माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या हैं।

माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या हैं। बगलामुखी की अंगविद्या हैं। इसीलिए माँ बगलामुखी से साधना की आज्ञा लेनी चाहिए और प्रार्थना करना चाहिए की माँ पूरी कराये  बगलामुखी साधना करने के पश्चात ही धूमावती साधना विशेष करने की योग्यता मिलती है। इसीलिए विशेष परिस्थिति में गुरु से प्रक्रिया जानकार ही शुरू करना चाहिए  गुरु जानते हैं। की शिष्य की योग्यता क्या है।  धूमावती साधना सबके बस की नहीं  इनके काम करने का ढंग बिलकुल अलग है।  बांकी महाविद्या श्री देती हैं। और धूमावती श्री विहीनता अपने सूप में लेकर चली जाती है।  जीवन से दुर्भाग्य , अज्ञान , दुःख , रोग , कलह , शत्रु विदा होते ही साधक ज्ञान, श्री और रहस्यदर्शी हो जाता है। और साधना में उच्चतम शिखर पे पहुच जाता है।

1-इन्हे अलक्ष्मी या ज्येष्ठालक्ष्मी यानि लक्ष्मी की बड़ी बहन भी कहा जाता है। ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को माँ धूमावती जयंती के रूप में मनाया जाता है।

मां धूमावती विधवा स्वरूप में पूजी जाती हैं। तथा इनका वाहन कौवा है। ये श्वेत वस्त्र धारण कि हुए, खुले केश रुप में होती हैं। धूमावती महाविद्या ही ऐसी शक्ति हैं। जो व्यक्ति की दीनहीन अवस्था का कारण हैं। विधवा के आचरण वाली यह महाशक्ति दुःख दारिद्रय की स्वामिनी होते हुए भी अपने भक्तों पर कृपा करती हैं।

2-इनका ध्यान इस प्रकार बताया है।  अत्यन्त लम्बी, मलिनवस्त्रा, रूक्षवर्णा, कान्तिहीन, चंचला, दुष्टा, बिखरे बालों वाली, विधवा, रूखी आखों वाली, शत्रु के लिये उद्वेग कारिणी, लम्बे विरल दांतों वाली, बुभुक्षिता, पसीने से आर्द्र स्तन नीचे लटके हो, सूप युक्ता, हाथ फटकारती हुई, बडी नासिका, कुटिला , भयप्रदा,कृष्णवर्णा, कलहप्रिया, तथा बिना पहिये वाले जिसके रथ पर कौआ बैठा हो ऐसी देवी का मैं ध्यान करता हु।

देवी का मुख्य अस्त्र है। सूप जिसमे ये समस्त विश्व को समेट कर महाप्रलय कर देती हैं।

3-दस महाविद्यायों में दारुण विद्या कह कर देवी को पूजा जाता है। शाप देने नष्ट करने व संहार करने की जितनी भी क्षमताएं है। वो देवी के कारण ही है। क्रोधमय ऋषियों की मूल शक्ति धूमावती हैं। जैसे दुर्वासा, अंगीरा, भृगु, परशुराम आदि।

सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है। चातुर्मास ही देवी का प्रमुख समय होता है। जब इनको प्रसन्न किया जाता है।

देश के कई भागों में नर्क चतुर्दशी पर घर से कूड़ा करकट साफ कर उसे घर से बाहर कर अलक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है। की आप हमारे सारे दारिद्र्य लेकर विदा होइए।

4-ज्योतिष शास्त्रानुसार मां धूमावती का संबंध केतु ग्रह तथा इनका नक्षत्र ज्येष्ठा है। इस कारण इन्हें ज्येष्ठा भी कहा जाता है। ज्योतिष शस्त्र अनुसार अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु ग्रह श्रेष्ठ जगह पर कार्यरत हो अथवा केतु ग्रह से सहयता मिल रही ही तो व्यक्ति के जीवन में दुख दारिद्रय और दुर्भाग्य से छुटकारा मिलता है। केतु ग्रह की प्रबलता से व्यक्ति सभी प्रकार के कर्जों से मुक्ति पाता है। और उसके जीवन में धन, सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

देवी का प्राकट्य :-

पहली कहानी तो यह है। कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं। यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है। सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ।

दूसरी कहानी यह है। कि एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थी तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी उन्होने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है। मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें” शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता” तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ। ” और वे शिव को ही निगल गयीं। शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं। परिपालक हैं।

फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि’ मुझे बाहर निकालो’, तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया. निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘ अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी.’

तभी से वे विधवा हैं। अभिशप्त और परित्यक्त.भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है। यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है। जो कभी ख़त्म नही होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है। माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं।

निरंतर इनकी स्तुति करने वाला कभी धन विहीन नहीं होता व उसे दुःख छूते भी नहीं , बड़ी से बड़ी शक्ति भी इनके सामने नहीं टिक पाती इनका तेज सर्वोच्च कहा जाता है। श्वेतरूप व धूम्र अर्थात धुंआ इनको प्रिय है। पृथ्वी के आकाश में स्थित बादलों में इनका निवास होता है।

देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती हैl

स्तुति :-

विवर्णा चंचला कृष्णा दीर्घा च मलिनाम्बरा,

विमुक्त कुंतला रूक्षा विधवा विरलद्विजा,

काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा,

सूर्पहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता,

प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा,

क्षुत्पिपासार्दिता नित्यं भयदा काल्हास्पदा

5-सौभाग्यदात्री_धूमावती_कवचम्

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी ।

ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ॥१॥

कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके ।

सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ॥२॥

सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः ।

सौभाग्यमतुलं प्राप्य जाते देविपुरं ययौ ॥३॥

श्री सौभाग्यधूमावतीकल्पोक्त धूमावतीकवचम्

॥ धूमावती कवचम् ॥

श्रीपार्वत्युवाच

धूमावत्यर्चनं शम्भो श्रुतम् विस्तरतो मया ।

कवचं श्रोतुमिच्छामि तस्या देव वदस्व मे ॥१॥

श्रीभैरव उवाच

शृणु देवि परङ्गुह्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।

कवचं श्रीधूमावत्या: शत्रुनिग्रहकारकम् ॥२॥

ब्रह्माद्या देवि सततम् यद्वशादरिघातिनः ।

योगिनोऽभवञ्छत्रुघ्ना यस्या ध्यानप्रभावतः ॥३॥

ॐ अस्य श्री धूमावती कवचस्य पिप्पलाद ऋषिः निवृत छन्दः ,श्री धूमावती देवता, धूं बीजं ,स्वाहा शक्तिः ,धूमावती कीलकं , शत्रुहनने पाठे विनियोगः ॥

ॐ धूं बीजं मे शिरः पातु धूं ललाटं सदाऽवतु ।

धूमा नेत्रयुग्मं पातु वती कर्णौ सदाऽवतु ॥१॥

दीर्ग्घा तुउदरमध्ये तु नाभिं में मलिनाम्बरा ।

शूर्पहस्ता पातु गुह्यं रूक्षा रक्षतु जानुनी ॥२॥

मुखं में पातु भीमाख्या स्वाहा रक्षतु नासिकाम् ।

सर्वा विद्याऽवतु कण्ठम् विवर्णा बाहुयुग्मकम् ॥३॥

चञ्चला हृदयम्पातु दुष्टा पार्श्वं सदाऽवतु ।

धूमहस्ता सदा पातु पादौ पातु भयावहा ॥४॥

प्रवृद्धरोमा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा ।

क्षुत्पिपासार्द्दिता देवी भयदा कलहप्रिया ॥५॥

सर्वाङ्गम्पातु मे देवी सर्वशत्रुविनाशिनी ।

इति ते कवचम्पुण्यङ्कथितम्भुवि दुर्लभम् ॥६॥

न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।

पठनीयम्महादेवि त्रिसन्ध्यन्ध्यानतत्परैः ।।७॥

दुष्टाभिचारो देवेशि तद्गात्रन्नैव संस्पृशेत् । ७.१।

॥ इति भैरवीभैरवसम्वादे धूमावतीतन्त्रे धूमावतीकवचं

सम्पूर्णम् ॥

5-धूमावती_अष्टक_स्तोत्रं

॥ अथ स्तोत्रं ॥

प्रातर्या स्यात्कुमारी कुसुमकलिकया जापमाला जपन्ती

मध्याह्ने प्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम् |

सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां

वहन्ती सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालिका पातु युष्मान् || १ ||

बद्ध्वा खट्वाङ्गकोटौ कपिलवरजटामण्डलम्पद्मयोनेः

कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गैस्स्रजमुरसि शिर शेखरन्तार्क्ष्यपक्षैः |

पूर्णं रक्तै्सुराणां यममहिषमहाशृङ्गमादाय पाणौ

पायाद्वो वन्द्यमानप्रलयमुदितया भैरवः कालरात्र्याम् || २ ||

चर्वन्तीमस्थिखण्डम्प्रकटकटकटाशब्दशङ्घातम्-

उग्रङ्कुर्वाणा प्रेतमध्ये कहहकहकहाहास्यमुग्रङ्कृशाङ्गी |

नित्यन्नित्यप्रसक्ता डमरुडिमडिमां स्फारयन्ती मुखाब्जम्-

पायान्नश्चण्डिकेयं झझमझमझमा जल्पमाना भ्रमन्ती || ३ ||

टण्टण्टण्टण्टटण्टाप्रकरटमटमानाटघण्टां वहन्ती

स्फेंस्फेंस्फेंस्कारकाराटकटकितहसा नादसङ्घट्टभीमा |

लोलम्मुण्डाग्रमाला ललहलहलहालोललोलाग्रवाचञ्चर्वन्ती

चण्डमुण्डं मटमटमटिते चर्वयन्ती पुनातु || ४ ||

वामे कर्णे मृगाङ्कप्रलयपरिगतन्दक्षिणे सूर्यबिम्बङ्कण्ठे

नक्षत्रहारंव्वरविकटजटाजूटके मुण्डमालाम् |

स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्रध्वजनिकरयुतम्ब्रह्मकङ्कालभारं

संहारे धारयन्ती मम हरतु भयम्भद्रदा भद्रकाली || ५ ||

तैलाभ्यक्तैकवेणी त्रपुमयविलसत्कर्णिकाक्रान्तकर्णा

लौहेनैकेन कृत्वा चरणनलिनकामात्मनः पादशोभाम् |

दिग्वासा रासभेन ग्रसति जगदिदंय्या यवाकर्णपूरा

वर्षिण्यातिप्रबद्धा ध्वजविततभुजा सासि देवि त्वमेव || ६ ||

सङ्ग्रामे हेतिकृत्वैस्सरुधिरदशनैर्यद्भटानां

शिरोभिर्मालामावद्ध्य मूर्ध्नि ध्वजविततभुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा |

दृष्टा भूतप्रभूतैः पृथुतरजघना वद्धनागेन्द्रकाञ्ची

शूलग्रव्यग्रहस्ता मधुरुधिरसदा ताम्रनेत्रा निशायाम् || ७ ||

दंष्ट्रा रौद्रे मुखेऽस्मिंस्तव विशति जगद्देवि सर्वं क्षणार्द्धात्

संसारस्यान्तकाले नररुधिरवशा सम्प्लवे भूमधूम्रे |

काली कापालिकी साशवशयनतरा योगिनी योगमुद्रा रक्तारुद्धिः

सभास्था भरणभयहरा त्वं शिवा चण्डघण्टा || ८ ||

धूमावत्यष्टकम्पुण्यं सर्वापद्विनिवारकम् |

यः पठेत्साधको भक्त्या सिद्धिं व्विन्दन्ति वाञ्छिताम् || ९ ||

महापदि महाघोरे महारोगे महारणे |

शत्रूच्चाटे मारणादौ जन्तूनाम्मोहने तथा || १० ||

पठेत्स्तोत्रमिदन्देवि सर्वत्र सिद्धिभाग्भवेत् |

देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः || ११ ||

सिंहव्याघ्रादिकास्सर्वे स्तोत्रस्मरणमात्रतः |

दूराद्दूरतरं य्यान्ति किम्पुनर्मानुषादयः || १२ ||

स्तोत्रेणानेन देवेशि किन्न सिद्ध्यति भूतले |

सर्वशान्तिर्ब्भवेद्देवि ह्यन्ते निर्वाणतां व्व्रजेत् || १३ ||

।। इत्यूर्द्ध्वाम्नाये धूमावतीअष्टक स्तोत्रं समाप्तम् ।।

देवी की कृपा से साधक धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ऐसा मानना है की कुण्डलिनी चक्र के मूल में स्थित कूर्म में इनकी शक्ति विद्यमान होती है। देवी साधक के पास बड़े से बड़ी बाधाओं से लड़ने और उनको जीत लेने की क्षमता आ जाती है।

6-महाविद्या धूमावती के मन्त्रों से बड़े से बड़े दुखों का नाश होता है।

१- देवी माँ का महा मंत्र है। "धूं धूं धूमावती ठ: ठ:"

इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं। व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं। इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है। आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं।,जैसे-

1. राई में सेंधा नमक मिला कर होम करने से बड़े से बड़ा शत्रु भी समूल रूप से नष्ट हो जाता है।

2. नीम की पत्तियों सहित घी का होम करने से लम्बे समस से चला आ रहा ऋण नष्ट होता है।

3. जटामांसी और कालीमिर्च से होम करने पर काल्सर्पादी दोष नष्ट होते हैं व क्रूर ग्रह भी नष्ट होते हैं।

4. रक्तचंदन घिस कर शहद में मिला लेँ व जौ से मिश्रित कर होम करें तो दुर्भाग्यशाली मनुष्य का भाग्य भी चमक उठता है।

5. गुड व गाने से होम करने पर गरीबी सदा के लिए दूर होती है।

6 . केवल काली मिर्च से होम करने पर कारागार में फसा व्यक्ति मुक्त हो जाता है।

7 . मीठी रोटी व घी से होम करने पर बड़े से बड़ा संकट व बड़े से बड़ा रोग अति शीग्र नष्ट होता है।

7-धूमावती गायत्री मंत्र:-

"ओम धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात।"

वाराही विद्या में इन्हे धूम्रवाराही कहा गया है जो शत्रुओं के मारन और उच्चाटन में प्रयोग की जाती है।

8-धूमावती के साबर मन्त्र :-

"ॐ पाताल निरंजन निराकार,आकाश मण्डल धुन्धुकार,

आकाश दिशा से कौन आई,कौन रथ कौन असवार,

आकाश दिशा से धूमावन्ती आई ,काक ध्वजा का रथ असवार

थरै धरत्री थरै आकाश,विधवा रुप लम्बे हाथ,

लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव,डमरु बाजे भद्रकाली,

क्लेश कलह कालरात्रि ,डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी ,

जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्तेजाया जीया आकाश तेरा होये ,

धूमावन्तीपुरी में वास,न होती देवी न देव ,

तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती ,

तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ ,आप भयी अतीत

ॐ धूं धूं धूमावती फट स्वाहा ।"

9-विशेष पूजा सामग्रियां-

पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है।

सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं , केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल , मेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें।सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें

दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें।

10-देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-

बिना गुरु दीक्षा के इनकी साधना कदापि न करें। थोड़ी सी भी चूक होने पर विपरीत फल प्राप्त होगा और पारिवारिक कलह दरिद्र का शिकार होंगे।

माँ धूमावती की पूजा करते समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि माँ प्रसन्न होकर हमारे सभी रोग , दोष , क्लेश , तंत्र , भूत प्रेत आदि बाधाओं को अपने शूप में समेटकर हमारे घर से विदा हो रही हैं और हमें धन , लक्ष्मी सुख शांति का आशीर्वाद दे रही हैं।

जब दुर्भाग्य , दुःख एवं दरिद्रता लम्बे समय से पीछा कर रही हो तो माँ धूमावती की दीक्षा लेकर उनकी उपासना करनी चाहिए। जब शत्रु मृत्यु तुल्य कष्ट दे रहे हों तो माँ बगलामुखी से साथ धूमावती की उपासना करनी चाहिए।

ध्यान रहे कि माँ धूमावती की उपासना किसी अच्छे गुरु के संरक्षण में ही करनी चाहिए। बिना दीक्षा लिए इनका मंत्र जाप नहीं करना चाहिए।

देवी धूमावती धुएं के स्वरूप में विद्यमान है। तथा पार्वती के भयंकर तथा उग्र स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'धूमावती जयंती' होती है। इसी तिथि में देवी का प्रादुर्भाव हुआ था।

नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका, उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देवियों को अपने शरीर से प्रकट किया उग्र स्वभाव, भयंकरता, क्रूरता इत्यादि देवी धूमावती ने ही अन्य देवियों को प्रदान किया। देवी की ध्वनि, हजारों गीदड़ों के एक साथ चिल्लाने जैसी हैं। जो महान भय दायक हैं। देवी ने क्रोध वश अपने पति भगवान शिव का भक्षण लिया था; देवी का सम्बन्ध अतृप्त क्षुधा (भूख) से भी हैं। देवी सर्वदा अतृप्त एवं भूखी है। परिणामस्वरूप देवी दुष्ट दैत्यों के मांस का भक्षण करती हैं।  परन्तु इनकी क्षुधा का निवारण नहीं हो पाता हैं।

स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, एक समय देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, अपने निवास स्थान कैलाश में बैठी हुई थी। देवी, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त थी (भूखी थी) तथा उन्होंने शिव जी से अपनी क्षुधा निवारण हेतु कुछ भोजन प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिया कहा, कुछ समय पश्चात उन्होंने पुनः भोजन हेतु निवेदन किया। परन्तु शिव जी ने उन्हें कुछ क्षण और प्रतीक्षा करने का पुनः आश्वासन दिया। बार-बार भगवान शिव द्वारा इस प्रकार आश्वासन देने पर, देवी धैर्य खो क्रोधित हो गई तथा उन्होंने अपने पति को ही उठाकर निगल लिया।

तदनंतर देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली तथा उस धूम्र राशि ने उन्हें पूरी तरह से ढक दिया। तदनंतर, भगवान शिव, देवी के शरीर से बहार आये तथा कहा! आपकी यह सुन्दर आकृति धुएं से ढक जाने के कारण धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी।

11-भगवती_धूमावती :-

धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। शिव हैं भी तो शून्य भैरव इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। इस महाविद्या के फल से देवी धूमावती सूकरी के रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोग अरिष्ट और शत्रुओं का नाश कर देती है। प्रबल महाप्रतापी तथा सिद्ध पुरूष के रूप में उस साधक की ख्याति हो जाती है। जैसे सुपा से पच्छोड़ कर अन्न से कंकड- पत्थर को अलग कर देते हैं, वैसे ही ये दुर्गुणो को अलग कर देती हैं।

मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। समय से पार ले जाने वाली महाविधा हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें 'सुतरा' कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है।

पौराणिक ग्रंथों अनुसार ऋषि दुर्वासा, भृगु, परशुराम आदि की मूल शक्ति धूमावती हैं। सृष्टि कलह की देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है। चौमासा देवी का प्रमुख समय होता है जब देवी का पूजा पाठ किया जाता है।

इनके विषय में दो कथाएँ प्रचलित हैं। पहली कथा अनुसार इन्होंने भूख लगने पर महाकाल शिव जी को खा लिया था, जिससे ये वैधव्य का श्राप भोग रही हैं।

दूसरे मत में जब अंधकासुर् का वध काली के हाथों हुआ तो वो हमेशा की तरह अनियंत्रित हो कर संसार का नाश करने लगी, महादेव के सारे उपाए भी निष्फल रहे रोकने के तब दो अघोरी भाई मणि और मल्लाह उन्हे मना कर अपने साथ स्थापित कर लिया जिसे छुड़ाने के लिए भगवान शंकर ने अघोरा का अवतार लिया, जब वे मल्लाह का वध करने पहुंचे तो मल्लाह ने माता काली को पुकार काली ने शिव को ग्रस लिया जिससे समय कुछ छ्न के लिए स्थिर हो गया,उस छ्न के लिए वे वैधवय को प्राप्त हुई उस रूप को धूमा कहा गया। काली ने शिव का विलय किया तो शिव जी ने उन्हें पुनह स्थिर कर प्राप्त कर लिया और मल्लाह का वध कर दिया।

इससे परे शास्त्र तो ये कहता है। कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं। यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है। सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ

इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है। कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस को छूए तक नहीं। और एक संयासी या वैरागी भाव से जीवन यापन कर रहा है। किसी विशेष परस्थिति में साधना करें अन्यथा ये जीवन को अभिशाप से भर देती हैं। इसलिए गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले योग्य गुरू के सानिध्य में ही करें।

12-धूमावती का मंत्र :-

'ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:' ( वैदिक मंत्र )

धूं धूं धूमावती ठ: ठ:. धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे.

" ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट्।।

धूं धूं धूमावती ठ: ठ: (तांत्रिक मंत्र)

स्तुति:-

विवर्णा चंचला दुष्टा दीर्घा च मलिनाम्बरा,

विवरणकुण्डला रूक्षा विधवा विरलद्विजा,

काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा,

सूर्यहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता,

प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा,

क्षुतपिपासार्दिता नित्यं भयदा कलहप्रिया

माता की विशेष कृपा पाने के लिए मंत्रो का रुद्राक्ष माला से 108, 51 या 21 माला का जाप करना चाहिए। केवल साधु- सन्यासी या वैरागी।

वे महाप्रलय के समय मौज़ूद रहती हैं। उनका रंग महाप्रलय के बादलों जैसा है। जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्‍म हो जाती है। काल ख़त्म हो जाता है और स्वयं धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यूँ मानते हैं। महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं। माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं। और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं। उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चाँद , सितारे रहते हैं। रहता है। सिर्फ़ धुआँ और राख- वही चरम ज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध; न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती. वे अकेली रह जाती हैं। सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं। इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं। हिंदू धर्म में इसे अध्यात्मिक खोज की चरम स्थिति कहा जाता है। संन्यासी लोग परम संतुष्ट जीव होते हैं।जो भी मिला खा लिया, पहन लिया, जहाँ भी ठहरने को मिला, ठहर लिये. तभी तो धूमावती धुएँ के रूप में हैं। हमेशा अस्थिर, गतिशील और बेचैन. उनका साधक भी बेचैन रहता है। परन्तु इनके साधकों को आयु भी लम्बी मिलती हैं। कई तो हजारों सालों से अब भी जीवित हैं। कौवे के विषय में भी यही कहा जाता है। कई लोग तो कहावत भी कहते हैं। "कौआ खा के अमर हो गया है।

एक साथ तीनों कालों या काल के परे भी देख लेने की विधा, समय को अपने अनुरूप जानने और उसको बदलने का सामर्थ इनके साधकों को प्राप्त होता है। परंतु ये आसानी से पहचाने नहीं जाते। इंसानों की बस्ती से दूरी बनाएं रखते हैं।

उन्हें अशुभ माना जाता है। क्योंकि बहुधा सच वह नही होता, जैसा कि हम चाहते हैं। वस्तुत: हम एक काल्पनिक संसार में जीते हैं। जिसमें सारी चीज़ें, सारी बातें, सारी घटनायें हमारे मनमाफ़िक होती हैं। जब वैसा नही होता, हम दुखी हो जाते हैं। क्योंकि हमारे लिए सब कुछ अच्छा हो एक मायालोक रचता है। जो हमें काम, क्रोध, मद, लोभ और ईर्ष्या के पाश में बाँध देता है। माँ धूमावती बड़े बेदर्दी और रूखेपन से उन पाशों को फाड़ देती हैं। और साधक अकेला रहना पसंद करने लगता है। वे तांत्रिक जो धूमावती का रहस्यवाद नही समझते शादीशुदा लोगों के लिए धूमावती-साधना करने से मना करते हैं। सधवाओं को भी मना करते हैं।

किंतु वे भूल जाते हैं। कि धूमावती सहस्रनाम में यह भी कहा गया है। कि वे महिलाओं के बीच निवास करती हैं। और संतान प्राप्ति कराती हैंl

13-धूमावती अष्टक स्त्रोत

यदि आप या आपके परिवार का कोई सदस्य तंत्र बाधा या प्रेत बाधा से ग्रसित है। तो इस स्त्रोत का पाठ कम से कम 21 बार करना चाहिए।

ॐ प्रातर्वा स्यात कुमारी कुसुम-कलिकया जप-मालां जपन्ती।

मध्यान्हे प्रौढ-रुपा विकसित-वदना चारु-नेत्रा निशायाम।।

सन्ध्यायां ब्रिद्ध-रुपा गलीत-कुच-युगा मुण्ड-मालां वहन्ती।

सा देवी देव-देवी त्रिभुवन-जननी चण्डिका पातु युष्मान ।।१।।

बद्ध्वा खट्वाङ्ग कोटौ कपिल दर जटा मण्डलं पद्म योने:।

कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गै: स्रजमुरसी शिर: शेखरं ताक्ष्र्य पक्षै: ।।

पूर्ण रक्त्तै: सुराणां यम महिष-महा-श्रिङ्गमादाय पाणौ।

पायाद वौ वन्ध मान: प्रलय मुदितया भैरव: काल रात्र्या ।।२।।

चर्वन्ती ग्रन्थी खण्ड प्रकट कट कटा शब्द संघातमुग्रम।

कुर्वाणा प्रेत मध्ये ककह कह हास्यमुग्रं कृशाङ्गी।।

नित्यं न्रीत्यं प्रमत्ता डमरू डिम डिमान स्फारयन्ती मुखाब्जम।

पायान्नश्चण्डिकेयं झझम झम झमा जल्पमाना भ्रमन्ती।।३।।

टण्टट् टण्टट् टण्टटा प्रकट मट मटा नाद घण्टां वहन्ती।

स्फ्रें स्फ्रेंङ्खार कारा टक टकित हसां दन्त सङ्घट्ट भिमा।।

लोलं मुण्डाग्र माला ललह लह लहा लोल लोलोग्र रावम्।

चर्वन्ती चण्ड मुण्डं मट मट मटितं चर्वयन्ती पुनातु।।४।।

वामे कर्णे म्रिगाङ्कं प्रलया परीगतं दक्षिणे सुर्य बिम्बम्।

कण्डे नक्षत्र हारं वर विकट जटा जुटके मुण्ड मालम्।।

स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्र ध्वज निकर युतं ब्रह्म कङ्काल भारम्।

संहारे धारयन्ती मम हरतु भयं भद्रदा भद्र काली ।।५।।

तैलोभ्यक्तैक वेणी त्रयु मय विलसत् कर्णिकाक्रान्त कर्णा।

लोहेनैकेन् कृत्वा चरण नलिन कामात्मन: पाद शोभाम्।।

दिग् वासा रासभेन ग्रसती जगादिदं या जवा कर्ण पुरा-

वर्षिण्युर्ध्व प्रब्रिद्धा ध्वज वितत भुजा साSसी देवी त्वमेव।।६।।

संग्रामे हेती कृत्तै: स रुधिर दर्शनैर्यद् भटानां शिरोभी-

र्मालामाबध्य मुर्घ्नी ध्वज वितत भुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा।।

दृंष्ट्वा भुतै: प्रभुतै: प्रिथु जघन घना बद्ध नागेन्द्र कान्ञ्ची-

शुलाग्र व्यग्र हस्ता मधु रुधिर मदा ताम्र नेत्रा निशायाम्।।७।।

दंष्ट्रा रौद्रे मुखे स्मिंस्तव विशती जगद् देवी! सर्व क्षणार्ध्दात्सं

सारस्यान्त काले नर रुधिर वसा सम्प्लवे धुम धुम्रे।।

काली कापालिकी त्वं शव शयन रता योगिनी योग मुद्रा।

रक्त्ता ॠद्धी कुमारी मरण भव हरा त्वं शिवा चण्ड धण्टा।।८।।

।।फलश्रुती।।

ॐ धुमावत्यष्टकं पुण्यं, सर्वापद् विनिवारकम्।

य: पठेत् साधको भक्तया, सिद्धीं विन्दती वंदिताम्।।१।।

महा पदी महा घोरे महा रोगे महा रणे।

शत्रुच्चाटे मारणादौ, जन्तुनां मोहने तथा।।२।।

पठेत् स्तोत्रमिदं देवी! सर्वत्र सिद्धी भाग् भवेत्।

देव दानव गन्धर्व यक्ष राक्षरा पन्नगा: ।।३।।

सिंह व्याघ्रदिका: सर्वे स्तोत्र स्मरण मात्रत:।

दुराद् दुर तरं यान्ती किं पुनर्मानुषादय:।।४।।

स्तोत्रेणानेन देवेशी! किं न सिद्धयती भु तले।

सर्व शान्तीर्भवेद्! चानते निर्वाणतां व्रजेत्।।५।।

महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं दारुणरात्री ही कहा जाता है। वो देवी का महाअंक है। "6"

विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है।

सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं चढ़ाएं ।

केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल ।

पंचमेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें ।

सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें ।

भोजपत्र पर ॐ धूं ॐ लिख करा चदएं ।

दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें ।

सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें  ॐ दारुणरात्री स्वरूपिन्ये नम:

धूमावती पूजा का महत्त्व:-

मान्यता है कि माता धूमावती की पूजा गुप्त नवरात्रि में की जाती है। इनकी कृपा से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इन्हें सभी प्रकार के दुखों से छुटकारा मिलता है। माना जाता है। कि उपरोक्त मंत्रों द्वारा राई में नमक मिलाकर होम करने से शत्रुनाश होता है। नीम की पत्तियों में घी मिलाकर होम करने से व्यक्ति को कर्ज से मुक्ति मिलती है।  इन्हीं मंत्रों के द्वारा काली मिर्च से होम करने से कोर्ट कचहरी के मामलों में विजय एवं कारागार से मुक्ति मिलती है।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411