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सोमवार भारत में बैसाखी पर्व प्रदोष व्रत


सोमवार भारत में बैसाखी पर्व प्रदोष व्रत  03-04-2023

भारत में बैसाखी पर्व को सिख समुदाय नए साल के रूप में मनाते हैं। यह पर्व प्रत्येक साल हिन्दू कैलेंडर विक्रम संवत के प्रथम माह में पड़ता है। बैसाखी को फसलों का त्यौहार भी कहा जाता है। वैसे तो यह पर्व पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है, लेकिन पंजाब में यह प्रसिद्ध है। इसके अलावा बैसाखी के दिन ही सिखों के दसवें गुरू गुरु गोबिन्द सिंह ने सन् 1699 में पवित्र खालासा पंथ की स्थापना की थी।

बैसाखी मनाने की परंपरा -

ऐसा कहा जाता है कि गुरु तेग बहादुर (सिखों के नवें गुरु) औरंगज़ेब से युद्ध करते हुए शहीद हो गये थे। तेग बहादुर उस समय मुगलों द्वारा हिन्दुओं पर किए जाने अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। तब उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र गुरु गोबिन्द सिंह अगले गुरु हुए। सन् 1650 में पंजाब मुगल आतताइयों, अत्याचारियों और भ्रष्टाचारियों का दंश झेल रहा था, यहाँ समाज में लोगों के अधिकारों का हनन खुलेआम हो रहा था और न ही लोगों को कहीं न्याय की उम्मीद नज़र आ रही थी। ऐसी परिस्थितियों में गुरू गोबिन्द सिंह ने लोगों में अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ने, उनमें साहस भरने का बीडा़ उड़ाया। उन्होंने आनंदपुर में सिखों का संगठन बनाने के लिए लोगों का आवाह्न किया। और इसी सभा में उन्होंने तलवार उठाकर लोगों से पूछा कि वे कौन बहादुर योद्धा हैं जो बुराई के ख़िलाफ शहीद हो जाने के लिए तैयार हैं। तब उस सभा में से पाँच योद्धा निकलकर सामने आए और यही पंच प्यारे कहलाए जो खालसा पंथ का नाम दिया गया।

पाँच

पाँच लोगों का समूह (पंच प्यारे) पाँच ‘क’ के भी प्रतीक माने जाते हैं जिनमें कंघा, केश, कड़ा, कच्छा और कृपाण हैं।

पंच प्यारे का नाम

1.  भाई दया सिंह
2.  भाई धर्म सिंह
3.  भाई हिम्मत सिंह
4.  भाई मुखाम सिंह
5.  भाई साहेब सिंह

बैसाखी मनाने का ढंग

बैसाखी मुख्य रूप से या तो किसी गुरुद्वारे या फिर किसी खुले क्षेत्र में मनाई जाती है, जिसमें लोग भांगड़ा और गिद्दा डांस करते हैं। नीचे इस पर्व को मनाने के बारे में बताया गया है:

लोग तड़के सुबह उठकर गुरूद्वारे में जाकर प्रार्थना करते हैं।
2.  गुरुद्वारे में गुरुग्रंथ साहिब जी के स्थान को जल और दूध से शुद्ध किया जाता है।
3.  उसके बाद पवित्र किताब को ताज के साथ उसके स्थान पर रखा जाता है।
4.  फिर किताब को पढ़ा जाता है और अनुयायी ध्यानपूर्वक गुरू की वाणी सुनते हैं।
5.  इस दिन श्रद्धालुयों के लिए विशेष प्रकार का अमृत तैयार किया जाता है जो बाद में बाँटा जाता है।
6.  परंपरा के अनुसार, अनुयायी एक पंक्ति में लगकर अमृत को पाँच बार ग्रहण करते हैं।
7.  अपराह्न में अरदास के बाद प्रसाद को गुरू को चढ़ाकर अनुयायियों में वितरित की जाती है।
8.  अंत में लोग लंगर चखते हैं।

प्रदोष व्रत को हम त्रयोदशी व्रत के नाम से भी जानते हैं। यहाँ आप पाएंगे आने वाली प्रदोष व्रत तिथि 2022 में। यह व्रत माता पार्वती और भगवान शिव को समर्पित है। पुराणों के अनुसार इस व्रत को करने से बेहतर स्वास्थ और लम्बी आयु की प्राप्ति होती है। शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत एक साल में कई बार आता है। प्रायः यह व्रत महीने में दो बार आता है।

क्या है।  प्रदोष व्रत?

प्रत्येक महीने की कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष को त्रयोदशी मनाते है। प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहा जाता है। सूर्यास्त के बाद और रात्रि के आने से पहले का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में भगवान शिव कि पूजा की जाती है। हिन्दू धर्म में व्रत, पूजा-पाठ, उपवास आदि को काफी महत्व दी गयी है। ऐसा माना जाता है कि सच्चे मन से व्रत रखने पर व्यक्ति को मनचाहे वस्तु की प्राप्ति होती है। वैसे तो हिन्दू धर्म में हर महीने की प्रत्येक तिथि को कोई न कोई व्रत या उपवास होते हैं। लेकिन लेकिन इन सब में प्रदोष व्रत की बहुत मान्यता है।

शास्त्रों के अनुसार महीने की दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि में शाम के समय को प्रदोष कहा गया है। ऐसी मान्यता है। कि भगवान शिव प्रदोष के समय कैलाश पर्वत स्थित अपने रजत भवन में नृत्य करते हैं। इसी वजह से लोग शिव जी को प्रसन्न करने के लिए इस दिन प्रदोष व्रत रखते हैं। इस व्रत को करने से सारे कष्ट और हर प्रकार के दोष मिट जाते हैं। कलयुग में प्रदोष व्रत को करना बहुत मंगलकारी होता है। और शिव कृपा प्रदान करता है। सप्ताह के सातों दिन किये जाने वाले प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है। प्रदोष को कई जगहों पर अलग-अलग नामों द्वारा जाना जाता है। दक्षिण भारत में लोग प्रदोष को प्रदोषम के नाम से जानते हैं।

अलग-अलग तरह के प्रदोष व्रत और उनसे मिलने वाले लाभ

प्रदोष व्रत का अलग-अलग दिन के अनुसार अलग-अलग महत्व है। ऐसा कहा जाता है। कि जिस दिन यह व्रत आता है। उसके अनुसार इसका नाम और इसके महत्व बदल जाते हैं।

अलग-अलग वार के अनुसार प्रदोष व्रत के निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते है।

1-  जो उपासक रविवार को प्रदोष व्रत रखते हैं। उनकी आयु में वृद्धि होती है अच्छा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
2-  सोमवार के दिन के प्रदोष व्रत को सोम प्रदोषम या चन्द्र प्रदोषम भी कहा जाता है। और इसे मनोकामनायों की पूर्ती करने के लिए किया जाता है।
3-  जो प्रदोष व्रत मंगलवार को रखे जाते हैं। उनको भौम प्रदोषम कहा जाता है। इस दिन व्रत रखने से हर तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है। और स्वास्थ सम्बन्धी समस्याएं नहीं होती। बुधवार के दिन इस व्रत को करने से हर तरह की कामना सिद्ध होती है।
4-  बृहस्पतिवार के दिन प्रदोष व्रत करने से शत्रुओं का नाश होता है।
5-  वो लोग जो शुक्रवार के दिन प्रदोष व्रत रखते हैं। उनके जीवन में सौभाग्य की वृद्धि होती है। और दांपत्य जीवन में सुख-शांति आती है।
6-  शनिवार के दिन आने वाले प्रदोष व्रत को शनि प्रदोषम कहा जाता है। और लोग इस दिन संतान प्राप्ति की चाह में यह व्रत करते हैं। अपनी इच्छाओं को ध्यान में रख कर प्रदोष व्रत करने से फल की प्राप्ति निश्चित हीं होती है।

प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष व्रत को हिन्दू धर्म में बहुत शुभ और महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन पूरी निष्ठा से भगवान शिव की अराधना करने से जातक के सारे कष्ट दूर होते हैं और मृत्यु के बाद उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुराणों के अनुसार एक प्रदोष व्रत करने का फल दो गायों के दान जितना होता है। इस व्रत के महत्व को वेदों के महाज्ञानी सूतजी ने गंगा नदी के तट पर शौनकादि ऋषियों को बताया था। उन्होंने कहा था कि कलयुग में जब अधर्म का बोलबाला रहेगा, लोग धर्म के रास्ते को छोड़ अन्याय की राह पर जा रहे होंगे उस समय प्रदोष व्रत एक माध्यम बनेगा जिसके द्वारा वो शिव की अराधना कर अपने पापों का प्रायश्चित कर सकेगा और अपने सारे कष्टों को दूर कर सकेगा। सबसे पहले इस व्रत के महत्व के बारे में भगवान शिव ने माता सती को बताया था, उसके बाद सूत जी को इस व्रत के बारे में महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया, जिसके बाद सूत जी ने इस व्रत की महिमा के बारे में शौनकादि ऋषियों को बताया था।

प्रदोष व्रत अन्य दूसरे व्रतों से अधिक शुभ और महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता यह भी है इस दिन भगवान शिव की पूजा करने से जीवनकाल में किये गए सभी पापों का नाश होता है। और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुराणों के अनुसार एक प्रदोष व्रत रखने का पुण्य दो गाय दान करने जितना होता है।

इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रातः काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल अक्षत धूप दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोषम व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।

प्रदोष व्रत की विधि :-

शाम का समय प्रदोष व्रत पूजन समय के लिए अच्छा माना जाता है। क्यूंकि हिन्दू पंचांग के अनुसार सभी शिव मन्दिरों में शाम के समय प्रदोष मंत्र का जाप करते हैं।

चलिए आपको बताते हैं प्रदोष व्रत के नियम और विधि :–

1-  प्रदोष व्रत करने के लिए सबसे पहले आप त्रयोदशी के दिन सूर्योदय से पहले उठ जाएं।
2-  स्नान आदि करने के बाद आप साफ़ वस्त्र पहन लें।
3-  उसके बाद आप बेलपत्र, अक्षत, दीप, धूप, गंगाजल आदि से भगवान शिव की पूजा करें।
4-  इस व्रत में भोजन ग्रहण नहीं किया जाता है।
5-  पूरे दिन का उपवास रखने के बाद सूर्यास्त से कुछ देर पहले दोबारा स्नान कर लें और सफ़ेद रंग का वस्त्र धारण करें।
6-  आप स्वच्छ जल या गंगा जल से पूजा स्थल को शुद्ध कर लें।
7-  अब आप गाय का गोबर ले और उसकी मदद से मंडप तैयार कर लें।
8-  पांच अलग-अलग रंगों की मदद से आप मंडप में रंगोली बना लें।
9-  पूजा की सारी तैयारी करने के बाद आप उतर-पूर्व दिशा में मुंह करके कुशा के आसन पर बैठ जाएं।
10-  भगवान शिव के मंत्र ऊँ नम: शिवाय का जाप करें और शिव को जल चढ़ाएं।

धार्मिक दृष्टिकोण से आप जिस दिन भी प्रदोष व्रत रखना चाहते हों, उस वार के अंतर्गत आने वाली त्रयोदशी को चुनें और उस वर के लिए निर्धारित कथा पढ़ें और सुनें।

प्रदोष व्रत का उद्यापन

जो उपासक इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशी तक रखते हैं। उन्हें इस व्रत का उद्यापन विधिवत तरीके से करना चाहिए।

1-  व्रत का उद्यापन आप त्रयोदशी तिथि पर ही करें।
2-  उद्यापन करने से एक दिन पहले श्री गणेश की पूजा की जाती है। और उद्यापन से पहले वाली रात को कीर्तन करते हुए जागरण करते हैं।
3-  अगलर दिन सुबह जल्दी उठकर मंडप बनाना होता है। और उसे वस्त्रों और रंगोली से सजाया जाता है।
4-  ऊँ उमा सहित शिवाय नम: मंत्र का 108 बार जाप करते हुए हवन करते हैं।
5-  खीर का प्रयोग हवन में आहूति के लिए किया जाता है।
6-  हवन समाप्त होने के बाद भगवान शिव की आरती और शान्ति पाठ करते हैं।
7-  और अंत में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है और अपने इच्छा और सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देते हुए उनसे आशीर्वाद लेते हैं।

प्रदोष व्रत कथा

किसी भी व्रत को करने के पीछे कोई न कोई पौराणिक महत्व और कथा अवश्य होती है। तो चलिए जानते हैं। इस व्रत की पौराणिक कथा के बारे में -

स्कंद पुराण में दी गयी एक कथा के अनुसार प्राचीन समय की बात है। एक विधवा ब्राह्मणी अपने बेटे के साथ रोज़ाना भिक्षा मांगने जाती और संध्या के समय तक लौट आती। हमेशा की तरह एक दिन जब वह भिक्षा लेकर वापस लौट रही थी तो उसने नदी किनारे एक बहुत ही सुन्दर बालक को देखा लेकिन ब्राह्मणी नहीं जानती थी कि वह बालक कौन है और किसका है।

दरअसल उस बालक का नाम धर्मगुप्त था और वह विदर्भ देश का राजकुमार था। उस बालक के पिता को जो कि विदर्भ देश के राजा थे, दुश्मनों ने उन्हें युद्ध में मौत के घाट उतार दिया और राज्य को अपने अधीन कर लिया। पिता के शोक में धर्मगुप्त की माता भी चल बसी और शत्रुओं ने धर्मगुप्त को राज्य से बाहर कर दिया। बालक की हालत देख ब्राह्मणी ने उसे अपना लिया और अपने पुत्र के समान ही उसका भी पालन-पोषण किया

कुछ दिनों बाद ब्राह्मणी अपने दोनों बालकों को लेकर देवयोग से देव मंदिर गई, जहाँ उसकी भेंट ऋषि शाण्डिल्य से हुई।ऋषि शाण्डिल्य एक विख्यात ऋषि थे, जिनकी बुद्धि और विवेक की हर जगह चर्चा थी।

ऋषि ने ब्राह्मणी को उस बालक के अतीत यानि कि उसके माता-पिता के मौत के बारे में बताया, जिसे सुन ब्राह्मणी बहुत उदास हुई। ऋषि ने ब्राह्मणी और उसके दोनों बेटों को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी और उससे जुड़े पूरे वधि-विधान के बारे में बताया। ऋषि के बताये गए नियमों के अनुसार ब्राह्मणी और बालकों ने व्रत सम्पन्न किया लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि इस व्रत का फल क्या मिल सकता है।

कुछ दिनों बाद दोनों बालक वन विहार कर रहे थे तभी उन्हें वहां कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आईं जो कि बेहद सुन्दर थी। राजकुमार धर्मगुप्त अंशुमती नाम की एक गंधर्व कन्या की ओर आकर्षित हो गए। कुछ समय पश्चात् राजकुमार और अंशुमती दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे और कन्या ने राजकुमार को विवाह हेतु अपने पिता गंधर्वराज से मिलने के लिए बुलाया। कन्या के पिता को जब यह पता चला कि वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार है। तो उसने भगवान शिव की आज्ञा से दोनों का विवाह कराया।

राजकुमार धर्मगुप्त की ज़िन्दगी वापस बदलने लगी। उसने बहुत संघर्ष किया और दोबारा अपनी गंधर्व सेना को तैयार किया। राजकुमार ने विदर्भ देश पर वापस आधिपत्य प्राप्त कर लिया।

कुछ समय बाद उसे यह मालूम हुआ कि बीते समय में जो कुछ भी उसे हासिल हुआ है। वह ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के द्वारा किये गए प्रदोष व्रत का फल था। उसकी सच्ची आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे जीवन की हर परेशानी से लड़ने की शक्ति दी। उसी समय से हिदू धर्म में यह मान्यता हो गई कि जो भी व्यक्ति प्रदोष व्रत के दिन शिवपूजा करेगा और एकाग्र होकर प्रदोष व्रत की कथा सुनेगा और पढ़ेगा उसे सौ जन्मों तक कभी किसी परेशानी या फिर दरिद्रता का सामना नहीं करना पड़ेगा।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411