मां कामाख्या देवी का सिद्धि विधान

कामाख्या देवी सिद्धि विधान
1-- आसन शुद्धि
कामाख्या में देवी जी पूजन वहाँ के पुजारी जैसे कराएँ वैसे करना चाहिए अथवा देवी - पूजन - विधि के अनुसार करना चाहिए । मन्दिर में सब देवों का पूजन कर लाल वस्त्र पर देवीजी का पूजन करें और घर में, गणेश - गौरि, कलश, नवग्रह षोडश मातृकादि का स्थापन पूजनादि के बाद कामाख्या देवी का स्थापन पूजन करें ।

अथ आसन शुद्धि - साधक को चाहिए कि स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करके आचार्य के आदेशानुसार पूर्वादिक मुँह करके आसन पर बैठे । तब आसन के नीचे पूर्वादिक भाग में त्रिकोण मण्डल बनाकर निम्नांकित मन्त्र द्वारा गन्ध पुष्पादि धूप दीप नैवेद्य दक्षिणादि से पूजन करें ।

मन्त्र - ह्लीं आधार शक्तये नमः ॥ ॐ कूर्माय नमः ॥ ॐ अनन्ताय नमः ॥ ॐ पृथिव्यै नमः ॥
पूजन के बाद उस त्रिकोण का स्पर्श इस मन्त्र द्वारा करें ।

मन्त्र - ॐ पृथ्वि ! त्वया धृतालोका देवि त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥
अब शुद्धासन पर डालकर पूजा के निमित्त आसन ग्राहण करें और रक्षा विधान करें ।

आचमन विधि - पुण्य कार्य के आरम्भ में आचमन अवश्य करना चाहिए । आचमन के समय जल का नख से स्पर्श तथा ओष्ठ का शब्द नहीं होना चाहिए । प्रथम आचमन से आध्यात्मिक, दूसरे से अधिभौतिक और तीसरे से अधिदैविक शान्ति होती है । इसलिए तीन बार आचमन करें और चौथे मन्त्र से बोलते हुए दूसरे पात्र के जल से हाथ की शुद्धि करें ।

मन्त्र - ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः । ॐ माधवाय नमः ॥ तत्पश्चात् हाथ धोये - ॐ हषीकेशाय नमः ॥
पुष्प शुद्धि - नीचे के मन्त्र से पूजा - पुष्प को देखें -
ॐ पुष्पे पुष्पे महापुष्पे सुपुष्पे पुष्प सम्भवे ।
पुष्प चमा वकीर्णन च हुँ फट् स्वाहा ॥
कर शुद्धि - साधक ऐं कहकर रक्त पुष्प हाथ में लेवे और ॐ कहकर दोनों हाथों से प्रेषण करें ( उक्त पुष्प को हाथ में घुमाए ) । इसके बाद उस पुष्प को ईशान कोण में रख दें ।
शरीर तथा पूजन सामग्री शुद्धि - अब आचार्य अथवा साधक स्वयं अपने सिर पर जल छिड़के ।

मन्त्र - ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं सावाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
पुनः पूजन सामग्री पर जल छिड़के ।
मन्त्र - ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु ।
यज्ञोपवीत धारण करना - तब इस मन्त्र से यज्ञोपवीत धारण करें ।
मन्त्र - ॐ यज्ञोपवीतं परमं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
तपश्चात् दो बार आचमन करें ।
भस्म और टीका लगाना - ' ॐ हुं फट् ' से मस्तक, कण्ठ, हदय और बाहु में त्रिपुण्ड धारण करें । पुनः ' ऐं ' कहकर रोली ले बाएँ हाथ पर रखे और ' ह्लीं ' का उच्चारण कर जल मिलाकर दाहिने हाथ की अनामिका उंगली से गीला करें और ' श्री ' बोलकर मध्यमा उंगली से मस्तक के मध्य में एक लम्बा टीका लगाए । ' क्लीं ' बोलते हुए हाथ धोए और पुनः हाथ जोड़ ' ॐ ' का उच्चारण कर देवी का ध्यान करें।


2-- न्यास विधि
अथ जीव न्यासः - ॐ सोहमिति पठित्वा हदि हस्तं दत्त्वा ॐ, आं, ह्लीं, क्रों, यं, रं, लं, वं, शं, षं, सं, हो, हंस मम प्राणइह प्राणा ॐ आं. मम जीव इह स्थित, पुनः ॐ आं ममवाडमश्चरश्चक्षु श्रोत घ्राण प्राणः इहा गत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।
अथ कराङ्गन्यासः- ॐ अं, कं, खं, गं, ङं, आं अगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ इं, चं, छं, जं, झं, ञं, ई, तर्जनीभ्यां नमः । ॐ उं, टं, ठं, डं, ढं, णं, ऊं मध्यमाभ्यां वषट् । ॐ एं, तं, थं, दं, धं, नं, ऐं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ओं, पं, फं, बं, भं, मं, औं कनिष्ठाभ्यां वषट् ॐ अं, यं, रं, लं, वं, शं, षं, सं, हं, लं, क्षं, अः करतल पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट् ।
अंगन्यासः - ॐ अं, कं, खं, गं, घं, ङं, आं हदये नमः ।
ॐ इं, चं, छं, जं, झं, ञं, ई, शिरसे स्वाहा ।
ॐ उं, टं, ठं, डं, ढं, णं, ऊं शिखाये वषट् ।
ॐ एं, तं, थं, दं, धं, नं, ऐं कवचाय हुम् ।
ॐ ओं, पं, फं, बं, भं, मं, औं नेत्राभ्यां वषट् ।
ॐ अं, यं, रं, लं, वं, शं, षं, सं, हं, लं, क्षं, अः करतल पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट् ।
अथ मातृका न्यासः-- आधारे वं नमः । शं नमः । षं नमः । सं नमः लिङ्गे । बं नमः । भं नमः । मं नमः । यं नमः । रं नमः । लं नमः + नामे । डं नमः । ढं नमः । णं नमः । तं नमः । थं नमः । दं नमः । धं नमः । नं नमः । पं नमः । फं नमः हदये । कं नमः । खं नमः । गं नमः । घं नमः । ङं नमः । चं नमः । छं नमः । जं नमः । झं नमः । ञ नमः । टं नमः । ठं नमः कंठे । अं नमः । आं नमः । इं नमः । ईं नमः । उं नमः । ऊँ नमः । ऋ नमः । ऋनमः । लृं नमः । नमः । एं नमः । ऐं नमः । ओं नमः । औं नमः ललाटे ।
अंगन्यास करन्यासौः- ॐ कामाक्ष्ये अगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ कामाक्ष्ये तर्जनीभ्यां स्वाहा । ॐ कामाक्ष्ये मध्यमाभ्यां वषट् । ॐ सृष्टि कारिणी कनिष्ठाभ्यां वौषट् । ॐ कामाक्ष्ये सृष्टि रक्षिणी करतल कर पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट् । ॐ कामाक्ष्ये कामं हदयाय नमः । ॐ कामाक्ष्ये शिरसि स्वाहा । ॐ कामाक्ष्ये शिखायै वषट् । ॐ सृष्टिकारिणी कवचाय हुम् । ॐ कामाक्ष्ये कामदायिनी नेत्राभ्यां वौषट् । ॐ कामाक्ष्ये सृष्टि कारिणी करतल कर पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट् ।


3-- प्राणायाम विधि
यज्ञकर्ता पदमासन से बैठकर भगवती को ध्यान करते हुए मौन होकर नेत्र को बन्दकर तीन बार प्राणायाम करें-
पूरक प्राणायामः- नासिका के दाहिने छिद्र को अंगुष्ठ से दबाकर बाएँ छिद्र से श्वांस खींचता हुआ नील कमल के सदृश्य श्याम वर्ण चतुर्भुजी भगवती का ध्यान अपनी नाभि में करें ।
कुम्भक प्राणायामः- उस छिद्र को दबाए हुए नासिका के बाएँ छिद्र को कनिष्ठिका और अनामिका अंगुलियों से दबाकर के श्वांस को रोकर कमल के आसन पर बैठे हुए रक्त वर्ण चतुर्भुजी भगवती का ध्यान अपने हदय में करें ।
रेचक प्राणायामः- श्वेतवर्णा त्रिनेत्रा चतुर्भुजी भगवती का ध्यान अपने ललाट में करता हुआ नासिका के दाहिने छिद्र को खोलकर धीरे - धीरे श्वास छोड़े । ( गृहस्थ तथा वानप्रस्थी पाँचों अंगुलियों से नासिका को दबाकर भी प्राणायाम कर सकते हैं । )
प्राणायाम मन्त्र
क्लीं पूरक प्राणायाम् में सोलह बार मन्त्र को जपे । कुम्भक प्राणायाम् में चौसठ बार तथा रोचक में बत्तीस बार उच्चारण करें ।
अथ पीठन्यासः
हदयः- ॐ आधार शक्तये नमः । ॐ प्रकृत्यै नमः । ॐ कुर्म्माय नमः । ॐ अनन्ताय नमः । ॐ पृथिव्यै नमः । ॐ क्षीर समुद्रायै नमः । ॐ रति द्वीपाय नमः । ॐ मणि मण्डलाय नमः ।
दक्षिण - स्कन्ध - ॐ धर्माय नमः ।
वाम - स्कन्ध - ॐ ज्ञानाय नमः ।
दक्षिण उर मूले - ॐ वैराज्ञाय नमः ।
वाम उर मूले - ॐ ऐश्वर्याय नमः ।
मुख - ॐ धर्माय नमः ।
दक्षिण पार्श्व - ॐ आज्ञानाय नमः ।
वाम पार्श्व - ॐ अवैरायनमः ।
नाभि - ॐ अनैश्वर्याय नमः ।

पुनः
हदय - ॐ शेषाय नमः । ॐ पद्माय नमः । ॐ सूर्य मण्डलाय द्वादश कलात्मने नमः । ॐ सोम मण्डलाय षोडश कलात्मने नमः । ॐ भौम मण्डलाय द्वादश कालात्मने नमः । ॐ सत्वाय नमः । ॐ रं रजसे नमः । ॐ तं तमसे नमः । ॐ आं आत्मने नमः । ॐ पं पात्मने नमः । ॐ क्लीं ज्ञानात्मने नमः ।


4-- पीठ शक्ति न्यास
हतपदमस्य पूर्वादिकेशरेषु आं प्रमायै नमः । ईं आयायै नमः । ॐ गंगायै नमः । एं सूक्ष्मार्य नमः । ऐं विशुद्धयै नमः । ओं नन्दिन्यै नमः । औं प्रभायै नमः । अं विजयायै नमः । अः सर्वसिद्धिदात्र्यै नमः । मध्ये - ॐ बज्र नषदंष्ट्रयुधाय महासिंहाय ॐ हुँ फट् नमः ।

व्यापक न्यासः
क्लीं यह मन्त्र कहते हुए सिर से पैर तक तीन बार अंग स्पर्श करें ।
अथ अर्घ स्थापन तथा शंख, घंटादि का पूजन ।
ॐ अस्त्राय फट् - यह मन्त्र कहकर शंख प्रक्षालन करें ।
तब वाम भाग में त्रिकाण मण्डल बनाकर शंख उस पर स्थापित करें ।
ॐ नमः - यह मन्त्र कहकर गन्ध, पुष्प, अक्षत, शंख में छोड़ दें । फिर निम्न मन्त्र से शंख में जल छोड़े ।
ॐ ज्ञं नमः । ॐ त्रं नमः । ॐ क्षं नमः । ॐ हं नमः । ॐ सं नमः । ॐ षं नमः । ॐ शं नमः । ॐ वं नमः । ॐ लं नमः । ॐ रं नमः । ॐ यं नमः । ॐ मं नमः । ॐ भं नमः । ॐ बं नमः । ॐ फं नमः । ॐ पं नमः । ॐ नं नमः । ॐ धं नमः । ॐ दं नः । ॐ थं नमः । ॐ तं नमः । ॐ णं नमः । ॐ ठं नमः । ॐ डं नमः । ॐ ठं नमः । ॐ टं नमः । ॐ ञं नमः । ॐ झं नमः । ॐ जं नमः । ॐ छं नमः । ॐ चं नमः । ॐ ङं नमः । ॐ घं नमः । ॐ गं नमः । ॐ खं नमः । ॐ कं नमः । ॐ अः नमः । ॐ अं नमः । ॐ औं नमः । ॐ ओं नमः । ॐ ऐं नमः । ॐ एं नमः । ॐ लृ नमः । ॐ लृ नमः । ॐ ऋ नमः । ॐ ऋ नमः । ॐ ऊं नमः । ॐ उं नमः । ॐ ईं नमः । ॐ इं नमः । ॐ आं नमः । ॐ अं नमः । ॐ ऐं ह्लीं क्लीं श्री कामाक्ष्यै नमः । ॐ पूर्णायै नमः ।
भौम कलात्मने - ॐ वह्नि मण्डलाय नमः ।
अंधदेश कलात्मने - ॐ सूर्य मण्डलाय नमः ।
शंख षोडश कलात्मने - ॐ चन्द्रमण्डलाय नमः ।
अब शंख की गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप और नैवेद्य दक्षिणादि से पंचोपचार पूजन करें । इसी प्रकार घंटा घड़ियाली का भी साथ में पूजन करें । तब हाथ मं पुष्प लेकर दोनों की अलग - अलग प्रार्थना करें ।
शंख की प्रार्थना - त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुनाविधृताकरे । निर्मितः सर्व देवैश्च पञ्चजन्य नमस्तुते ।
घड़ी, घंटा, घड़ियाली की प्रार्थना -
आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु राक्षसाम् ।
घंटानादं प्रकुर्वीत् पश्चाद् घण्टां प्रपजयेत् ॥
शान्ति पाठ एवं मंगल श्लोक
साधक हाथ में पुष्प और चावल ले हाथ जोड़कर निम्न श्लोक पढ़े और सब देवों को नमस्कार करें ।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णदः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥१॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । द्वादशेतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥२॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥३॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्ण चतुर्भुजम् । प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥४॥
अभीप्सितार्थसिद्धयर्थ पूजितो यः सुराऽसुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥५॥
सर्वमङ्गलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिकेः । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ॥६॥
सर्वदा सर्वकार्येषं नास्ति तेषाममंगलम् । येषां हदिस्थो भगवान् मंगलायतनो हरिः ॥७॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव, ताराबलं चन्द्रबलं तदेव । विद्याबलं दैवबलं तदेव, लक्ष्मीपते ! तेऽङघ्रियुगं स्मरामि ॥८॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । येषामिन्दीवरश्यामो हदयस्थो, जनार्दनः ॥९॥
सर्वष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः । देवा दिशन्तु नं सिद्धिं ब्रह्मेशान जनार्दनाः ॥१०॥
श्री मन्महागणधिपतये नमः ॥ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नमः ॥ उमामहेश्वराभ्यां नमः ॥ वाणी - हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ॥ शचीपुरन्दराभ्यां नमः ॥ मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नमः ॥ इष्टदेवताभ्यो नमः ॥ कुलदेवताभ्यो नमः । ग्रामदेवताभ्यो नमः ॥ स्थान देवताभ्यो नमः ॥ वास्तु देवताभ्यो नमः ॥ सर्वेभ्यो नमः ॥ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः ॥ सर्वेभ्यो तीर्थेभ्यो नमः ॥
पुष्य अक्षत को श्रद्धापूर्वक पृथ्वी पर रख पुनः पुष्प अक्षत लें निम्न मन्त्र से देवी की प्रार्थना करें -
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै शतत् नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रार्य निहताः प्रणतास्म् ताम् ॥
संकल्पः- अब कुश, अक्षत, पुष्प, जल लेकर निम्न प्रकर से संकल्प करें । ( अमुक के स्थान पर आगे का नाम उच्चारण करता जाए । )
हरिः ॐ तत्सत् श्री विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य ॐ नमः परमात्मने श्री पुराण पुरुषोत्तमाय ब्रह्मणोह्नि द्वितीयपराद्धें श्री श्वेत वाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तेक देशान्तर्गते श्री मद्विष्णुप्रजापति क्षेत्रे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे अमुक क्षेत्रे ( यथा प्रयाग क्षेत्रे, विंघ्य क्षेत्रे, काम्य क्षेत्रे इत्यादि । अमुक नाम सन्वत्सरे मासोत्तमे मासे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नोऽहममुक शर्माहं ( ब्राह्मण शर्मा कहे क्षत्रिय वर्मा और वैश्य गुप्त कहे ) सकलदुरितोपशमनं सर्वापच्छान्ति पूर्वक अमुक ( यदि कोई मनोरथ हो ) मनोरथ सिद्ध्यर्थ यथासपादित सामिग्रया श्री कामाख्यादेवी पूजनं करिष्ये ॥१॥
तदङ्गत्वेन कैलश स्थापनं वरुण पूजनं सूर्यादि नौग्रह देवता स्थापनं पूजनं च करिष्ये ॥२॥
तत्रादौ निर्विघ्नता सद्ध्यिर्थ गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये ॥ कहकर भूमि पर छोड़ दें ।


5-- पृथ्वी, गौरी, गणेश पूजन विधि-
पूजनकर्त्ता हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर हाथ जोड़े ( पृथ्वी के लिए ) और नीचे का मन्त्र पढ़कर पृथ्वी के ऊपर रख दें - ॐ स्योना पृथिवि नो भवान्नृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म्म सप्रथाः ।
पुनः गणेशजी के लिए अक्षत पुष्प लेकर हाथ जोड़े और नीचे का मन्त्र कहकर गणेशजी को चढ़ा दें -

ॐ गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थमजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम् ॥
इसी प्रकार निम्न मन्त्र से गौरि के लिए अक्षत पुष्प चढ़ाए -
ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते ॥
अब पृथ्वी, गणेशजी और गौरीजी तीनों का क्रम से निम्न विधि से पूजन करते जाए । पृथ्वी का आह्वान प्रतिष्ठा नहीं करना चाहिए । अतः गौरी - गणेश का आह्वान, प्रतिष्ठा चावल लेकर करें ।
आह्वानः-- आगच्छ भगवान् देव स्थाने चात्र स्थिरो भव ।
यावत् पूजां करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव ॥
प्रतिष्ठाः-- अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवत्यमर्चायै मामहेति च कञ्चन ॥
आसनः-- रम्यं सुन्दरं दिव्यं सर्वं सौख्यकरं शुभम् ।
आसनं च मयादत्तं गृहाण परमेश्वर ॥ आसनं समर्पयामि ॥
पाद्यः-- उष्णोदकं निर्मलं च सर्व सौगन्ध संयुतम् ।
पाद प्रक्षालनार्थाय दत्तं ते प्रतिगृह्यताम् ॥ पाद्यं समर्पयामि ॥
अर्घ्यः-- गृहाण देवेश ! गन्धपुष्पाक्षत सह ।
करुणाकर मे देव गृहाणार्घ्य नमोस्तुते ॥ अर्घ्य समर्पयामि ॥
आचमनः-- सर्वतोर्थ वक्तं सुगन्धि निर्मलं जलम् ।
आचम्यताम् मयादत्तं गृहाण परमेश्वर ॥ आचमं स. ॥
स्नानः-- गंगा सरस्वती रेवा पयोष्णी नर्मदा जलैः ।
स्नापितोऽसि त्वया देव तथा शान्तिं कुरुष्व मे ॥
वस्त्रः-- सर्व भूषादिके सौम्ये लोकलज्जा निवारणे । मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृहीताम् ॥ वस्त्र समर्पयामि ॥ यज्ञोपवीत - ( केवल गणेशजी को ) - नवाभिर्नन्तुभिर्युक्त त्रिगुणं देवतामयं । उपवीर्तेमपादत्तं गृहाण परमेश्वर ॥ यज्ञोपवीतं समर्पयामि ॥
चन्दनः-- श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धढ्य सुमनोहरं । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्याताम् ॥ गन्धं सं. ॥
कुम्कुम ( रोली )ः-- कुम्कुमं कामनादिव्यं कामिनीकाम् संभवम् । कुम्कुमेवार्चितोदेव गृहाण परमेश्वर ॥ कुम्कुमं सं. ॥
अक्षतः-- अक्षतांश्चसुरश्रेष्ठ कुम्कुभोक्ताः सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर ॥ अक्षतान् सं. ॥
पुष्पः-- माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो । मया नीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर ॥ पुष्पाणि सं. ॥
दूर्वा ( दूब )ः-- त्वंदूर्वेऽमृत जन्मासि वन्दितासि सुरैरपि । सौभाग्य सन्ततिर्देहि सर्व कार्यकारी भव ॥ दूर्व सं. ॥
सिन्दूरः-- सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्द्धनम् । शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम् ॥ सिन्दूरं सं. ॥
धूपः-- वनस्पतिरसोदभूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः ॥ आघ्रेयः सर्वदेवतां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् । धूपमाघ्रापयामि ॥
दीपः-- राज्यं च वर्ति संयुक्त वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्य तिमिरापहम् ॥ दीपं दर्शयामि ।
नैवेद्यः-- शर्कराघृत संयुक्त मधुर स्वादुचोत्तमम् । उपहारं समायुक्तं नैवेद्य प्रतिगृह्यताम् ॥ नैवेद्यं निवेदयामि ॥
आचमनः-- गंगाजलं समानीतं सुवर्णकलशेस्थितम् ॥
आचम्यताः-- सुरश्रेष्ठशुद्धमाचमनीयम् ॥ आचमनीयं सं. ॥
ऋतुफलः-- नारिकेलफलं जम्बूफलं नारंगमुत्तमम् । कूष्माण्डं पुरतो भक्त्या कल्पितं प्रतिगृह्यताम् ॥ ऋतुफलं सं. ॥
ताम्बूल पूगीफलः-- पूंगीफलं महादिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । एलाचूर्णादिसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् । ताम्बूलं पूंगीफलं सं. ।
दक्षिणः-- हिरण्यगर्भ गर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः । अनन्त पुण्य फलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे । दक्षिणां सं. ॥
विशेषः-- पंचोपचार पूजन में यही मन्त्र प्रयोग किया जाता है । स्नान से लेकर दक्षिणा तक की विधि तीनों अर्थात् ( पृथ्वी गौरी गणेश ) के लिए करें । आगे भी अन्य देवों के पूजन के लिए यही मन्त्र और नियम काम में लाए । किसी सामग्री के अभाव में चावल का प्रयोग कर नियम पूरा करें । इसके बाद प्रार्थना अलग - अलग करनी चाहिए । हाथ में पुष्प - अक्षत लेकर नीचे के मन्त्र से प्रार्थना कर चढाएँ ।
पृथ्वी की प्रार्थना -
सशैल सागरां पृथ्वीं यथा वहसिमूर्द्धनि ।
तथा मां वह कल्याणं सम्पत्त्सन्ततिभिः सह ॥
गणेशजी की प्रार्थना -
ॐ रक्ष - रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्य रक्षक ।
भक्तानां अभयंकर्त्ता त्राता भव भवार्णवात् ॥
द्वै मातुर कृपासिन्धो षण्मातुराग्रज प्रभो ।
वरद् त्वं वरं देहि वांञ्छितं वाञ्छतार्थद ॥
गौरीजी की प्रार्थना -
शरणागतदीनार्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽ‍स्तुते ॥


6-- कलश स्थापन-
पूजनकर्त्ता पृथ्वी का स्पर्श करें ।
मन्त्र - ॐ भूरसि भूमिस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री । पृथ्वीं यच्छ पृथिवीन्दृ पृथिवीं माहि सी ।
फिर कलश का गोबर से स्पर्श करें ।
मन्त्र - ॐ मानस्तोके तनये मान आयुषि मानो गोषुमानो अश्वेषुरीरिषः मानो वीरान्नुद्रभामिनौ वधीर्हविष्मन्तः सदमित्व हवामहे ।
फिर कलश के नीचे रखे धान्य को छुए ।
मन्त्र - ॐ धान्न्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वोदोनायत्वा दीर्घामनुप्प्रसितिधायुषे धान्देवोवः सविता हिरण्य पाणि । अतिगृव्णा त्वच्छिद्रेय पाणिना चक्षुषे त्वा महीनाम्पयोसि ।
यथा स्थान कलश का स्पर्श करें ।
ॐ आजिग्घ्रं कलशम्मह्या त्वा विशन्तिन्दवः । पुनरुर्जा निवर्तस्वसानः सहसन्न् धुक्ष्वोरुधारा पयस्वत्नी पुनर्मा विशतादयिः ।
कलश में जल भरे ।
ॐ वरुणस्योत्तम्भतमसि वरुणस्य स्कम्भक्षर्ज्जनीस्थो षरुणस्यऽऋतु सदन्न्यसि वरुणस्य ऋतु सदनमसि वरणस्यऽ ऋतसदनमासीषं ।
कलश में कलावा बाँधे ।
ॐ युवासुवासाः परिवीतआगात् सउश्रेयान् भवति जायमानः ।
तंधीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा देवयन्तः ।
कलश में रोली छोड़े -
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टाम् करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहो पह्नेश्रियम् ॥
कलश में पुष्प छोड़े -
ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वेनक्षत्राणि रुपमश्विनौ व्यात्तम् इष्णान्निषाण मुम्ममइषाण, सर्वलोकम्मइषाण ।
सर्वोषधीः-- ॐ या औषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगम्पुरां । मनैनु बभ्रणामह सतब्धामानि सप्त च ॥
दूर्वाः-- ॐ काण्डात्काण्डात्पुरोहन्ति परुषः परुषस्परि । एवानो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च ॥
हल्दी - ॐ या औषधी पूर्वो जाता देविभ्यस्त्रि युगं पुरा । अनने बहुनाऽवसित धमानि ॥
सप्तमृत्तिकाः-- ॐ स्योना पृथिवी नो भवानृक्षराः निवेष । यच्छा नः शर्म्म सप्रथाः ।
पुंगीफलः-- ॐ याः फलिनीर्य्या अफलः अनुष्पा पुष्पिणी । वृहस्पतिप्प्रसूतास्तानोमुञ्चन्त्य सः ॥
पानः-- ॐ प्राणाय स्वाहाऽपानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा ।
पञ्चरत्न - ॐ परिवाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्य क्रमीत् दधद्रत्ननिदाशुषे ॥
द्रव्यः-- ॐ हिरण्यगर्भं समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । सदाधार पृथिवीन्द्यामुते मां कस्मै देवाय हविषा विधेम् ॥
पञ्जपल्लव रखेः-- ॐ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाज इत्किलासथ यत्सनपथ पुरुषम् ॥
कलश पर ( यव ) पूर्णपात्र रखे --
ॐ पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत ।
वस्न्नेव विकीर्णावहा इषमूर्ज शतक्रतो ॥
कलश के चारों ओर दिव्य वस्त्र लपेट दें और कलावे से बाँध दें ।
ॐ युवासुवासा परिवीत आगात् सउश्रेयान्भवति खायमानः । तं धीरा सः कवय उन्नयन्ति स्वाध्योमनसादेवयन्तः ॥
श्री फल लाल वस्त्र में लपेटकर पूर्ण पात्र के ऊपर रखें --
ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्व नक्षत्राणि रुपमश्विनौ व्यात्तम् । इष्प्पन्निषाण मुम्ममइषाण सर्वलोकम्मइषाण ।
( देशाचार अनुसार कहीं कहीं कलश पर श्री फल न रख के दीप ही रखतें हैं । वहाँ दीप जलाकर इस मन्त्र द्वारा कलश पर स्थापित करें - ॐ अग्निर्ज्योति ज्योतिरग्निः स्वाहा, सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्च स्वाहा, सूर्योवर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा, ज्योतिः सूर्यः सूर्योज्योतिः स्वाहा । )
दीपः-- ( रां ) यह कहकर प्रज्वलित करें । फिर संकल्प कर कलश के दक्षिण तरफ अक्षत के ऊपर स्थापित करें ।

संकल्प- सकल मनोरथापत्ये कीट पतंग पतनवादिभिः निर्वाण दोष रहितौ अग्निदेवताकौदिप्यमानघृत प्रदीपौ श्री भगवत्यै जै कामाक्ष्यैसम्प्रदेद ॥


7-- .दीप अर्पण
ॐ अग्निर्ज्योति रविज्योंति चन्द्रज्योतिस्थैव च ।
ज्योतिशा मुक्तयो कामाक्ष्ये दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।
अब अक्षत लेकर निम्न मन्त्र से दीप की प्रार्थना कर उसी कर उसी पर छोड़ दें -
भो दीप देवस्वरुपस्त्वं कर्म साक्षी सविघ्नकृत ।
यावत्कर्म समाप्तिः स्यात् तावत्वं सुस्थिरो भव ॥
कलश स्थापन के पश्चात् वरुण देवता का इस पर आह्वान करें । पुनः हाथ में अक्षत लेकर -
ॐ पातालवासिनं देवं वरुणं श्रेष्ठ देवताम् ।
आवाह्यामि देवेश तिष्ठ त्व पूजयाम्यहम् ॥
अस्मिन्कलशे वरुणं आवहेयामि । अब इसके बाद गौरी - गणेश पूजन के विधि अनुसार और मन्त्र से प्रतिष्ठा, आसन पाद्यादि समर्पित कर हाथ में जल लेकर कहे - अत्र गन्धाक्षत पुष्प धूप दीप, नैवेद्यतांबूल पूंगीफलं दक्षिणा वरुणाय न मम । अनया पूजया वरुण देवता सांगाय सपरिवाराय प्रीयतां न मम ।
फिर कलश को स्पर्श करें और कामना करते हुए पढ़े -
सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः ।
आयान्तु यजमानस्य ( मम परिवारस्य ) दुरितक्षयकारकाः ॥१॥
कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समश्रितः ।
मूले तस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥२॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः ॥३॥
अङ्गैश्च सहिता सर्वे कलशं तु समाश्रिता ।
अत्र गायत्री सावित्री शान्ति पुष्टिकरी तथा ॥४॥
पुनः कलश की प्रार्थना करें -
देव दानवसंवादे मध्यमाने महोदधौ ।
उत्पन्नोसि तदा कुम्भः विधृतो विष्णुना स्वयम् ॥
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वेत्वयि स्थिताः ।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताह ॥
शिव स्वयं त्वमेवासि विष्णुत्वं च पजापतिः ।
आदित्या वसवो रुदाः विश्वेदेवः सपैत्रिकाः ॥
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ।
त्वत्प्रसादादिदं यज्ञं कर्तुमीहे जलोदभवः ॥
सान्निध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा ।
यावत्कर्म समाप्तिः स्यात्तावत्वं सन्निधोभाव ॥


8-- नवग्रह स्थापन
बुधः-- प्रियंगु कलिका श्यामं रुपेणप्रतिमं बुधम् । सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम् ॥
गुरुः-- देवानां च ऋषीणां च गुरुं कांचनसन्निभम् । बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तन्नमामि वृहस्पतिम् ॥
शुक्रः-- हिम कुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम् । सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम् ।
शनिः-- नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजं । छायामार्तण्डसंभूतं तन्नमामिशनैश्चरम् ॥
राहुः-- अर्द्धकायं महावीरं चन्द्रादित्यविमर्दनम् । सिंहिकागर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥
केतुः-- पलाश पुष्प संकाशं तारकाग्रह मस्तकम् । रौद्रं रौद्रत्मकं घोरं तं केतु प्रणमाम्यहम् ॥
नीचे लिखे मन्त्रों से नवग्रहों का पृथक - पृथक आह्वान कर पूर्व लिखित विधि अनुसार प्रतिष्ठा, अर्घ्य, पाद्य, स्नान, नैवेद्यादि समर्पित कर पूजन करें ।
सूर्यः-- जपा कुसुम संकाशं काश्पेयं महाद्युतिम् । तमोऽरि सव्र पापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥
चन्द्रः-- दधि शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवत् । नमामि शशिनं सोम शम्भोर्मुकुटभूषणम् ॥
मंगलः-- धरणी गर्भसंभूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम् । कुमारं शक्ति हस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम् ॥

आह्वान के पश्चात् विधिपूर्वक नौग्रहों का पूजन करें । तदन्तर हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें --
ब्रह्मा मुरारिः त्रिपुरान्तकारी भानु शशी भूमि सुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शक्रो शनि राहु केतवः सर्वे ग्रहाः शान्ति करा भवन्तु ॥
षोडश मातृका पूजन
१. गणेश गौरी, २. पद्मा, ३. शची, ४. मेधा, ५. सावित्री, ६. विजया, ७. जया, ८. देव सेना, ९. स्वधा, १०. स्वाहा, ११. मातरः, १२. लोकमातरः, १३. धृतिः, १४. पुष्टिः, १५. तुष्टिः, १६. आत्मनः कुलदेवताः ।
इन मातृकाओं का पूर्ववत् पूजन करें ।
षोडशमातृका चक्र

पूर्व

लाल १६ आत्मन कुल देवता सफेद चावल १२ लोक माताः लाल
८ देव सेना सफेद चावल ४ मेधा
सफेद चावल १५ तुष्टिः लाला
लाल ११ माताः सफेद चावल ७ जया लाल
३ शची
लाल
१४ पुष्टिः सफेद चावल १० स्वाहा लाल
६ विजया सफेद चावल २ पद्‍मा
सफेद चावल १३ धृतिः लाल
९ स्वधा सफेद चावल ५ सावित्री लाल
१ गणेश, गौरी
पश्चिम
सप्त घृतमातृका पूजन
अग्निकोण में दीवार पर घी की धार से सात बिन्दुओं को बनाकर गुड़ से एक में मिला देना चाहिए और नाम ले लेकर उनका आह्वान - पूजन करना चाहिए । सप्तघृत मातृकाओं के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं -
१. ॐ कीर्त्यै नमः, २. ॐ लक्ष्म्यै नमः, ३. ॐ धृत्यै नमः, ४. ॐ मेधायै नमः, ५. ॐ स्वाहायै नमः, ६. ॐ प्रज्ञायै नमः, ७. ॐ सरस्वत्यै नमः ।
श्री
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सप्तघृत मातृका चक्र


9--  चौंसठ योगिनी पूजन
एक श्वेत वस्त्र पर रोली से चौंसठ खाने बनाकर एक - एक खाने में एक - एक योगिनियों को स्थित करें । इनके नाम क्रम से यह हैं -
१. गजानना, २. सिंहमुखी, ३. गृहस्था, ४. काकतुंडिका, ५. उग्रग्रीवा, ६. हयग्रीवा, ७. वाराही, ८. शरमानना, ९. उलूकी, १०. शिवाख्या, ११. मयूरा, १२. विकटानन, १३. अष्टवक्रा, १४. कोटराक्षी, १५. कुब्जा, १६. विकटलोचना, १७. शुष्कोदरी, १८. ललजिह्वा, १९. श्वेतदष्ट्रा, २०. वानरानना, २१. ऋक्षाक्षी, २२. केकरा, २३. वृहत्तुन्डा, २४. सुराप्रिया, २५. कपालहस्ता, २६. रक्ताक्षी, २७. शुक्री, २८. श्येनी, २९. कपोतिका, ३०. पाशहस्ता, ३१. दण्डहस्ता, ३२. प्रचण्डा, ३३. चण्डविक्रमा, ३४. शिशुघ्री, ३५. पापहन्त्री, ३६. काली, ३७. रुधिर पायिनि, ३८. वसोधरा, ३९. गर्भभक्षा, ४०. हस्ता, ४१. ऽऽ न्त्रमालिनी, ४२. स्थूलकेशी, ४३. वृहत्कुक्षिः, ४४. सर्पास्या, ४५. प्रेतहस्ता, ४६. दशशूकरा, ४७. क्रौञ्ची, ४८. मृगशीर्षा, ४९. वृषानना, ५०. व्वात्तास्या, ५१. धूमिनि, श्वाषाः, ५२. व्यौमैकचरणा, ५३. उर्ध्वदृक् , ५४. तापनी, ५५. शोषिणी दृष्टि, ५६. कोटरी, ५७. स्थूल नासिका, ५८. विद्युत्प्रभा, ५९. बलाकास्या, ६०. मार्जारी, ६१. कटपूतना, ६२. अट्ठाटटहासा, ६३. कामाक्षी, ६४. मृगाक्षी मृगलोचना ।

10--  स्थलमातृका पूजन
स्थलमातृका पूजन
१. ब्राह्मी, २. माहेश्वरी, ३. कौमारी, ४. वैष्णवी, ५. वाराही, ६. इन्द्राणी, ७. चामुण्डा - ये सात स्थल मात्रुकाओं का नाम लेकर पूर्ववत् कहे हुए रीति से आह्वान पूजनादि करना चाहिए ।
अधिदेवता पूजन
ईश्वर शिवा, स्कन्द, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल, चित्रगुप्त - ये क्रम से नवग्रहों के दक्षिण भाग में स्थापित कर पूजन करें ।
प्रत्यधि देवता पूजन
अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र इन्द्राणी, प्रजापति, सर्प, ब्रह्मा ये क्रम से नवग्रहों के वाम भाग में स्थापित कर पूजन करें ।
पञ्चलोक पाल
१. गणपति, २, दुर्गा, ३. वायु. ४. आकाश और ५. अश्विनी कुमार । पंचलोक पालों को नौ ग्रहों के उत्तर भाग में आह्वान स्थापन तथा पूजनादि करना चाहिए ।
दश दिकपाल
१. इन्द्र, २. अग्नि, ३. यम, ४. नऋति, ५. वरुण, ६. वायु. ७. कुबेर. ८, ईश्व, ९. अनन्त और १०. ब्रह्मा ।
दश दिकपालों को दसों दिशाओं में स्थापित करें ।
श्री कार्तिकेय पूजन
जहाँ देवी का आसन ( रक्त वस्त्र ) है उसी के सामने नीचे की ओर षडानन स्वामी कार्तिकेय का पूजन करना चाहिए ।
बिल्व पत्र पूजन
बिल्व वृक्ष की एक डाल काटकर लाए और आसन के ऊपर छाया की भाँति लगा दें । अभाव में २ - ३ पत्तियों की ९ पंखुड़ियाँ ही लाकर वस्त्र पर रख ध्यान करें -
ॐ चतुर्भुज बिल्व वृक्षः रजताभ्याम् वृषस्थितम् ।
नानालंकार संयुक्तं जटामण्डल धारिणीम् ॥
' ॐ बिल्व वृक्षाय नमः ' कहकर पूजन करें । फिर प्रार्थना करें - ॐ श्री फलोऽसि महाभाग सदात्वं शंकर प्रिये कामाक्ष्या रोपनार्थाय त्वांमहं वरये प्रभो ।
अब पूजनकर्त्ता भावना करके वृषभ, त्रिशूल और डमरु का भी पूजन करें । तदनन्तर महालक्ष्मी, महासरस्वती तथा महाकाली का पूजन करें ।


11-- कामाख्या पूजन
कामाख्या पूजन तथा कामाख्या सिद्धि
अब देवी के पूजन के लिए साधक को दत्त हो अग्रसर होना चाहिए । रक्त वस्त्र पर कामाक्षा यन्त्र अवश्य हो । इसके अतिरिक्त जो मन्त्र - यन्त्र - तन्त सिद्ध करना हो उसे भी रखकर साथ ही पूजन करें । यन्त्र - तन्त्र कितनी भी संख्या में पूजन के लिए रख दिए जाए, पूजन मात्र से सिद्ध हो जाते हैं किन्तु मन्त्र तो यथोचित संख्या में जपने से ही सिद्ध होंगे ।
ध्यान - महापद्मवनान्तः स्ये कारणानन्द विग्रहे ।
शब्दब्रह्ममयि स्वच्छे कामेश्वरि प्रसीदमे ॥
प्रार्थना
रक्ताम्भोधिस्थपीतोल्लसदरुण सरोजाधिरुढा कराब्जै । शूलं कोदण्ड मिक्षूद्भवमथगुणमप्यङ्कुशं पञ्चबाणान् ॥ बिभ्राणाऽसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षो\रुहाढ्या देवी बालार्क वर्ण भवतु सुखकारी कामाक्ष्या परा नः ॥ तुलाकोटि पराक्रान्ता पादपद्मचराश्रिता । सिंहासनोर्द्ध संसुप्ता शवाशन कृताश्रया ॥ मणिप्रभा विघ्नेन शिवेन परमेष्ठिना । नवकेशेन संश्लिष्टा कामाख्या परमेश्वरी ॥
आह्वानः -- ॐ भगवती स्वकीय गण तथा परिवार सहिते इहागच्छ इह तिष्ठ, मम पूजा गृहाण, सम्मुखे भव वरदो भव ।
सिंहचर्मोत्तरासंगा कामाख्या विपलोदरी ।
वैयाघ्रचर्मवसना तथा चैव हरोदरी ॥
चण्डित्व चण्डिरुपोसि सुरतेजो महाबले ।
आगच्छ तिष्ठ यज्ञेस्मिन् यावत् पूजां करोम्यहम् ॥


12-- प्राण प्रतिष्ठा
विनियोगः-- विनियोग के लिए पृथ्वी पर जल छोड़े कामाख्या देव्याः प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रस्य ब्रह्मा, विष्णुः महेश्वरा ऋषयः ऋग् यजुसामनिच्छंदासि चैत्यन्त देवता प्राण प्रतिष्ठायाः विनियोगः ।
मन्त्र - ॐ आं ह्लीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं सः कामाक्षायाः प्राणाः इह प्राणाः । ॐ आं ह्लीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं सः कामाक्षायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्लीं क्रौं यं रं कामाक्षायाः ( अस्यां मूतौं व चित्रौ ) सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वकचक्षुः श्रोत्र - जिह्वा - घ्राण - पाणिपाद - पायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ।
अस्यै प्राणः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवतमचीर्य मामहेति च कश्चन ॥
अब साधक या पूजनकर्ता मूल मन्त्र ' ॐ ह्लीं देव्यै नमः ' का जप करें पुनः पूर्वोक्त विधि अनुसार अंगन्यास मातृका न्यास करावे । तथा नीचे लिखे मन्त्र से तीन बार पुष्पांजलि प्रदान करे -
ॐ भूः भुवः स्वः ॐ कामाक्ष्यै चामुण्डायै विदमहे भगवत्यै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ।
पूजन - अब देवी की षोडशोपचार विधि से पूजन करे । ' ॐ ऐं ह्लीं क्लीं कामाख्यै स्वाहा ' यह देवी का द्वादश अक्षर वाला मन्त्र है । इसी एक मन्त्र से देवी का पूजन करना चाहिए तथा तीन पत्तियों वाले बेलपत्ते की पंखुड़ी आसन के लिए इस तरह मन्त्र बोलकर दें - ॐ ऐं ह्लीं क्लीं कामाख्यै स्वाहा पाद्यं समर्पयामि ।
अर्घ्य के लिए - ॐ ऐं ह्लीं क्लीं कामाख्यै स्वाहा अर्घ्य समर्पयामि । इस प्रकार से पूजन कर निम्नलिखित मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिए -
प्रार्थना -
जय कामेशि चामुण्डे जय भूतापहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
नमों देविमहाविद्ये ! सृष्टिस्थित्यन्त कारिणी ।
नमः कमल पत्राक्षि ! सर्वाधारे नमोऽस्तु ते ॥
सविश्वतैजसप्राज्ञ वराट्‍ं सूत्रात्मिके नमः ।
नमोव्याकृतरुपायै कूटस्थायै नमो नमः ॥
कामाक्ष्ये सर्गादिरहिते दुष्टसंरोधनार्गले ! ।
निरर्गल प्रेमगम्ये ! भर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते ॥
नमः श्री कालिके ! मातर्नमो नील सरस्वति ।
उग्रतारे महोग्रे ते नित्यमेव नमोनमः ॥
छिन्नमस्ते ! नमस्तेऽस्तु क्षीरसागर कन्यके ।
नमः शाकम्भरि शिवे ! नमस्ते रक्तदन्तिके ॥
निशुम्भ शुम्भदलनि ! रक्तबीज विनाशिनि ।
धूम्रलोचन निर्णासे ! वृत्रासुरनिबर्हिणिं ॥
चण्डमुण्ड प्रमथिनि ! दानवान्त करे शिवे ! ।
नमस्ते विजये गंगे शारदे ! विकटानने ॥
पृथ्वीरुपे दयारुपे तेजोरुपे ! नमो नमः ।
प्राणरुपे महारुपे भूतरुपे ! नमोऽस्तु ते ॥
विश्वमूर्ते दयामूर्ते धर्ममूर्ते नमो नमः ।
देवमूर्ते ज्योतिमूर्ते ज्ञानमूर्ते नमोऽस्तु ते ॥
कामाख्ये काम रुपस्थे कामेश्वरी हर प्रिये ।
कामांश्च देहि मे नित्यं कामेश्वरि नमोस्तुते ॥


13-- जप नियम
इसके बाद ( १ ) ' ऐं ह्लीं क्ली चामुण्डायै विच्चे ' ( यह मन्त्र राज है ) या ( २ ) ' ॐ ऐं ह्लीं क्लीं कामाख्यै स्वाहा ' ( यह कामाख्या देवी का दशाक्षर मन्त्र है ) या ( ३ ) 'ॐ भूः भुवः स्वः ॐ कामाक्ष्यै चामुण्डायै विदमहे भगवत्यै धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् । ' ( यह कामाख्या देवी का गायत्री मन्त्र है ) इसका प्रतिदिन यथाशक्ति बराबर से जप करें । मन्त्र में जितने अक्षर हैं उतने लाख का मन्त्र जप एक पुरश्चरण कहलाता है । पुरश्चरणहीन मन्त्र भी निष्प्राण समझा जाता है । एक पुरश्चरण समाप्त होने पर हवनादि करना चाहिए । जप संख्या का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण किया जाता है । हवन द्रव्यों में विशेषकर घृत, खीर, तिल, बिल्व पत्र, यव मधु आदि लेकर दशांश हवन करे । तब देवी की सिद्धि प्राप्त होती है ।
तत्पश्चात् अन्य मन्त्रों की सिद्धि के लिए उपरोक्त किसी एक मन्त्र को, अथवा किसी दो या तीनों को १०८ बार जपे । यह साधक के मनोबल और इच्छा के ऊपर है और तब मन्त्र के विधि और संख्यानुसार वह मन्त्र जपे । पश्चात् संख्यानुसार जप समाप्त होने पर हवन करें । शेष नियम पहले जैसा ही है अर्थात् उपरोक्त मन्त्रों के जप के १० हवन के और १ तर्पण के हुआ और जो अन्य कामनार्थ मन्त्र जपा गया है उसकी संख्यानुसार दशांश हवन और दशांश तर्पण करे तब वह मन्त्र भी सिद्ध हो जाता है । इसमें तनिक भी संशय नहीं हैं ।


14-- दिग्बन्धन
आत्म रक्षार्थ तथा यज्ञ रक्षार्थ निम्न मन्त्र से जल, सरसों या पीले चावलों को ( अपने चारों ओर ) छोड़ें -
मन्त्र - ॐ पूर्वे रक्षतु वाराहः आग्नेयां गरुड़ध्वजः ।
दक्षिणे पदमनाभस्तु नैऋत्यां मधुसूदनः ॥
पश्चिमे चैव गोविन्दो वायव्यां तु जनार्दनः ।
उत्तरे श्री पति रक्षे देशान्यां हि महेश्वरः ॥
ऊर्ध्व रक्षतु धातावो ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु ।
अनुक्तमपि यम् स्थानं रक्षतु ॥
अनुक्तमपियत् स्थानं रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक् ।
अपसर्पन्तु ये भूताः ये भूताः भुवि संस्थिताः ॥
ये भूताः विघ्नकर्तारस्ते गच्छन्तु शिवाज्ञया ।
अपक्रमंतु भूतानि पिशाचाः सर्वतोदिशम् ।
सर्वेषाम् विरोधेन यज्ञकर्म समारम्भे ॥


15-- हवन विधि
अग्नि - स्थापन - तुष, केश, रेत, भस्मादि निषेध वस्तु से रहित चारों कोण से हस्त परिमाण वेदी बनाना चाहिए । भूमि को कुशों से शुद्ध करे । इन कुशों को ईशान दिशा में रख कर शुद्ध गोबर और जल से लीपे । श्रुवा के अग्रभाग से वेदी के बीच में दक्षिण तरफ से शुरु करके ३ रेखा खींचे जो कि पश्चिम से पूर्व की ओर हो । अनामिका और अंगूठे से खींची हुई लकीर की मिट्टी को थोड़ा सा लेकर ईशान दिशा में फेंक दे । फिर वेदी पर जल छिड़के । वेदी के पूर्व में उत्तर की ओर अग्रभाग करके कुशा रखे । पुनः वेदी के दक्षिण में पूर्व की ओर अग्रभाग पर कुशा रखे । पुनः वेदी के पश्चिम में उत्तर की ओर अग्रभाग करके कुशा रखे । पुनः वेदी के उत्तर में पूर्व की ओर अग्रभाग कर कुशा रखे । तब कांसे के पात्र में अग्नि मँगवाए और पूर्व मुख अग्नि निम्न मन्त्र द्वारा स्थापन करें -
मन्त्र - त्वं मुखं सर्वदेवां सप्तार्चिरभिद्यते । आगच्छ भगवन्नग्ने यज्ञेऽस्मिन्सन्निधो भव ॥ अग्निं आवाहयामि स्थापयामि इहागच्छ इह तिष्ठ ।
' ॐ पावकाग्नये नमः ' - इस मन्त्र द्वारा पज्चोपचार से पूजा करें । तब हाथ में पुष्प लेकर प्रार्थना करें - ॐ अग्ने खाण्डिल्यगोत्रमेषध्वज ! प्राङ्मुख मम सम्मुखो भव ।
प्रथम ये सात आहुतियाँ घी की दें -
( १ ) ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये इदं न मम । ( २ ) ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय इदं न मम । ( ३ ) ॐ अग्नये स्वाहा । इदमग्नये इदं न मम । ( ४ ) ॐ सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय इदं न मम । ( ५ ) ॐ भूः स्वाहा । इदमग्नये इदं न मम । ( ६ ) ॐ भुवः स्वाहा । इदं वायवे इदं न मम । ( ७ ) ॐ स्वः स्वाहा । इदं सूर्याय इदं न मम ।
पूर्णाहुति - अब जिन - जिन मन्त्रों की जितनी आहुतियाँ देनी हों वह देनी चाहिए । फिर उन्हीं मन्त्रों को कहने के बाद नीचे लिखे मन्त्र से पूर्णाहूति दें -
ॐ सप्तमे अग्नेमधः स सप्ति जिह्वाः सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि । सप्त होत्राः सप्त धात्वा यजन्ति सप्त योनीरापृणस्व धृतेन स्वाहा । अनेन होमेन श्री परमेश्वरी कामाक्ष्या देवी प्रीयतां न मम ।
दशांश हवन के बाद दशांश तर्पण ' कामाख्या तर्पयामि ' इस मन्त्र से, तर्पण संख्या का दशांश मार्जन कामाख्या मूर्ति का, यन्त्र का और मन्त्र, का ' कामाख्या ' मार्जयामि इस मन्त्र से होता है । मार्जन के प्याले में दूध गंगाजल, चन्दन में से एक अथवा तीनों सम्मिलित होना चाहिए । यह मार्जन दूब से किया जाता है और अंत में मार्जन संख्या का दशांश ब्राह्मण भोजन हो तब मन्त्र जप की अथवा पाठ की पूर्णता होती है ।
जप समर्पण - मन्त्र जप पूरा करके उसे भगवती को समर्पण करते हुए कहें -
गुह्यति गुह्य गोप्त्री त्वं, गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि, त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥
इस प्रकार देवी के बाएँ हाथ में जप समर्पण करे ।
अब श्रुवा से भस्म लेकर लगाए -
ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने इति ललाटे ।
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम् इति ग्रीवायां ।
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम् इति दक्षिण बाहुमूले ।
ॐ तन्नोऽअस्तु त्र्यायुषम् इति हदि ।
अब वेदी के चारों तरफ रखी हुई कुशओं को अग्नि में डाल दे । आचार्य और ब्राह्मणों को दक्षिणा दें । तब हाथ में पुष्प लेकर प्रार्थना करें ।


प्रार्थना-
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकत्यै भद्रार्य नियताः प्रणाताः स्माताम् ॥
नमस्ते पार्श्वयोः पृष्ठे नमस्ते पुरतोऽम्बिके ! ।
नमः ऊर्ध्व नमश्चाऽधः सर्वत्रैव नमोनमः ॥
जय देवि ! जगन्मातर्जय देवि परात्परे ! ।
जय श्री कामरुपस्थे ! जय सर्वोत्तमोत्तमे ॥


16-- कामाख्या ध्यान
कामाख्या ध्यानम्
रविशशियुतकर्णा कुंकुमापीतवर्णा,
मणिकनकविचित्रा लोलजिह्वा त्रिनेत्रा ।
अभयवरदहस्ता साक्षसूत्रप्रहस्ता,
प्रणतसुरनरेशा सिद्धकामेश्वरी सा ॥
अरुण - कमलसंस्था रक्तपदमासनस्था,
नवतरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा ।
शवह्यदि पृथुतुङ्गा स्वांघ्रि, युग्मा मनोज्ञा,
शिशुरविसमवस्त्रा सर्वकामेश्वरी सा ।
विपुलविभवदात्री स्मेरवक्त्रा सुकेशी,
दलितकरकदन्ता सामिचन्द्रावनभ्रा ।
मनसिज - दृशदिस्था योनिमुद्रांलसन्ती ।
पवनगगनसक्तां संश्रुतस्थानभागा ॥
चिन्त्या चैवं दीप्यदग्निप्रकाशा,
धर्मार्थाद्यैः साधकैर्वाञ्छितार्थः ॥
- कालिका पुराण

17-- कामाख्या स्तोत्र
जय कामेशि चामुण्डे जय भूतापहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
विश्वमूर्ते शुभे शुद्धे विरुपाक्षि त्रिलोचने ।
भीमरुपे शिवे विद्ये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
मालाजये जये जम्भे भूताक्षि क्षुभितेऽक्षये ।
महामाये महेशानि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कालि कराल विक्रान्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कालि कराल विक्रान्ते कामेश्वरि हरप्रिये ।
सर्व्वशास्त्रसारभूते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कामरुप - प्रदीपे च नीलकूट - निवासिनि ।
निशुम्भ - शुम्भमथनि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कामाख्ये कामरुपस्थे कामेश्वरि हरिप्रिये ।
कामनां देहि में नित्यं कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
वपानाढ्यवक्त्रे त्रिभुवनेश्वरि ।
महिषासुरवधे देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
छागतुष्टे महाभीमे कामख्ये सुरवन्दिते ।
जय कामप्रदे तुष्टे कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
भ्रष्टराज्यो यदा राजा नवम्यां नियतः शुचिः ।
अष्टम्याच्च चतुदर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः ॥
संवत्सरेण लभते राज्यं निष्कण्टकं पुनः ।
य इदं श्रृणुवादभक्त्या तव देवि समुदभवम् ॥
सर्वपापविनिर्म्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।
श्रीकामरुपेश्वरि भास्करप्रभे, प्रकाशिताम्भोजनिभायतानने ।
सुरारि - रक्षः - स्तुतिपातनोत्सुके, त्रयीमये देवनुते नमामि ॥
सितसिते रक्तपिशङ्गविग्रहे, रुपाणि यस्याः प्रतिभान्ति तानि ।
विकाररुपा च विकल्पितानि, शुभाशुभानामपि तां नमामि ॥
कामरुपसमुदभूते कामपीठावतंसके ।
विश्वाधारे महामाये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
अव्यक्त विग्रहे शान्ते सन्तते कामरुपिणि ।
कालगम्ये परे शान्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
या सुष्मुनान्तरालस्था चिन्त्यते ज्योतिरुपिणी ।
प्रणतोऽस्मि परां वीरां कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
दंष्ट्राकरालवदने मुण्डमालोपशोभिते ।
सर्व्वतः सर्वंव्गे देवि कामेश्वरि नमोस्तु ते ॥
चामुण्डे च महाकालि कालि कपाल - हारिणी ।
पाशहस्ते दण्डहस्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
चामुण्डे कुलमालास्ये तीक्ष्णदंष्ट्र महाबले ।
शवयानस्थिते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
- योगिनीतन्त्र


18-- कामाख्या कवच
ॐ कामाख्याकवचस्य मुनिर्वृहस्पति स्मृतः ।
देवी कामेश्वरी तस्य अनुष्टुपछन्द इष्यतः ॥
विनियोगः सर्व्वसिद्धौ नञ्च श्रृण्वन्तु देवताः ।
शिरः कामेश्वरी देवी कामाख्या चक्षुषी मम ॥
शारदा कर्णयुगलं त्रिपुरा वदनं तथा ।
कण्ठे पातु महामाया हदि कामेश्वरी पुनः ॥
कामाख्या जठरे पातु शारदा पातु नाभितः ।
त्रिपुरा पार्श्वयोः पातु महामाया तु मेहने ॥
गुदे कामेश्वरी पातु कामाख्योरुद्वये तु माम् ।
जानुनोः शारदा पातु त्रिपुरा पातु जङ्घयोः ॥
महामाया पादयुगे नित्यं रक्षतु कामदा ।
केशे कोटेश्वरी पातु नासायां पातु दीर्घिका ॥
दन्तसङ्घाते मातङ्यवतु चाङ्गयोः ।
बाह्वोर्म्मां ललिता पातु पाण्योस्तु बनवासिनी ॥
विनध्यवासिन्यङ्ग लीषु श्रीकामा नखकोटिषु ।
रोमकूपेषु सर्व्वेषु गुप्तकामा सदावतु ॥
पादाङ्गुलि - पार्ष्णिभागे पातु मां भुवनेश्वरी ।
जिह्वायां पातु मां सेतुः कः कण्ठाभ्यन्तरेऽवतु ॥
पातु नश्चान्तरे वक्षः ईः पातु जठारान्तरे ।
सामिन्दुः पातु मां वस्तौ विन्दुर्व्विद्वन्तरेऽवतु ॥
ककारस्त्वचि मां पातु रकारोऽस्थिषु सर्व्वदा ।
लकाराः सर्व्वनाडिषु ईकारः सर्व्वसन्धिषु ॥
चन्द्रः स्नायुषु मां पातु विन्दुर्मज्जासु सन्ततम् ।
पूर्व्वस्यां दिशि चाग्नेष्यां दक्षिणे नैऋते तथा ॥
वारुणे चैव वायव्यां कौवेरे हरमन्दिरे ।
अकाराद्यास्तु वैष्णवा अष्टौ वर्णास्तु मन्त्रगाः ॥
पान्तु तिष्ठन्तु सततं समुदभवविवृद्धये ।
ऊर्द्घाधः पातु सततं मान्तु सेतुद्वयं सदा ॥
नवाक्षराणि मन्त्रेषु शारदा मन्त्रगोचरे ।
नवस्वरन्तु मां नित्यं नासादिषु समन्ततः ॥
वातपित्तकफेभ्यस्तु त्रिपुरायास्तु त्र्यक्षरम् ।
नित्यं रक्षतु भूतेभ्यः पिशाचेभ्यस्तथैव च ॥
तत् सेतु सततं पाता क्रव्यादभ्यो मान्निवारकौ ।
नमः कामेश्वरी देवीं महामायां जगन्मयीम् ॥
या भूत्वा प्रकृतिर्नित्यं तनोति जगदायतम् ।
कामाख्यामक्षमालाभयवरदकरां सिद्धसूत्रैकहस्तां ॥
श्वेतप्रेतोपरिस्थां मणिकनकयुतां कुङ्कमापीतवर्णाम् ।
ज्ञानध्यानप्रतिष्ठामतिशयविनयां ब्रह्मशक्रादिवन्द्या ॥
मग्नौ विन्द्वन्तमन्त्रप्रियतमविषयां नौमि विद्धयैरतिस्थाम् ।
मध्ये मध्यस्य भागे सततविनमिता भावहावली या,
लीला लोकस्य कोष्ठे सकलगुणयुता व्यक्त रुपैकनम्रा ।
विद्या विद्यैकशान्ता शमनशमकरी क्षेमकत्रीं वरास्या,
नित्यं पायात् पवित्रप्रणववरकरा कामपूर्वीश्वरी नः ॥
इति हरकवचं तनुस्थितं शमयति वै शमनं तथा यदि ।
इह गृहाण यतस्व विमोक्षणे सहित एष विधिः सह चामरैः ॥
इतीदं कवचं यस्तु कामाख्यायाः पठेद् बुधः ।
सुकृत् तं तु महादेवी तनुव्रजति नित्यदा ॥
नाधिव्याधिभयं तस्य न क्रव्यादमो भयं तथा ।
नाग्नितो नापि तोयेभ्यो न रिपुभ्यो न राजतः ॥
दीर्घायुर्व्वहुभोगी च पुत्रपौत्रसमन्वितः ।
आवर्त्तयन् शतं देवी मन्दिरे मोदते परे ॥
यथा यथा भवेदबद्धः संग्रामेऽन्यत्र वा बुधः ।
ततक्षणादेव मुक्तः स्यात् स्मरणात् कवचस्य तु ॥
- कालिका पुराण


19-- कामाख्या चालीसा
॥ दोहा ॥
सुमिरन कामाख्या करुँ, सकल सिद्धि की खानि ।
होइ प्रसन्न सत करहु माँ, जो मैं कहौं बखानि ॥
जै जै कामाख्या महारानी । दात्री सब सुख सिद्धि भवानी ॥
कामरुप है वास तुम्हारो । जहँ ते मन नहिं टरत है टारो ॥
ऊँचे गिरि पर करहुँ निवासा । पुरवहु सदा भगत मन आसा ।
ऋद्धि सिद्धि तुरतै मिलि जाई । जो जन ध्यान धरै मनलाई ॥
जो देवी का दर्शन चाहे । हदय बीच याही अवगाहे ॥
प्रेम सहित पंडित बुलवावे । शुभ मुहूर्त निश्चित विचारवे ॥
अपने गुरु से आज्ञा लेकर । यात्रा विधान करे निश्चय धर ।
पूजन गौरि गणेश करावे । नान्दीमुख भी श्राद्ध जिमावे ॥
शुक्र को बाँयें व पाछे कर । गुरु अरु शुक्र उचित रहने पर ॥
जब सब ग्रह होवें अनुकूला । गुरु पितु मातु आदि सब हूला ॥
नौ ब्राह्मण बुलवाय जिमावे । आशीर्वाद जब उनसे पावे ॥
सबहिं प्रकार शकुन शुभ होई । यात्रा तबहिं करे सुख होई ॥
जो चह सिद्धि करन कछु भाई । मंत्र लेइ देवी कहँ जाई ॥
आदर पूर्वक गुरु बुलावे । मन्त्र लेन हित दिन ठहरावे ॥
शुभ मुहूर्त में दीक्षा लेवे । प्रसन्न होई दक्षिणा देवै ॥
ॐ का नमः करे उच्चारण । मातृका न्यास करे सिर धारण ॥
षडङ्ग न्यास करे सो भाई । माँ कामाक्षा धर उर लाई ॥
देवी मन्त्र करे मन सुमिरन । सन्मुख मुद्रा करे प्रदर्शन ॥
जिससे होई प्रसन्न भवानी । मन चाहत वर देवे आनी ॥
जबहिं भगत दीक्षित होइ जाई । दान देय ऋत्विज कहँ जाई ॥
विप्रबंधु भोजन करवावे । विप्र नारि कन्या जिमवावे ॥
दीन अनाथ दरिद्र बुलावे । धन की कृपणता नहीं दिखावे ॥
एहि विधि समझ कृतारथ होवे । गुरु मन्त्र नित जप कर सोवे ॥
देवी चरण का बने पुजारी । एहि ते धरम न है कोई भारी ॥
सकल ऋद्धि - सिद्धि मिल जावे । जो देवी का ध्यान लगावे ॥
तू ही दुर्गा तू ही काली । माँग में सोहे मातु के लाली ॥
वाक् सरस्वती विद्या गौरी । मातु के सोहैं सिर पर मौरी ॥
क्षुधा, दुरत्यया, निद्रा तृष्णा । तन का रंग है मातु का कृष्णा ।
कामधेनु सुभगा और सुन्दरी । मातु अँगुलिया में है मुंदरी ॥
कालरात्रि वेदगर्भा धीश्वरि । कंठमाल माता ने ले धरि ॥
तृषा सती एक वीरा अक्षरा । देह तजी जानु रही नश्वरा ॥
स्वरा महा श्री चण्डी । मातु न जाना जो रहे पाखण्डी ॥
महामारी भारती आर्या । शिवजी की ओ रहीं भार्या ॥
पद्मा, कमला, लक्ष्मी, शिवा । तेज मातु तन जैसे दिवा ॥
उमा, जयी, ब्राह्मी भाषा । पुर हिं भगतन की अभिलाषा ॥
रजस्वला जब रुप दिखावे । देवता सकल पर्वतहिं जावें ॥
रुप गौरि धरि करहिं निवासा । जब लग होइ न तेज प्रकाशा ॥
एहि ते सिद्ध पीठ कहलाई । जउन चहै जन सो होई जाई ॥
जो जन यह चालीसा गावे । सब सुख भोग देवि पद पावे ॥
होहिं प्रसन्न महेश भवानी । कृपा करहु निज - जन असवानी ॥
॥ दोहा ॥
कर्हे गोपाल सुमिर मन, कामाख्या सुख खानि ।
जग हित माँ प्रगटत भई, सके न कोऊ खानि ॥


20-- कामाक्षायाष्टक
एक समय यज्ञ दक्ष कियोतब न्योत सबै जग के सुर डारो ।
ब्रह्म सभा बिच माख लग्य तेहि कारण शंकर को तजिडारो ।
रोके रुके नहिं दक्ष सुता, बुझाय बहू विधि शंकर हारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥१॥
संग सती गण भेज दिये, त्रिपुरारि हिये मँह नेक विचारो ।
राखे नहीं संग नीक अहै जो रुके तो कहूँ नहिं तन तजि डारो ।
जाय रुकी जब तात गृहे तब काहु न आदर बैन उचारो ।
नाम तेरो बड़ है जम में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥२॥
मातु से आदर पाय मिली भगिनी सब व्यंग मुस्काय उचारो ।
तात न पूछ्यो बात कछू यह भेद सती ने नहीं विचारो ।
जाय के यज्ञ में भाग लख्यो पर शंकर भाग कतहुँ न निहारो ।
नाम तेरो बड़ है९ जग में ' करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥३॥
तनक्रोध बढ्यो मनबोध गयो, अपमान भले सहि जाय हजारो ।
जाति निरादर होई जहाँ तहँ जीवन धारन को धिक्कारो ।
देह हमार है दक्षके अंश से जीवन ताकि सो मैं तजि डारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥४॥
अस कहि लाग समाधि लगाय के बैठि भई निश्चय उर धारो ।
प्रान अपान को नाभि मिलय उदानहिं वायु कपाल निकारो ।
जोग की आग लगी अब ही जरि छार भयो छन में तन सारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥५॥
हाहाकार सुन्यो गण शंभु तो जग विध्वंस सबै करि डारो ।
जग्य विध्वंसि देखि मुनि भृगु मन्त्र रक्षक से सब यज्ञ सम्हारो ।
वीरभद्र करि कोप गये और दक्ष को दंड कठिन दै डारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥६॥
दुखकारन सतीशव कांधे पे डार के विचरत है शिवजगत मंझारो ।
काज रुक्यो तब देव गये और श्रीपति के ढिंग जाय पुकारो ।
विष्णु ने काटि किये शव खण्ड गिट्यो जो जहाँ तहँ सिद्धि बिठारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥७॥
योनि गियो कामाख्या थल सों, बन्यो अतिसिद्ध न जाय संभारो ।
बास करें सुर तीन दिना जब मासिक धर्म में देवि निहारो ।
कहत गोपाल सो सिद्ध है पीठ जो माँगता है मिल जात सो सारो ।
नाम तेरी बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥८॥
॥ दोहा ॥
लाल होई खल तीन दिन, जब देवि रजस्वला होय ।
मज्जन कर नर भव तरहिं, जो ब्रह्म हत्यारा होय ॥१॥
कामाख्या तीरथ सलिल, अहै सुधा सम जान ।
कह गोपाल सेवन करुँ, खान, पान, स्नान ॥२॥
भक्ति सहित पढ़िहै सदा, जो अष्टक को मूल ।
तिनकी घोर विपत्ति हित, शरण तुम्हारि त्रिशूल ॥३॥
कामाख्या जगदम्बिक, रक्षहु सब परिवार ।
भक्त ' गिरि ' पर कृपा करि, देहु सबहिं सुख डार ॥४॥


21-- देवी विसर्जन
गच्छ देवि महामाया कल्याणं कुरु सर्वदा ।
यथाशक्ति कृता पूजा भक्त्या कमललोचने ॥
गच्छन्तु देवताः सर्वे दत्वा में वरभीप्सितम् ।
त्वम् गच्छ परमेशानि सुख सर्वत्र गणैः सह ॥
पूजन करने वाले को चाहिए कि पूजित देवों के आसन को दाहिने हाथ से स्पर्श करे ( हिला दे ) ब्राह्मणों को दक्षिणा देने के बाद अभिषेक कराए अर्थात् आचार्य और ब्राह्मण लोग यज्ञकर्ता के मस्तक पर जल के छीटे डालें और मन्त्र पढें -
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवि शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्ति वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्ति सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामा शान्तिरेधि ॥
ॐ शान्ति ! शा न्ति !! शान्ति !!! सर्वारिष्टा सुशान्तिर्भवतु !!
इसके बाद इष्टमित्रादि सहित प्रतिमा को लेकर किसी जलाशय में विसर्जन करे । विसर्जन से पूर्व कपूर आदि से आरती करनी चाहिए ।
विसर्जन के बाद प्रार्थना
आयुर्देहि यशोदेहि भाग्यं भगवति देहि मे ।
पुत्रम् देहि धनं देहि सर्वान् कामांश्च देहि मे ॥
जो व्यक्ति इस प्रकार कामाक्षा देवी का पूजन जप विधिपूर्वक करता है, उसकी साधना अवश्य ही सफल होती है । वह सब पापों से मुक्त होकर ग्रस्त कामनाओं को प्राप्त करता है तथा अंत में आवागमन के बंधन से छूटकर निश्चत ही मुक्त हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं है । उसके यन्त्र - मन्त्र सिद्ध होकर साधक को मनोवांछित फल देते है ।


22-- प्राधानिक रहस्य
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी - सावर्णि नाम के राजा ने प्रसंगवश क्रौष्टिक मुनि जिनका दूसरा नाम भागुरि ऋषि भी था, से पूछा कि भगवन् आप मुझे त्रिगुणमयी देवी के प्रधान प्रकृति को बताइए । ऋषि बोले कि हे राजन् ! यह विषय परम गोपनीय है, इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है, किन्तु तुम मेरे भक्त हो, इसलिए तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है । सुनो ! त्रिगुणमयी परमेश्वरी ही महालक्ष्मी, सबकी आदि कारण हैं, । उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को व्याप्त कर रखा है । वे अपनी चारों भुजाओं में मातुलिंग ( विजौरे का फल ) , गदा, खेट ( ढाल ) एवं पान का बर्तन और मस्तक पर सर्प, लिंग तथा योनि - इन वस्तुओं को धारण करती हैं । तपाए हुए सोने के समान उनकी कांति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके आभूषण है । उस महालक्ष्मी ने इस संपूर्ण जगत् को देखकर केवल तमोगुण रुप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रुप धारण किया ।
तमोगुनी परमेश्वरी महाकाली - वह रुप नारी का ही था, जिसके शरीर की कांति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ो से सुशोभित था । नेत्र बड़े - बड़े और कमर पतली थी । उसकी चारों भुजाएँ ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक पर मुंडों की माला धारण किए हुए थी । इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहा - ' माता जी ! आपको नमस्कार है । मुझे मेरा नाम और कर्त्तव्य बताइए ।' तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा - ' मै तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और जो - जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ । महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, एकबीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया - ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मो द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे । इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मो को जानकर जो उनका पाठ करेगा, वह सुख भोगेगा ।
सतोगुणी परमेश्वरी महासरस्वती - हे राजन् ! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्वगुण के द्वारा दूसरा रुप धारण किया, जो चन्द्रमा के समन गौरवर्ण था । वह श्रेष्ठ नारी आपने हाथों में अक्षमाला, अंकुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किए हुए थी, महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किए । महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक् , सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी ( बुद्धि की स्वामिनी ) ये तुम्हारे नाम हैं ।
महाकाली और महासरस्वती को आदेश - तदन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा - ' देवियों । तुम दोनों अपने - अपने गुणों के योग्य स्त्री पुरुष के जोड़े उत्पन्न करो ।'
महालक्ष्मी द्वारा ब्रह्मा तथा लक्ष्मी को उत्पन्न करना - उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री पुरुष का एक जोड़ा उत्पन्न किया । वे दोनों हिरण्यगर्भ ( निर्मल ज्ञान से युक्त ) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे । उनमें से एक नारी थी और दूसरा नर । तत्पश्चात् माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन् बिधे ! विरन्चि ! तथा घातः ! इस प्रकार सम्बोधित किया ओर स्त्री को श्री ! पदमा ! कमला ! लक्ष्मी ! इत्यादि नामों से पुकारा ।
ऋषि बोले कि हे राजन् । इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक - एक जोड़ा उत्पन्न किया । इनके भी रुप और नान मैं तुम्हें बतलाता हूँ ।
महाकाली द्वारा शंकर तथा त्रयीविद्या ( सरस्वती ) को उत्पन्न करना - महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त, लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की नारी को जन्म दिया । वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयीविद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा - ये नाम हुए ।
महासरस्वती द्वारा विष्णु और गौरी को उत्पन्न करना - हे राजन् ! महासरस्वती ने गोरे रंग की नारी ओर श्याम रंग के नर को प्रकट किया । उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ । उनमें नर ( पुरुष ) के नाम विष्णु, कृष्ण, हषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा इन नामों से प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार महालक्ष्मी ही दो स्त्री रुप होकर तीन स्त्री रुप हुई और वही युवतियाँ ( तीनों रुप ) ही तत्काल पुरुष रुप को प्राप्त हुई । इस बात को ज्ञान नेत्र वाले ही समझ सकते हैं । दूसरे अज्ञानी जन इस रहस्य को नहीं जान सकते ।
त्रय शक्तियों द्वारा सृष्टि का सृजन, पालन तथा संहारः - हे राजन् ! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्या रुपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिए पत्नी रुप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी । इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया । राजन् ! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान ( हमतत्त्व ) आदि कार्य समूह पंचमहा भूतात्मक समस्त स्थावर - जंगम - रुप - जगत् की उत्पत्ति हुई । फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस संसार का पालन - पोषण किया और प्रलय काल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण संसार का संहार किया । तो महाराज ! महालक्ष्मी ही सर्वसत्वयुक्त तथा सब तत्त्वों का नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं । सगुण वाचक सत्य, ज्ञान, चित्त्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरुपण करना चाहिए । केवल एक नाम ( महालक्ष्मी मात्र ) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष अनुमान उपमान शब्द प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता ।
तो हे राजन् ! ध्यान से विचार करो कि जिन सत्वप्रधाना त्रिगुणमयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन रुप बताए गए हैं, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा और भगवती आदि नामों से कही जाती हैं ओर ये ही भगवती दुर्गा भगवान् शंकर के साथ कामाख्या में विराजकर अपने भक्तों को दर्शन देती हैं, और उनकी अभिलाषाएँ पूरी करती हैं । उन्हीं देवी को हम कामाख्या कहते हैं । हम उनके चरणों में शीश नवाते हैं । बोलो ! जै कामाख्या की ।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411