स्वस्तिक विश्व में मंगल का प्रतीक है।
स्वस्तिक विश्व में मंगल का प्रतीक है।
किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत:- किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या जमीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक को बनाए नहीं किया जाता। स्वस्तिक श्री गणेश का प्रतीक चिन्ह है। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं। अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है। कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है। इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है। इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है। जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
स्व का अर्थ होता है। ''अच्छा '' और अस्ति का अर्थ होता है। ''होना '' ....और ''का '' प्रत्यय है। स्वस्तिक एक प्राचीन प्रतिक है। प्रकाश ,प्रेम और जीवन का। 'स्वस्तिक' का अर्थ है। - क्षेम, मंगल इत्यादि प्रकार की शुभता एवं 'क' अर्थात कारक या करने वाला। इसलिए देवता का तेज शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने वाला है। और उसकी गति सिद्ध चिन्ह 'स्वस्तिक' कहा गया है।
स्वस्तिक का प्रयोग सभी पूर्वीय धर्मो में होता है ।स्वस्तिक दोनों ,दायें की तरफ मुंह वाला (卐) , या बाएँ की तरफ मुंह वाला (卍) हो सकता है । बायीं तरफ मुड़ा हुआ (卍) प्रेम तथा करुना का प्रतिनिधित्व करता है। वहीँ दाई तरफ मुड़ा हुआ (卐) बल, तथा बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है ।
ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिला लेखों, रामायण, हरवंश पुराण महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से है।
स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियाँ मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद, रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री' लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और स अक्षर अंकित किया जाता है। जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।
बढ़ा है। तिब्बती इसे अपने शरीर पर गुदवाते हैं। तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह मान्यता निरन्तर चलती रहेगी। 'स्वस्तिक' की तरह हम भी सर्व मंगलकारी तत्व साधक बनें यही दीप पर्व पर व्रत लें।
तिब्बत में स्वस्तिक को ''युंग -दुंग'' कहते हैं। ये शाश्वतता का प्रतीक हुआ करता था । आज कल ये प्रतीक बौद्ध कला और साहित्य में प्रयोग किया जाता है, तथा ये धर्म ,वैश्विक एकता तथा विरोधों के संतुलन का प्रतीक है। भुजा दाई तरफ मुड़ा हुआ (卐) , या बायीं तरफ मुड़ा हुआ (卍) , बुद्ध की मूर्तियों पर देखा जा सकता है ।
३००० वर्ष पुराना ,सोने का, ईरानी स्वस्तिक की माला ,जो की मष्त, इरान में पाई गयी । जो की अब इरान के नेशनल मेयुसियूम में रखी गयी है। स्वस्तिक घड़ों पर भी, पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा खुदाई के दौरान ,कुश {अफ्घनिस्तान }में पाए गए हैं। और स्वस्तिक Jebel बर्कल सुडान, अफ्रीका में भी पाए गए हैं ।
हिंदुत्व में दायीं तरफ मुड़ा हुआ स्वस्तिक सृष्टि के विकास (卐) का प्रतीक है। तथा बायीं तरफ मुड़ा हुआ स्वस्तिक (卍) सृष्टि के ह्रास का प्रतिक है। तो इस प्रकार ये सृजन करने वाले भगवान् ब्रह्मा के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करता है। स्वस्तिक को चरों दिशाओं{पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण } की तरफ इशारा करने वाले की तरह भी देखा जाता है, तो इससे यह स्थायीत्व तथा गाम्भीर्य का प्रतिनिधित्व भी करता है।
स्वस्तिक को सूर्य भगवान् का प्रतीक भी माना जाता है। स्वस्तिक को बहुत ही पवित्र माना जाता है। तथा इससे हिन्दू संस्कृति से जुडी चीज़ों को अलंकृत करने में प्रयुक्त किया जाता है। स्वस्तिक को हिन्दू मंदिरों ,प्रतीकों, चिन्हों ,चित्रों, जहाँ - जहाँ पावित्र्य है। पाया जा सकता है ।
स्वस्तिक का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्व है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। हर शुभ कार्य की शुरुआत स्वस्तिक बनाकर ही की जाती है। यह मंगलभावना एवं सुख सौभाग्य का द्योतक है। इसे सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।
सिद्धान्तसार के अनुसार उसे ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जाता है। इसके मध्यभाग को विष्णु की नाभि चारों रेखाओं को ब्रह्मा जी के चार मुख चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित करने की भावना है। देवताओं के चारों ओर घूमनेवाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है। और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिन्ह (+) जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।
शास्त्रों में स्वस्तिक विघ्रहर्ता व मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश का साकार रूप माना गया है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गं बीजमंत्र होता है। जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसमें जो चार बिन्दियां होती हैं। उनमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानी कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में भी स्वस्तिक के श्री गणेश स्वरूप होने की पुष्टि होती है। हिन्दू धर्म की पूजा-उपासना में बोला जाने वाला वेदों का शांति पाठ मंत्र भी भगवान श्रीगणेश के स्वस्तिक रूप का स्मरण है। यह शांति पाठ है। -
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:
स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु
इस मंत्र में चार बार आया स्वस्ति शब्द चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन है। असल में स्वस्तिक बनाने के पीछे व्यावहारिक दर्शन यही है। कि जहां माहौल और संबंधों में प्रेम, प्रसन्नता, श्री, उत्साह, उल्लास, सद्भाव, सौंदर्य, विश्वास, शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है। वहीं श्री गणेश का वास होता है। और उनकी कृपा से अपार सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है। चूंकि श्रीगणेश विघ्रहर्ता हैं, इसलिए ऐसी मंगल कामनाओं की सिद्धि में विघ्रों को दूर करने के लिए स्वस्तिक रूप में गणेश स्थापना की जाती है। इसीलिए श्रीगणेश को मंगलमूर्ति भी पुकारा जाता है।
जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411