथम भाव – इस भाव में अग्नि और विष का डर होता है।

द्वितीय भाव – इस भाव में धन का नाश हो जाता हैं।

तृतीय भाव – इस भाव में शनि शुभ होता है। 

चतुर्थ भाव –इस भाव में हानि होती हैं।

पंचम भाव – इस भाव में शनि कलह करवाता है।

छठा भाव – ये शनि का लाभकारी स्थान हैं।

सप्तम भाव – कई यात्रायें करनी होती हैं।

अष्टम भाव – इसमें कलह व् दूरियां पनपती हैं।

नवम भाव – यहाँ पर शनि बैर और रोग देता हैं।

दशम भाव – इस भाव में कार्य की प्राप्ति में कमी आती हैं।

एकादश भाव – इसमें परस्त्री व् परधन की प्राप्ति होई हैं।

द्वादश भाव – इसमें शोक व् शारीरिक परेशानी आती हैं।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411