ज्योतिष द्वारा रोग निदान
आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी ,अनियमित जीवनशैली, अनियमित खानपान कई रोगो और समस्याओ को जन्म दे रहे हैं।किसी भी जातक की जन्म कुण्डली से इस बात को जानने में बहुत सहायता मिलती है कि व्यक्ति को कब , क्यों और किस प्रकार के रोगो की सम्भावना है. इसी प्रकार नक्षत्रों का भी रोग विचार करने में महत्वपूर्ण स्थान होता है जिसमें रोग की अवधि और उसके ठीक होने के समय को भी जाना जा सकता है । आज विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली हैं।। सूक्ष्म से सूक्ष्म रोग को मशीन द्वारा पहचान लिया जाता हैं। परंतु फिर भी कई रोग एंव लक्षण आज भी रहस्य बने हुये हैं।। ज्योतिष शास्त्र द्वारा समस्त रोग पूर्व से ही जाने समझे जा सकते हैं, तथा उनका निदान किया जा सकता हैं।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं।पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व 12वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं
पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार
यह तो सर्वविदित है कि मानवी सृ्ष्टि पंचभौतिक है और पंचभूतों (जल,अग्नि,वायु,पृ्थ्वी,आकाश) के गुण तथा प्रभाव से ही यह सर्वदा प्रभावित होती है। इन्ही पंचतत्वों का अन्तर्जाल कहीं पर सूक्ष्म तो कहीं पर स्थूल रूप से प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप में विद्यमान रहता है। इनकी विशेषता यह भी है कि परस्पर सजातीय आकर्षण के साथ ही विजातीय सश्लेषण में विशिष्ट गुणों की उत्पत्ति भी देखी जाती है।
यदि जन्म पत्रिका में लग्र, सूर्य, चंद्र के चक्र बिंदुओ से शरीर के बाहरी, भीतरी रोग को आसानी से समझा जा सकता है। लग्र बाहर के रोगो का, तथा सूर्य भीतर के रोग, तेज, प्रकृति का तथा चंद्रमा मन उदर का प्रतिनिधी होता है।इन तीनों ग्रहों का अन्य ग्रहों से पारस्परिक संबध या शत्रुता ही शरीर के विभिन्न रोगो को जन्म देती है। जन्म पत्रिका का षष्ठ भाव रोग का स्थान होता है। शरीर में कब, कहां, कौन सा रोग होगा वह इसी से निर्धारित होता है। यहां पर स्थित क्रूर ग्रह पीड़ा उतपन्न करता है। उस पर यदि शुभ ग्रहो की दृष्टि न हो तो यह अधिक कष्टकारी हो जाता
ग्रह,नक्षत्र,तारे,वनस्पतियाँ,नदी,पर्वत,समस्त जीव जन्तु इत्यादि इन्ही पंचभूतों से निर्मित हुए हैं। वैदिक ज्योतिष की बात की जाए तो इसके आधार में “यथा पिंण्डे तथा ब्राह्मंडे” का यही एक सूत्र काम करता है। इसी आधार पर ग्रहों एवं नक्षत्रों से पृ्थ्वी पर उपस्थित प्राणियों के साथ आन्तरिक संबंध निरूपित होते हैं। अन्य पिण्डों के सापेक्ष सौरमंडल के पिण्डों का आपस में इतने निकट का सम्बंध है , जिस प्रकार से की एक मोहल्ले में बने हुए घरों का परस्पर सम्बंध एवं प्रभाव होता है।
इन ग्रह पिण्डों का पृ्थ्वी पर विद्यमान समस्त जड चेतन पदार्थों पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा युगों पहले ही ज्ञात कर लिया गया था। केवलमात्र स्थूल प्रभाव ही नहीं अपितु उनके सूक्ष्मतम प्रभाव के सम्यक विवेचन का नाम ही वैदिक ज्योतिष है।
यदि व्यक्ति को यह पता लग जाए कि वह कब बीमार पड़ने वाला है, तो बीमारी से पहले ही अपेक्षित बचाव कर सकता है। जन्मकुंडली में छठे भाव को रोग का भाव माना जाता है। इसके अलावा जब भी किसी ग्रह के प्रभाव से लग्न एवं लग्नेश दूषित होता है तो बीमारियां आ घेरती हैं। ऐसी स्थितियों से यदि पूर्व में बचाव कर लिया जाए तो रोग का दुष्प्रभाव थोड़ा कम हो जाता है |
मनुष्य की जन्मकुंडली उसके जीवन का आईना होती है। जीवन में क्या होने वाला है यह समय के पहले बड़ी आसानी से जाना जा सकता है। कुंडली में बारह भाव होते हैं, हर भाव का अपना-अपना कार्य क्षेत्र होता है। कुंडली का प्रथम भाव लग्न जातक के स्वास्थ्य से विशेष रूप से संबंधित होता है। वहीं षष्ठ भाव रोग का भाव है, तो द्वादश अस्पताल जाने का। वैदिक ज्योतिष में लग्न एवं लग्नेश की स्थिति, लग्न पर पड़ने वाली अशुभ ग्रहों की दृष्टि या लग्न में स्थिति स्वास्थ्य के ठीक रहने या गड़बड़ होने का संकेत करती है। वहीं कृष्णमूर्ति पद्धति में लग्न के उप स्वामी की स्थिति इस ओर संकेत करती है। अगर लग्न भाव का या लग्न के उप स्वामी का संबंध तृतीय, पंचम एवं एकादश (चर लग्न वालों के लिए एकादश बाधक स्थान होता है।) भावों से हो तो स्वास्थ्य ठीक रहेगा, पर अगर इनका संबंध षष्ठ, अष्टम् एवं द्वादश से बनता है तो स्वास्थ्य के खराब होने की पूरी संभावना होती है। लग्न एवं लग्नेश को दूषित करने वाले ग्रहों के दशा समय में बीमारी की पूरी संभावना बनती है।
कुंडली के बारह भाव शरीर के पूरे अंगों के द्योतक है। दशा विशेष में कुंडली का कोई भाव दूषित हो रहा हो तो उससे संबंधित शरीर के अंग में रोग होने की संभावना होती है। कोई भी जातक जीवन भर एक ही तरह के रोग से ग्रस्त नहीं होता है। समय के बदलाव के साथ-साथ रोग का स्थान बदलता रहता है। किसी जातक में किस तरह के रोग के ज्यादा होने की संभावना है, यह लग्न एवं लग्न नक्षत्र के स्वामी से स्पष्ट होता है। पंडित आशु बहुगुणा बताते हैं कि जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह),चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है,वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है | पंडित आशु बहुगुणा ने बताया कि ज्योतिष विज्ञान अनुसार मंगल अग्नि तत्व का, बुध पृ्थ्वी तत्व का, बृ्हस्पति आकाश तत्व का, शुक्र जल तत्व का और शनि वायु तत्व के प्रतिनिधि है। मनुष्य के शरीर में इन तत्वों की कमी अथवा वृ्द्धि का कारण तात्कालिक ग्रह स्थितियों के आधार पर जानकर ही कोई भी विद्वान ज्योतिषी भविष्य में होने वाले किसी रोग-व्याधी का बहुत ही आसानी से पता लगा लेता है। क्यों कि इन पंचतत्वों का असंतुलन एवं विषमता ही शारीरिक रोग-व्याधी को जन्म देता है।
जन्म कुंडली के भावों, राशियों, नक्षत्रों तथा ग्रहों एवं विशिष्ट समय पर चल रही दशाओं का संपूर्ण अध्यन करके शरीर पर रोग का स्थान एवं प्रकृति, निदान तथा रोग का संभावित समय एवं तीव्रता का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |
ज्योतिष द्वारा रोग निदान की विद्या को चिकित्सा ज्योतिष भी कहा जाता है। इसे मेडिकल ऍस्ट्रॉलॉजी (Medical Astrology) , नैदानिक ज्योतिषशास्त्र (Clinical Astrology) भी कहा जा सकता है।
यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है।
ज्योतिष शास्त्र में 12 भाव/राशियां, 9 ग्रह व 27 नक्षत्र अपनी प्रकृति एवं गुणों के आधार पर व्यक्ति के अंगों और बीमारियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सामान्यतः जन्म कुंडली में जो राशि अथवा जो ग्रह छठे, आठवें, या बारहवें स्थान से पीड़ित हो अथवा छठे, आठवें, या बारहवें स्थानों के स्वामी हो कर पीड़ित हो, तो उनसे संबंधित बीमारी की संभावना अधिक रहती हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोग हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल हैं। कुंडली में षष्ठम भाव को रोग कारक व शनि को रोग जनक ग्रह माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि कोई भी क्षेत्र या विद्या ऐसी नहीं है,जिसमें ज्योतिष अपना दखल न रखता हो। लगभग हर समस्या के निदान की क्षमता ज्योतिष विज्ञान में पाई गई है। रोगों का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। मनुष्य के जन्म से लेकर मरण तक रोग उसके साथ चलते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं जिसने जीवन में कभी न कभी रोग का सामना न किया हो।
जन्म कुंडली में स्थित ग्रहों और इनकी दशा-महादशा में किन-किन रोगों की उत्पत्ति होती है, यह बताने की क्षमता ज्योतिष शास्त्र में है। यही कारण है कि ज्योतिष ‘वैद्यो निरंतरम्’ की परपरा हमारे देश में पुरातनकाल से चली आ रही है। जन्म कुंडली के आधार पर रोगों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
ज्योतिष में रोग विचार में विचारणीय सूत्र( फॉर्मूला )
ज्योतिष में रोग विचार
षष्ठ स्थान
ग्रहों,
राशियों,
कारकग्रह , .
छः भावों का विश्लेषण:प्रथम भाव या लग्न, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भावों ,मारक भाव द्वितीय एवं सप्तम का रोग ,स्वास्थ्य से संबंध है।
ज्योतिष और रोग :
जन्म कुंडली शनि या राहु छठे हाउस , रोग के हाउस से जुड़े हुए हैं। तब रोग लंबे समय के लिए रहेगा क्योंकि शनि या राहु धीमी गति से चलते है। चंद्रमा तेज से गति से चलता है तो रोग जल्द ही ठीक हो जाते हैं। रोग ग्रहों की प्रकृति होते है के अनुसार होते हैं. उनके प्रभाव की अवधि भी उनकी प्रकृति के अनुसार होते हैं। शनि ग्रह और बीमारी: शारीरिक कमजोरी, दर्द, पेट दर्द, घुटनों या पैरों में होने वाला दर्द, दांतों ,त्वचा सम्बन्धित रोग, अस्थिभ्रंश, मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग, लकवा, बहरापन, खांसी, दमा, अपच, स्नायुविकार ,नेत्र रोग और खाँसी । राहु और बीमारी:मस्तिष्क सम्बन्धी विकार, यकृत सम्बन्धी विकार, निर्बलता, चेचक, पेट में कीड़े, ऊंचाई से गिरना, पागलपन, तेज दर्द, विषजनित परेशानियां, पशुओं या जानवरों से शारीरिक कष्ट, कुष्ठ रोग, कैंसर । बुखार, दिमागी की खराबियाँ, अचानक चोट, दुर्घटना ।
कब रोग ठीक होगा :
रोगकारक ग्रह की दशा अन्तर्दशा की समाप्ति के बाद रोग ठीक होगा । लग्नेश , योगकारक ग्रह की दशा अन्तर्दशा प्रत्यन्तर्दशा प्रारम्भ हो जाए, तो रोग से छुटकारा प्राप्त हो सकता हैं। शनि :रोग से जातक को लम्बे समय तक पीड़ित रहता है। राहु :किसी रोग का कारक होता है, तो बहुत समय तक उस रोग की पता नही हो पाता है। ऐसे में रोग अधिक अवधि तक चलता है।
ग्रह और रोग और रत्नोपचार --
ज्योतिष शास्त्र भविष्य दर्शन की आध्यात्मिक विद्या है। भारतवर्ष में चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का ज्योतिष से बहुत गहरा संबंध है। जन्मकुण्डली व्यक्ति के जन्म के समय जन्मकुण्डली में स्थित ग्रह नक्षत्रों का मानचित्र होती है, जिसका अध्ययन कर जन्म के समय ही यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को उसके जीवन में कौन-कौन से रोग होंगे।
चिकित्सा शास्त्र व्यक्ति को रोग होने के पश्चात रोग के प्रकार का आभास देता है। आयुर्वेद शास्त्र में अनिष्ट ग्रहों का विचार कर रोग का उपचार विभिन्न रत्नों का उपयोग और रत्नों की भस्म का प्रयोग कर किया जाता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोगों की उत्पत्ति अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्वजन्म के अवांछित संचित कर्मो के प्रभाव से बताई गई है। अनिष्ट ग्रहों के निवारण के लिए पूजा, पाठ, मंत्र जाप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न धारण आदि साधन ज्योतिष शासत्र में उल्लेखित है।
पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार जन्मकुण्डली में छठा भाव बीमारी और अष्टम भाव मृत्यु और उसके कारणों पर प्रकाश डालते हैं। बीमारी पर उपचारार्थ व्यय भी करना होता है, उसका विचार जन्मकुण्डली के द्वादश भाव से किया जाता है। इन भावों में स्थित ग्रह और इन भावों पर दृष्टि डालने वाले ग्रह व्यक्ति को अपनी महादशा, अंतर्दशा और गोचर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। अनुभव पर आधारित जन्मकुण्डली में स्थित ग्रहों से उत्पन्न होने वाले रोगों का वर्णन किया जा रहा है।
शरीर की चमड़ी का कारक बुध होता है। कुंडली में बुध जितनी उत्तम अवस्था में होगा, जातक की चमड़ी उतनी ही चमकदार एवं स्वस्थ होगी। कुंडली में बुध पाप ग्रह राहु, केतु या शनि से दृष्टि में या युति के साथ होगा तो चर्म रोग होने के पूरे आसार बनेंगे। रोग की तीव्रता ग्रह की प्रबलता पर निर्भर करती है.
एक ग्रह दूसरे ग्रह को कितनी डिग्री से पूर्ण दीप्तांशों में देखता है या नहीं। रोग सामान्य भी हो सकता है और गंभीर भी। ग्रह किस नक्षत्र में कितना प्रभावकारी है यह भी रोग की भीषणता बताता है क्योंकि एक रोग सामान्य सा उभरकर आता है और ठीक हो जाता है। दूसरा रोग लंबा समय लेता है, साथ ही जातक के जीवन में चल रही महादशा पर भी निर्भर करता है।
मंगल रक्त का कारक है, यदि मंगल किसी भी तरह से पाप ग्रहों से ग्रस्त हो, शत्रु राशिस्थ हो, नीच हो, वक्री हो तो वह रक्त संबंधी रोग पैदा करेगा. मुख्य बात यह है.कि यदि मंगल बुध का योग होगा तो किसी भी प्रकार की समस्या अवश्य खड़ी होगी। इसी प्रकार मंगल शनि का योग खुजली पैदा करता है, खून खराब करता है। लग्नेश से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध होने पर वह अवश्य ही चर्म-रोग का कारण बनता है। यदि यह योग कुंडली में हो किन्तु दशा अच्छी चल रही हो तो हो सकता है कि वह रोग ना हो जब तक उस ग्रह की दशा अन्तर्दशा पुनः ना आये।
यदि शनि पूर्ण बली हो और मंगल के साथ तृतीय स्थान पर हो तो जातक को खुजली का रोग होता है। यदि मंगल और केतु छठे या बारहवें स्थान में हो तो चर्म रोग होता है। यदि मंगल और शनि छठे या बारहवें भाव में हों तो व्रण (फोड़ा) होता है। यदि मंगल षष्ठेश के साथ हो तो चर्म रोग होता है।
यदि बुध और राहु षष्ठेश और लग्नेश के साथ हो तो चर्म-रोग होता है (एक्जीमा जैसा)। यदि षष्ठेश पाप ग्रह होकर लग्न, अष्टम या दशम स्थान में बैठा हो तो चर्म-रोग होता है। यदि षष्ठेश शत्रुगृही, नीच, वक्री अथवा अस्त हो तो चर्म -रोग
प्राचीन काल से रोगों के उपचार हेतु रत्नों का प्रयोग विभिन्न रूपों में किया जाता रहा है.रत्नों में चुम्बकीय शक्ति होती है जिससे वह ग्रहों की रश्मियों एवं उर्जा को अवशोषित कर लेती है जिस ग्रह विशेष का रत्न धारण करते हैं उस ग्रह की पीड़ा से बचाव होता है और सकारात्मक प्रभाव प्राप्त होता है.रत्न चिकित्सा का यही आधार है.
बृहस्पति से सम्बन्धित रोग और रत्न--- ग्रहों में बृहस्पति को गुरू का स्थान प्राप्त है.इस ग्रह के अधीन विषय हैं गला, पेट, वसा, श्वसनतंत्र.कुण्डली में जब यह ग्रह कमजोर होता है तो व्यक्ति कई प्रकार के रोग का सामना करना होता हे.व्यक्ति सर्दी, खांसी, कफ से पीड़ित होता है.गले का रोग परेशान करता है, वाणी सम्बन्ध दोष होता है.पीलिया, गठिया, पेट की खराबी व कीडनी सम्बन्धी रोग बृहस्पति के कारण उत्पन्न होता है.रत्नशास्त्र में पुखराज को बृहस्पति का रत्न माना गया है.इस रत्न के धारण करने से शरीर में बृहस्पति की उर्जा का संचार होता है जिससे इन रोगों की संभावना कम होती है एवं रोग ग्रस्त होने पर जल्दी लाभ मिलता है.
शुक्र से सम्बन्धित रोग और रत्न--- शुक्र ग्रह सौन्दय का प्रतीक होता है.यह त्वचा, मुख, शुक्र एवं गुप्तांगों का अधिपति होता है.कुण्डली में शुक्र दूषित अथवा पाप पीड़ित होने पर व्यक्ति को जिन रोगों का सामना करना होता है उनमें गुप्तांग के रोग प्रमुख हैं.इस ग्रह के कारण होने वाले अन्य रोग हैं तपेदिक, आंखों के रोग, हिस्टिरिया, मूत्र सम्बन्धी रोग, धातु क्षय, हार्निया.इस ग्रह का रत्न मोती है जो अंतरिक्ष में मौजूद इस ग्रह की रश्मियों को
ग्रहण करके इसे व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ मिलता है.
शनि से सम्बन्धित रोग और रत्न--
ज्योतिषशास्त्र में शनि को क्रूर ग्रह कहा गया है.इस ग्रह का प्रिय रंग काला और नीला है.इस ग्रह का रत्न नीलम है.जिससे नीली आभा प्रस्फुटित होती
रहती है.इस रत्न को बहुत ही चमत्कारी माना जाता है.इस रत्न को धारण करने से शनि से सम्बन्धित रोग जैसे गठिया, कैंसर, जलोदर, सूजन, उदरशूल, कब्ज, पक्षाघात, मिर्गी से बचाव होता है.जो लोग इन रोगों से पीड़ित हैं उन्हें इस रत्न के धारण करने से लाभ मिलता है.शनि के कारण से दुर्घटना और हड्डियों में भी परेशानी आती है.नीलम धारण करने से इस प्रकार की परेशानी से बचाव होता है.
राहु से सम्बन्धित रोग और रत्न
ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से राहु शनि के समान ही पापी ग्रह है.कुण्डली में अगर यह ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो जीवन में प्रगति को बाधित करने के अलावा कई प्रकार के रोगों से परेशान करता है.इस ग्रह का रत्न गोमेद है जिसे धारण करने से राहु से सम्बन्धित रोग से बचाव एवं मुक्ति मिलती है.राहु के कारण से अक्सर पेट खराब रहता है.मस्तिष्क रोग, हृदय रोग, कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है.राहु बाधा से कैंसर, गठिया, चेचक एवं प्रेत बाधा का भी सामना करना होता है.गोमेद चांदी अंगूठी में पहनना इन रोगों एवं परेशानियों में लाभप्रद होता है.
केतु से सम्बन्धित रोग और रत्न ---
केतु और राहु एक ही शरीर के दो भाग हैं अत: इसकी प्रकृति भी राहु के सामन है.इसे भी क्रूर ग्रहों की श्रेणी में रखा गया है.कुण्डली में केतु पाप प्रभाव में
होने पर इसका रत्न लहसुनियां धारण करना चाहिए.लहसुनियां धारण करने से केतु के अशुभ प्रभाव के कारण होने वाले रोगों से मुक्ति एवं राहत मिलती है.अगर शरीर में रक्त की कमी हो, मूत्र रोग, त्वचा सम्बन्धी रोग, हैजा, बवासीर, अजीर्ण तो यह समझ सकते हैं कि केतु का अशुभ प्रभाव आपके ऊपर हो रहा है.अगर आप इस अशुभ प्रभाव से बचना चाहते हैं तो आपको सूत्र मणि अर्थात लहसनियां पहनना चाहिए.लहसुनियां पहनने से प्रसव काल में माता को अधिक कष्ट नहीं सहना पड़ता है |
सूर्य और रोग:
विवेक : विवेक खोना ।
दिमाग : दिमाग और शरीर का दायां भाग सूर्य से प्रभावित होकर रोग देता है।
अकड़न :सूर्य के कारण खराब होने पर शरीर में अकड़न आ सकती है।
थूक का आना :मुंह में थूक आते रहता है।
दिल का रोग :दिल के रोग का होना।
धड़कन :धड़कन का कम-ज्यादा होते रहना ।
दांतों : दांतों में तकलीफ का होना।
बेहोशी और सिरदर्द :का रोग होना ।
चंद्र ग्रह और रोग :
दिल और बायां भाग : दिल और बायां भाग मे चंद्र ग्रह का प्रभाव होने से रोग देता है।
रोग : सर्दी-जुकाम ,मिर्गी ,पागलपन, बेहोशी ,मासिक धर्म ,फेफड़े संबंधी रोगो का होना।
मासिक धर्म :मासिक धर्म ठीक से न होना।
स्मरण शक्ति कमजोर होना, मानसिक तनाव और मन में घबराहट होना, शंका और अनिश्चित भय का होना ।
आत्महत्या : मन में आत्महत्या करने के विचार आते रहते हैं।
मंगल और रोग :
रोग :नेत्र रोग,उच्च रक्तचाप ,वात रोग, गठिया रोग ,फोड़े-फुंसी ,जख्मी या चोट। ।
बुखार : बार-बार बुखार का आना ।
रोग :शरीर में कंपन ,गुर्दे में पथरी,शारीरिक ताकत मे कमी ,।
शरीर के जोड़ :शरीर के जोड़ मे समस्या का होना ।
रक्त : मंगल से रक्त संबंधी बीमारी हो सकती है ।
बच्चे पैदा होने मे समस्या हो सकती ।
बुध ग्रह और रोग :
तुतलाहट : तुतलाहट का होना।
सूंघने : सूंघने की शक्ति क्षीण होना ।
दांतों : दांतों का खराब होना।
मित्र : मित्र से संबंध ख़राब होना ।
बहन, बुआ और मौसी : बहन, बुआ और मौसी पर मुसीबत आना।
नौकरी या व्यापार : नौकरी या व्यापार में हानि होना।
बदनामी :बदनामी होती है।
गुरु ग्रह और रोग :
रोग : पेचिश, रीढ़ की हड्डी में दर्द, कब्ज, रक्त विकार, कानदर्द, पेट फूलना, जिगर में खराबी ,अस्थमा, दमा, श्वास आदि के रोग, गर्दन, नाक या सिर में दर्द , वायु विकार, फेफड़ों में दर्द ।
शुक्र ग्रह और रोग :
रोग : गाल, ठुड्डी और नसों पर प्रभाव ,अंतड़ियों के रोग ,गुर्दे का दर्द , पांव में तकलीफ ।
वीर्य : वीर्य की कमी होना, यौन रोग का होना , कामेच्छा का समाप्त होना ।
अंगूठे : अंगूठे में दर्द का रहना ।
त्वचा : त्वचा संबंधी रोग का होना ।
शनि ग्रह और रोग : :
रोग : दृष्टि, बाल, भवें और कनपटी पर रहता है।
आंखें कमजोर होना। भवों के बाल झड़ना ।
कनपटी की नसों में दर्द का होना ।
सिर के बाल का झड़ना ।
फेफड़े की तकलीफ होती है।
हड्डियां का कमजोर होना। जोड़ों का दर्द होना ।
रक्त की कमी होना ।
पेट का फूलना।
सिर की नसों में तनाव।
चिंता और घबराहट का होना ।
राहु के रोग :
रोग :गैस प्रॉब्लम, बाल झड़ना , उदर रोग,बवासीर, पागलपन।
मानसिक तनाव : मानसिक तनाव का रहना ।
नाखून :नाखून का टूटते रहना ।
मस्तिष्क : मस्तिष्क में पीड़ा और दर्द का बने रहना ।
पागलखाने, दवाखाने या जेलखाने जा सकता है।
राहु अचानक से कोई बड़ी बीमारी पैदा हो सकती है।
केतु का रोग :
पेशाब :पेशाब का रोग ,कान, रीढ़ ,घुटने, लिंग, जोड़ की समस्या ।
संतान : संतान उत्पति में कठिनाई ।
बाल : सिर के बाल झड़ते हैं।
नसों :शरीर की नसों में कमजोरी का होना ।
चर्म रोग : चर्म रोग होता है।
कान :सुनने की क्षमता कमजोर होना ।
जानिए आपकी जन्म कुंडली अनुसार संभावित रोग का समय और प्रकार और कारण --
1 ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर , पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है।
2 रोग कारक ग्रह जब गोचर में जन्मकालीन स्थिति में आते हैं और अंतर-प्रत्यंतर दशा में इनका समय चलता है तो उसी समय रोग उत्पन्न होता है।
3 कुंडली में मौजूद कौन-सा ग्रह, कौन-सी स्थिति में है। इससे तय होता है का स्वास्थ्य कैसा होगा। अलग-अलग ग्रहों का असर भी अलग-अलग होता है।
4 यदि कुंडली में सूर्य, चंद्र, शनि, मंगल ग्रह विशेष भावों में राहु-केतु से पीड़ित होते हैं तभी नकारात्मक तंत्र-मंत्र व्यक्ति पर असर डालते हैं।
5 यदि षष्ठेश चर राशि में तथा चर नवांश में स्थित होते हैं तो रोग की अवधि छोटी होती है। द्विस्वभाव में स्थित होने पर सामान्य अवधि होती है। स्थिर राशि में होने पर रोग दीर्घकालीन होते हैं ।
6 ज्योतिष में चंद्रमा मन के कारक हैं। लग्न शरीर का प्रतीक है तथा सूर्य आत्मा , जन्मजात रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारक हैं अत: चंद्रमा, सूर्य एवं लग्नेश के बली होने पर व्यक्ति आरोग्य का सुख भोगता है।
7 राशियों ,ग्रह तथा नक्षत्रों का अधिकार क्षेत्र शरीर के विभिन्न अंगों पर है इसके अतिरिक्त कुछ रोग, ग्रह अथवा नक्षत्र की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार जातक को कष्ट देते हैं. |
8 कुंडली में षष्ठम भाव को रोग कारक व शनि को रोग जन्य ग्रह माना जाता है। शरीर में कब, कहां, कौन सा रोग होगा वह इसी से निर्धारित होता है। यहां पर स्थित क्रूर ग्रह पीड़ा उतपन्न करता है। उस पर यदि शुभ ग्रहो की दृष्टि न हो तो यह अधिक कष्टकारी हो जाता है।
9 यदि षष्ठेश, अष्टमेश एवं द्वादशेश तथा रोग कारक ग्रह अशुभ तारा नक्षत्रों में स्थित होते हैं तो रोग की चिकित्सा निष्फल रहती है।
ग्रहो से संबंधित रोग-यदि कुंडली में ये ग्रह छठे भाव के स्वामी के साथ सम्बंध बनायें, और उनकी दशा, अंतर्दशा , प्रत्यंतर दशा आये है तो उसी समय , उस दशानाथ से सम्बंधित बीमारी जन्म लेती है ।
जानिए किस ग्रह के कारण कौन सा रोग होता है ?
सूर्य – हड्डी, मुँह से झाग निकलना , रक्त चाप , पेट की दिक़्क़त
चंद्र – मानसिक तनाव, माइग्रेन, घबराहट, आशंका की बीमारी
मंगल – रक्त सम्बंधी समस्या, उच्च रक्तचाप, कैंसर, वात रोग , गठिया , बनासीर ,
बुध – दंत सम्बंधी बीमारी, हकलाहट, गुप्त रोग, त्वचा की बीमारी, कुष्ट रोग , चेचक, नाड़ी की कमजोरी
गुरू – पेट की गैस, फेफड़े की बीमारी, यकृत की दिक़्क़त, पीलिया
शुक्र – शुक्राणुओं से सम्बंधित , त्वचा, खुजली, मधुमेह
शनि- कोई भी लम्बी चलने वाली बीमारी जैसे एड्स, कैंसर आदि
राहू – बुखार , दिमाग़ी बिमारी, दुर्घटना आदि
केतू – रीढ़, स्वप्नदोष, कान, हार्निया
जन्म कुंडली किसी भी जातक के शरीर में होने वाले रोग की जानकारी देता है। जन्मकुंडली, प्रश्नजन्म कुंडली एवं ग्रह गोचर से रोगों का कारण एवं स्वरूप जाना जा सकता है। इसी कारण जातक की जन्मकुंडली का अध्ययन करके भविष्य में उसे कौन-से रोग कष्ट देने वाले हैं इसकी जानकारी मिलती है।
पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों के संयोग युति प्रत्युति जन्मकुंडली में स्थित ग्रहों की स्थिति एवं उन ग्रहों के परस्पर संबंधों को योग कहा जाता है। ग्रह, स्थान, राशि एवं भाव के आधार पर बनने वाले योग सात हैं-1. स्थान से, 2. भाव से, 3. ग्रहों से, 4. स्थान भाव एवं ग्रहों से, 5. स्थान एवं भाव से, 6. भाव एवं ग्रहों से तथा 7. स्थान एवं ग्रहों से।
स्थान से बनने वाले रोगकारक ग्रह शत्रु राशि तथा लग्न, होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश , नवमांश, दशमांश, द्वादशांश, षोड्शांश, त्रिशांश, षष्ठांश, पारिजात आदि को ग्रहों का स्थान कहते हैं।
भावों से बनने वाले योग : जन्मकुंडली में बारह भाव होते हैं। भावों का प्रारंभ लग्न से होता है। बारह भावों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं 1. तनु, 2. धन, 3. सहज, 4. सुख, 5. पुत्र, विद्या, प्रेम, 6.रोग, शत्रु, 7. जाया, पति, पत्नी, सांझेदारी, 8. मृत्यु, 9. धर्म-पिता, 10. कर्म, 11. आय तथा 12. व्यय।
ग्रहों से बनने वाले योग :
ज्योतिष शास्त्र में शुभ-अशुभ फलदायक कुल नौ ग्रह हैं। 1. सूर्य, 2. चंद्र, 3. मंगल, 4. बुध, 5. बृहस्पति, 6. शुक्र, 7. शनि, 8. राहु, 9. केतु। इन ग्रहों से बनने वाले योगों को योग कहते हैं। रोग विकार के संबंध में कौन-सा ग्रह किस तत्व का है? उसका कद-रंग कैसा है? मानव शरीर पर प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। मानव शरीर में भी समुद्र के जल के अनुपात के बराबर ही जल है। अत: उस जल पर भी पूर्णमासी के चंद्र, पूर्ण चंद्र एवं अमावस्या के चंद्र का भी विशेष प्रभाव पड़ता है। अथ: जो व्यक्ति कृष्ण पक्ष में पैदा होते हैं, उनमें हृदय रोग आमतौर पर होता है। जबकि शुक्ल पक्ष में जन्मे व्यक्ति कम से कम इस हृदय रोग के शिकार होते हैं।
पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार बहुत से जातकों की जन्म कुंडलियों में शनि, राहु एवं केतु जैसे पापी ग्रहों का दुष्प्रभाव पाया जाता है। यदि जन्म कुंडली में चंद्रमा इन पापी ग्रहों से दूषित हो रहा हो तब भी चंद्रमा की शक्ति क्षीण नहीं होती है परंतु पाप पीड़ित चंद्रमा से संबंधित चीजों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति को हृदय रोग हो सकता है, क्योंकि हृदय रोग में चंद्रमा नीच या दूषित होता ही है।
जिस प्रकार सूर्य दिन का स्वामी है, उसी प्रकार रात्रि का स्वामी शनि होता है, इसीलिए रात्रि के समय शयन करते समय पैर दक्षिण तथा आग्नेय दक्षिण-पूर्व कोण की तरफ करना अत्यधिक अशुभ माना गया है क्योंकि दिन के समय मस्तिष्क ने कार्य किया, जब सूर्य ने सहायता प्रदान की और रात्रि के समय आत्मा ने कार्य संभाला, तब चंद्र ने सहायता की।
वैसे तो चंद्र कर्क राशि का स्वामी है,और हृदय काल पुरुष में कर्क राशि के रूप में जाना जाता है इसलिए शरीर का जो भी अंग दूषित होगा, वह उस कारक ग्रह के दूषित या नीच होने के कारण ही होगा। अत: चंद्र जब भी नीच का हो रहा हो अथवा चंद्रमा पापी ग्रहों राहु या केतु द्वारा कमजोर या प्रदूषित हो गया हो, तब हृदय रोग की संभावना होती है।
वैसे भी हृदय रोग चंद्रमा के दूषित या कमजोर होने पर ही होता है। अत: इस रोग के रोगी को चंद्रमा को शुभ रखने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए सोमवार के दिन ॐ नम: शिवाय या महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। अर्जुन की छाल का काढ़ा पिएं तथा नशीले पदार्थों के सेवन से बचने का प्रयत्न करें।
आइये जाने की किस राशी पर के और क्यों होता हें प्रभाव.?
1. मेष राशि :- इस राशि का स्वामी मंगल है। यह सिर या मस्तिष्क की कारक है और इसके कारक ग्रह मंगल और गुरू हैं। मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्च के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अग्नि तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। पंडित आशु बहुगुणा के अनुसार यदि लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध प्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।
2. वृषभ राशि :- इस राशि का स्वामी शुक्र है। यह मुख की कारक राशि है व लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध और शनि होते हैं। शुक्र 27 अंश पर मीन में उच्चा के तथा कन्या राशि में नीच के होते हैं(परम उच्चांश व परम नीचांश)। शुक्र ग्रह कलात्मक गुणों से भरपूर, रसिक व आशिक मिजाज, रंग सफेद तथा भूमि व वायु से युक्त है। वृषभ राशि लग्न में स्थित हो, शुक्र या कारक ग्रह नीच के हो तो जातक हमेशा नियमों के खिलाफ चलने वाला होता है। ऎसे जातक को मुख संबंधी बीमारी छाले, तुतलाकर बोलना आदि की शिकायत रहती है तथा जातक की संतान को आजीवन बुरे स्वास्थ्य का सामना करना प़डता है।
3. मिथुन राशि :- मिथुन राशि का स्वामी बुध है। यह वक्ष, छाती, भुजाएं व श्वास नली की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध व चन्द्रमा होते हैं। बुध के परम उच्चांश व परम नीचांश 15 होते हैं जो कन्या राशि में उच्चा के तथा मीन राशि में नीच के होते हैं। बुध ग्रह को नपुंसक, स्त्री तत्व युक्त, राजकुमार आदि की संज्ञा दी गई है। रंग हरा व इसमें पृथ्वी व वायु तत्व मौजूद है। इसकी वणिक वृत्ति रहती है। यदि बुध कुण्डली में नीच का हो या अन्य क्रूर ग्रहों से पीड़ित हो तो जातक फेफ़डों से संबंधित रोग जैसे टी.बी., श्वास नली में खराबी, वायु प्रकोप (गैस व अपच), जी घबराना, हाथ व माँस पेशियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
4. कर्क राशि :-कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा है। यह राशि ह्वदय की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह चन्द्रमा और मंगल होते हैं। 3 अंश पर वृषभ राशि में चन्द्रमा उच्च् के तथा वृश्चिक राशि में परम नीच के माने जाते हैं। चन्द्रमा सौम्य ग्रह है। जल तत्व, सफेद रंग, स्त्री प्रधान तथा ब्राह्मण व वैश्य के गुण इनमें मौजूद हैं। यदि कुण्डली के लग्न में र्क राशि हो व चन्द्रमा नीच के या पीड़ित हो तो जातक की त्वचा व पाचन संस्थान पर विपरीत प्रभाव रहता है एवं जातक में आत्म विश्वास की कमी रहती है। मानसिक अवसाद, कुण्ठा व जातक कमजोर दिल का होता है। ऎसे जातक की संतान भी नीच विचारों की होती है।
5. सिंह राशि :-सिंह राशि का स्वामी सूर्य है जो नक्षत्र-मण्डल का स्वामी है। यह राशि गर्भ व पेट की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य और मंगल होते हैं। 10 अंश पर मेष राशि में ये परम उच्च के तथा तुला राशि में परम नीच के होते हैं। सूर्य उग्र स्वभाव के, अग्नि तत्व तथा इनका रंग हल्का लाल व पीला है। यदि कुण्डली के लग्न में सिंह राशि है तथा यह या सूर्य नीच के हो या अन्यथा किसी प्रकार पीड़ित हो तो शरीर में रक्त संचार एवं जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। जातक को ह्वदयाघात, हडि्डयों की बीमारी व नेत्र रोगों से ग्रसित हो सकता है। ऎसा जातक अपने लक्ष्यों से भटक जाता है तथा नीच कर्मरत रहता है।
6. कन्या राशि :- न्या राशि के स्वामी बुध है तथा यह पेट व कमर के कारक हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह बुध तथा शुक्र होते हैं। नीच का या अन्यथा बुध पीड़ित होने पर पेट, पाचन क्रियाएं, यकृत संबंधित रोग व शुक्र के प्रभाव या संयोग के कारण गुप्त रोगों का व किडनी, गुदा से संबंधित रोग जातक को प्रदान करता है।
7. तुला राशि :-तुला राशि के स्वामी शुक्र हैं तथा यह राशि मृत्राशय की कारक है। लग्न में यह राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, शनि व बुध होते हैं एवं स्वामी के किसी भी प्रकार से पीड़ित होने पर या नीच का होने पर यह जातक को जननांग व मूत्राशय संबंधित रोगों से पीड़ित रखता है। महिलाओं के मासिक धर्म व गर्भ धारण संबंधी क्रिया भी इसी के कारण प्रभावित होती है।
8. वृश्चिक राशि :-वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल हैं। यह राशि गुप्तांगों (लिंग व गुदा) की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह मंगल, गुरू व चंद्रमा होते हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर व राशि स्वामी के पीड़ित होने पर या नीच में स्थित होने पर या मंगल बद होने पर गुदा, लिंग, जननांग, यकृत, मस्तिष्क संबंधी व आंतों की बीमारियों से जातक को ग्रसित करती हैं।
9. धनु राशि :-धनु राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। यह राशि जांघों व नितम्ब की कारक है। गुरू पुरूष प्रधान, शांत व मौन प्रकृति के, रंग पीला तथा इनमें जल व अग्नि दोनों तत्व मौजूद है। लग्न में स्थित होने पर इस राशि के कारक ग्रह गुरू व चन्द्रमा होते हैं। 5 अंश पर कर्क में परमोच्चा व मकर राशि में परम नीच के होते हैं। नीचस्थ व पीड़ित गुरू जातक को लीवर, ह्वदय, आंत, जंघा, कूल्हे व बवासीर रोगों से ग्रसित रखते हैं।
10. मकर राशि :-मकर राशि के स्वामी शनि है। यह राशि घुटनों की कारक है। शनि क्रूर ग्रह है। इसका रंग काला तथा इसमें वायु व पृथ्वी तत्व मौजूद है। शनि 20 अंश पर तुला राशि में परमोच्चा व मेष राशि में परम नीच के होते हैं। लग्न में मकर राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शनि, शुक्र व बुध होते हैं। शनि नीचस्थ या पीड़ित होने पर जातक को घुटनों, जांघ, कफ व पाचन तंत्र संबंधी बीमारियों से ग्रसित रखता है। इसके अलावा पुरानी बीमारी यदि कोई है तो उस पर भी इसी राशि का प्रभाव रहता है।
11. कुम्भ राशि :-कुम्भ राशि के स्वामी भी शनि है। यह राशि पिण्डलियों की कारक है। कुम्भ राशि लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह गुरू, शुक्र व शनि होते हैं। शनि के पीड़ित या नीचस्थ होने पर व इस राशि के पीड़ित होने पर जातक पिण्डलियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया व कई प्रकार की अन्य बीमारियों से ग्रसित रहता है क्योंकि ऎसा जातक खराब आदतों वाला व किसी भी प्रकार के नशे का आदि होता है जिसके परिणामस्वरूप वह कई प्रकार की व्याधियां पाल लेता है।
12. मीन :- मीन राशि का स्वामी देवगुरू बृहस्पति होते हैं। यह राशि पैर के पंजों की कारक है। लग्न में मीन राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य, मंगल व गुरू होते हैं। राशि स्वामी के पीड़ित या नीचस्थ होने पर जातक लीवर, पंजों, तंत्रिका से संबंधी बीमारी व घुटनों संबंधी परेशानी जातक को रहती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कुण्डली में रोगों का अध्ययन करते समय उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व ग्रहों की युति, प्रकृति, दृष्टि, उनका परमोच्चा या परम नीच की स्थिति का गहन अध्ययन कर ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए।
रोग से ग्रस्त व्यक्ति को उसके अनुरूप पूजा, जप, रत्न धारण और औषधि सेवन करना चाहिए। सनातन धर्म के अनुसार दो मंत्रों को ज्यादा अहमियत दी गई है। महामृत्युंजय एवं गायत्री। इन दोनों में किसकी महत्ता अधिक है, यह कहना मुश्किल है पर अगर दोनों को एक साथ मिला दिया जाए तो मिलकर बनने वाला मंत्र मृत संजीवनी कहलाता है।
नीचे मृत संजीवनी मंत्र दिया जा रहा है। जिसके जप से देव-दानव युद्ध में मृतक दानवों को जिलाया जाता था। इस तरह इसकी अहमियत, स्वतः स्पष्ट होती है।
ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!
महामृत्युंजय मंत्र ---
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
जप कराने के समय एक बात का ध्यान अवश्य ही रखना चाहिए कि जिस ग्रह की वजह से बीमारी या परेशानी हो रही हैं |जन्मकुंडली में रोग उत्पन करने वाले ग्रहो के निदान के लिए पूजा, पाठ, मंत्र जप, हवन( यज्ञ ), यंत्र , विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न आदि साधन ज्योतिष शास्त्र में उल्लेखित है। किसी भी योग्य ,अनुभवी या कुशल ज्योतिषी की सलाह पर बीमारी से सम्बंधित भाव , भावेश तथा कारक ग्रह से सम्बंधित ज्योतिषीय उपाय करते हुए रोग के प्रभाव को कम करना चाहिए। जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा ,संपर्क सूत्र- 9760924411