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बुधवार चैत्र नवरात्रि, घटस्थापना


बुधवार चैत्र नवरात्रि, घटस्थापना  22-03-2023

चैत्र नवरात्रि 2023 सनातन धर्म के श्रद्धालुओं द्वारा मनाए जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। नवरात्रि शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। भारत देश में यह पर्व हमेशा की तरह इस साल भी पूरी श्रद्धा और उमंग के साथ मनाया जाएगा। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र माह की पहली तिथि से नवरात्रि 2023 की शुरुआत होती है। और इसी दिन से हिन्दू नववर्ष का भी आरंभ होता है। इस दिन से लोग लगातार 9 दिनों तक माँ दुर्गा के 9 स्वरूपों यानी कि शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, माँ कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की पूजा बड़े ही विधिविधान के साथ करते हैं। चैत्र नवरात्रि 2023 की प्रथम तिथि को कलश स्थापना की जाती है। उसके बाद 9 दिनों तक उस कलश का पूजन किया जाता है। नवरात्रि 2023 की अष्टमी व नवमी को छोटी कन्याओं को माँ दुर्गा का स्वरूप मानते हुए कन्या भोज कराया जाता है। और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है।

चैत्र नवरात्रि २०२३आज हम चैत्र नवरात्रि 2023 के बारे में चर्चा करेंगे. चैत्र नवरात्रि कब है? कलश स्थापना कब होगी? किस दिन कौन से पूजा होगी आदि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

चैत्र नवरात्रि का भी हमारे हिन्दू धर्म में बहुत अधिक धार्मिक महत्व है. शारदीय नवरात्रि की तरह चैत्र नवरात्रि में भी कलश स्थापना की जाती हैऔर नौ दिनों तक माता का व्रत रखा जाता है

नौ दिनों तक माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा आराधना कीजाती है

अब हम बात करतें हैं की चैत्र नवरात्रि में किस दिन कौन सी पूजा होगी.

22 मार्च 2023 – प्रतिपदानवरात्रि शुरूकलश स्थापनाशैलपुत्री माता की पूजा

23 मार्च 2023 – द्वितीयाब्रह्मचारिणी माता की पूजा

24 मार्च 2023 – तृतीयाचंद्रघंटा माता की पूजा

25 मार्च 2023 – चतुर्थीकुष्मांडा माता की पूजा

26 मार्च 2023 – पंचमीस्कंदमाता की पूजा

27 मार्च 2023 – षष्ठीकात्यायनी माता की पूजा

28 मार्च 2023 – सप्तमीकालरात्रि माता की पूजा

29 मार्च 2023 – अष्टमीमहागौरी माता की पूजा

30 मार्च 2023 – नवमीमाँ सिद्धिदात्री की पूजा ( साथ ही इस दिन रामनवमी भी है )

31 मार्च 2023 – दशमीनवरात्री समाप्त, पारणा

घटस्थापना/कलश स्थापना 2023 की तारीख व मुहूर्त। नवरात्रि की शुरूआत कलश स्थापना या घटस्थापना के साथ होती है। कलश स्थापना प्रतिपदा यानी नवरात्रि के पहले दिन देवी शक्ति की पूजा के साथ की जाती है। यदि यह पूजा शुभ मुहूर्त में संपन्न न हो, तो देवी अप्रसन्न हो जाती हैं, इसलिए आइए जानते हैं क्या है घटस्थापना या कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त और विधि ।

घटस्थापना के नियम

घटस्थापना मुहूर्त जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि इसके लिए शुभ दिन कौन-सा है। तो आइए चैत्र नवरात्रि के पहले दिन का मुहूर्त निकालने की विधि जानते हैं:

1. सूर्योदय के बाद यदि एक भी मुहूर्त प्रतिपदा में पड़ रहा है तो उसी दिन की सुबह से ही नवरात्रि शुरू होगी और कलश स्थापना या घटस्थापना की जाएगी।

2. यदि सूर्योदय के बाद प्रतिपदा एक मुहूर्त से कम हो और बाक़ी किसी दिन न हो, तब ऐसी स्थिति में अमायुक्त प्रतिपदा को पहला दिन माना जाएगा।

3. किसी दूसरी स्थिति में अमायुक्त प्रतिपदा में चैत्र नवरात्रि आरंभ करना निषिद्ध माना गया है।

4. यदि प्रतिपदा दो दिनों के सूर्योदय में पड़ रही है तो पहले दिन का मान्य होगा, दूसरे दिन त्यौहार की शुरुआत करना वर्जित है।

5. यदि पहले दिन देवी चण्डिका की पूजा करनी हो तो अमायुक्त प्रतिपदा में नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में दूसरे दिन में पड़ रही प्रतिपदा मान्य होगी।

यदि पहले दिन देवी चण्डिका की पूजा करनी हो तो अमायुक्त प्रतिपदा में नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में दूसरे दिन में पड़ रही प्रतिपदा मान्य होगी।

1. घटस्थापना का सबसे उत्तम समय दिन का पहला एक तिहाई हिस्सा है।

2. किसी दूसरी स्थिति में अभिजीत मुहूर्त सबसे उत्तम माना गया है।

3. किचित्रा नक्षत्र और वैधृति योग की अवधि में घटस्थापना करने से बचना चाहिए, पर यह समय पूरी तरह से वर्जित नहीं है।

4. किसी भी परिस्थिति में घटस्थापना हिन्दू समय के अनुसार प्रतिपदा तिथि के दिन के मध्य से पहले होनी चाहिए।

5. चैत्र नवरात्रि में प्रतिपदा की सुबह द्वि-स्वभाव लग्न मीन होता है, इस अवधि में भी घटस्थापना करना शुभ माना गया है।

6. घटस्थापना के लिए शुभ नक्षत्र हैं: पुष्या, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद, हस्ता, रेवती, रोहिणी, अश्विनी, मूल, श्रवण, धनिष्ठा और पुनर्वसु।

नोट: सूर्योदय होने से 16 घटी के बाद घटस्थापना का कार्य वर्जित है। दूसरे शब्दों में कहें तो घटस्थापना हिन्दू समय के अनुसार प्रतिपदा के दिन के मध्य से पहले होनी चाहिए।

घटस्थापना के लिए आवश्यक सामग्री

1. चौड़े मुँह वाला मिट्टी का एक बर्तन
2. पवित्र स्थान की मिट्टी
3. सप्तधान्य (7 प्रकार के अनाज)
4. कलश
5. जल (संभव हो तो गंगाजल)
6. कलावा/मौली
7. सुपारी
8. आम या अशोक के पत्ते (पल्लव)
9. अक्षत (कच्चा साबुत चावल)
10. छिलके/जटा वाला नारियल
11. लाल कपड़ा
12. पुष्प और पुष्पमाला

ज़रूरत के अनुसार सामग्री बढ़ा भी सकते हैं, जैसे - मिठाई, दूर्वा, सिंदूर इत्यादि।

घटस्थापना विधि

1. पहले मिट्टी को चौड़े मुँह वाले बर्तन में रखें और उसमें सप्तधान्य बोएँ।

2. अब उसके ऊपर कलश में जल भरें और उसके ऊपरी भाग (गर्दन) में कलावा बाँधें।

3. आम या अशोक के पल्लव को कलश के ऊपर रखें।

4. अब नारियल को लाल कपड़े में लपेटकर कलश के ऊपर और पल्लव के बीच में रखें।

5. नारियल में कलावा भी लपेटा होना चाहिए।

6. घटस्थापना पूर्ण होने के बाद देवी का आह्वान करते हैं।

आप चाहें तो अपनी इच्छानुसार और भी विधिवत पूजा कर सकते हैं।

पूजा संकल्प मंत्र

9 दिनों तक व्रत रखने वाले भक्तों को निम्नलिखित मंत्र के साथ पूजा का संकल्प करना चाहिए:

ॐ विष्णुः विष्णुः विष्णुः, अद्य ब्राह्मणो वयसः परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे, अमुकनामसम्वत्सरे चैत्रशुक्लप्रतिपदि अमुकवासरे प्रारभमाणे नवरात्रपर्वणि एतासु नवतिथिषु अखिलपापक्षयपूर्वक-श्रुति-स्मृत्युक्त-पुण्यसमवेत-सर्वसुखोपलब्धये संयमादिनियमान् दृढ़ं पालयन् अमुकगोत्रः अमुकनामाहं भगवत्याः दुर्गायाः प्रसादाय व्रतं विधास्ये।

नोट: मंत्र का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। इस मंत्र में कई जगह अमुक शब्द आया है। जैसे- अमुकनामसम्वत्सरे, यहाँ पर आप अमुक की जगह संवत्सर का नाम उच्चारित करेंगे। यदि संवत्सर का नाम सौम्या है तो इसका उच्चारण सौम्यनामसम्वत्सरे होगा। ठीक ऐसे ही अमुकवासरे में उस दिन का नाम, अमुकगोत्रः में अपने गोत्र का नाम और अमुकनामाहं में अपना नाम उच्चारित करें।

यदि पहले, दूसरे, तीसरे आदि दिनों के लिए उपवास रखा जाए, तब ऐसी स्थिति में ‘एतासु नवतिथिषु’ की जगह उस तिथि के नाम के साथ संकल्प किया जाएगा जिस तिथि को उपवास रखा जा रहा है। जैसे - यदि सातवें दिन का संकल्प करना है, तो मंत्र इस प्रकार होगा:

ॐ विष्णुः विष्णुः विष्णुः, अद्य ब्राह्मणो वयसः परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे, अमुकनामसम्वत्सरे चैत्रशुक्लप्रतिपदि अमुकवासरे प्रारभमाणे नवरात्रपर्वणि सप्तम्यां तिथौ अखिलपापक्षयपूर्वक-श्रुति-स्मृत्युक्त-पुण्यसमवेत-सर्वसुखोपलब्धये संयमादिनियमान् दृढ़ं पालयन् अमुकगोत्रः अमुकनामाहं भगवत्याः दुर्गायाः प्रसादाय व्रतं विधास्ये।

ऐसे ही अष्टमी तिथि के लिए सप्तम्यां की जगह अष्टम्यां का उच्चारण होगा।

षोडशोपचार पूजा के लिए संकल्प

यदि नवरात्रि के दौरान षोडशोपचार पूजा करनी हो तो नीचे दिए गए मंत्र से प्रतिदिन पूजा का संकल्प करें:-

ॐ विष्णुः विष्णुः विष्णुः, अद्य ब्राह्मणो वयसः परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे, अमुकनामसम्वत्सरे चैत्रशुक्लप्रतिपदि अमुकवासरे नवरात्रपर्वणि अखिलपापक्षयपूर्वकश्रुति-स्मृत्युक्त-पुण्यसमवेत-सर्वसुखोपलब्धये अमुकगोत्रः अमुकनामाहं भगवत्याः दुर्गायाः षोडशोपचार-पूजनं विधास्ये।

माँ शैलपुत्री दुर्गा के नौ रूपों में पहला रूप हैं जिनकी भक्तगण नवरात्रि पर्व में पूजा-अर्चना करते हैं। नवरात्र के नौ दिन दुर्गा माँ के नौ रूपों को समर्पित होते हैं और इस पावन पर्व के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा होती है।

शैलपुत्री पूजा मुहूर्त

देवी शैलपुत्री

शैलपुत्री का रूप

• माथे पर अर्ध चंद्र
• दाहिने हाथ में त्रिशूल
• बाएँ हाथ में कमल
• नंदी बैल की सवारी

शैलपुत्री का संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर्वत की बेटी’। पौराणिक कथा के अनुसार माँ शैलपुत्री अपने पिछले जन्म में भगवान शिव की अर्धांगिनी (सती) और दक्ष की पुत्री थीं। एक बार जब दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन कराया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया, परंतु भगवान शंकर को नहीं। उधर सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो रही थीं। शिवजी ने उनसे कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है। लेकिन उन्हें नहीं; ऐसे में वहाँ जाना उचित नहीं है। सती का प्रबल आग्रह देखकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।

सती जब घर पहुँचीं तो वहाँ उन्होंने भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव देखा। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक शब्द कहे। इससे सती के मन में बहुत पीड़ा हुई। वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और योगाग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ को विध्वंस कर दिया। फिर यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं।

हिमालय के राजा का नाम हिमावत था और इसलिए देवी को हेमवती के नाम से भी जाना जाता है। माँ की सवारी वृष है तो उनका एक नाम वृषारुढ़ा भी है।

ज्योतिषी के अनुसार माँ शैलपुत्री चंद्रमा को दर्शाती हैं, इसलिए उनकी उपासना से चंद्रमा के द्वारा पड़ने वाले बुरे प्रभाव भी निष्क्रिय हो जाते हैं।

मंत्र–––

ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

स्तुति: या देवी सर्वभू‍तेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

 

माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा नवरात्रि के दूसरे दिन होती है। देवी के इस रूप को माता पार्वती का अविवाहित रूप माना जाता है। ब्रह्मचारिणी संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ, ब्रह्म के समान आचरण करने वाली है। इन्हें कठोर तपस्या करने के कारण तपश्चारिणी भी कहा जाता है।

माता ब्रह्मचारिणी का स्वरूप

माता ब्रह्मचारिणी श्वेत वस्त्र में सुशोभित हैं, उनके दाहिने हाथ में जप माला और बाएँ हाथ में कमण्डल है। देवी का स्वरूप अत्यंत तेज़ और ज्योतिर्मय है। साथ ही देवी प्रेेम स्वरूप भी हैं।

पौराणिक मान्यताएँ

मान्यताओं के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की, जिसके बाद उनके माता-पिता उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश करने लगे। हालाँकि इन सबके बावजूद देवी ने कामुक गतिविधियों के स्वामी भगवान कामदेव से मदद की गुहार लगाई। ऐसा कहा जाता है कि कामदेव ने शिव पर कामवासना का तीर छोड़ा और उस तीर ने शिव की ध्यानावस्था में खलल उत्पन्न कर दिया, जिससे भगवान आगबबूला हो गए और उन्होंने स्वयं को जला दिया।

कहानी यही ख़त्म नहीं होती है। उसके बाद पार्वती ने शिव की तरह जीना आरंभ कर दिया। देवी पहाड़ पर गईं और वहाँ उन्होंने कई वर्षों तक घोर तपस्या किया जिसके कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी नाम दिया गया। इस कठोर तपस्या से देवी ने भगवान शंकर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इसके बाद भगवान शिव अपना रूप बदलकर पार्वती के पास गए और अपनी बुराई की, लेकिन देवी ने उनकी एक न सुनी। अंत में शिव जी ने उन्हें अपनाया और विवाह किया।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी मंगल ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से मंगल ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥

ध्यान मंत्र:-----

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालङ्कार भूषिताम्॥
परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्त्रोत:----

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शङ्करप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

कवच मंत्र:----

त्रिपुरा में हृदयम् पातु ललाटे पातु शङ्करभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पञ्चदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अङ्ग प्रत्यङ्ग सतत पातु ब्रह्मचारिणी॥

 

चंद्रघण्टा माता की पूजा नवरात्रि के तीसरे दिन की जाती है। इनके नाम का अर्थ, चंद्र मतलब चंद्रमा और घण्टा मतलब घण्टा के समान। उनके माथे पर चमकते हुए चंद्रमा के कारण ही उनका नाम चंद्रघण्टा पड़ा। इन्हें चंद्रखंडा नाम से भी जाना जाता है। देवी का यह स्वरूप भक्तों को साहस और वीरता का अहसास कराता है और उनके दुःखों को दूर करता है। देवी चंद्रघण्टा माता पार्वती की ही रौद्र रूप हैं, लेकिन उनका यह रूप तभी दिखता है जब वे क्रोधित होती हैं, अन्यथा वे बहुत ही शांत स्वभाव की हैं।

माता चंद्रघण्टा का स्वरूप

माँ चंद्रघण्टा शेरनी की सवारी करती हैं। और उनका शरीर सोने के समान चमकता है। उनकी 10 भुजाएँ हैं। उनके बाएँ चार भुजाओं में त्रिशूल, गदा, तलवार और कमण्डलु विभूषित हैं, वहीं पाँचवा हाथ वर मुद्रा में है। माता की चार अन्य भुजाओं में कमल, तीर, धनुष और जप माला हैं और पाँचवा हाथ अभय मुद्रा में है। माता का अस्त्र-शस्त्र से विभूषित यह रूप युद्ध के समय देखने को मिलता है।

पौराणिक मान्यताएँ

जब भगवान शिव ने देवी से कहा कि वे किसी से शादी नहीं करेंगे, तब देवी को यह बात बहुत ही बुरा लगा। देवी की यह हालत ने भगवान को भावनात्मक रूप से बहुत ही चोट पहुँचाया। इसके बाद भगवान अपनी बारात लेकर राजा हिमावन के यहाँ पहुँचे। उनकी बारात में सभी प्रकार के जीव-जंतु, शिवगण, भगवान, अघोरी, भूत आदि शामिल हुए थे।

इस भयंकर बारात को देखकर देवी पार्वती की माँ मीना देवी डर के मारे बेहोश हो गईँ। इसके बाद देवी ने परिवार वालों को शांत किया, समझाया-बुझाया और उसके बाद भगवान शिव के सामने चंद्रघण्टा रूप में पहुँचीं। उसके बाद उन्होंने शिव को प्यार से समझाया और दुल्हे के रूप में आने की विनती की। शिव देवी की बातों को मान गए और अपने आप को क़ीमती रत्नों से सुसज्जित किया।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी चंद्रघण्टा शुक्र ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से शुक्र ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी चन्द्रघण्टायै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:----

पिण्डज प्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यम् चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥

स्तुति

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ चन्द्रघण्टा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहारूढा चन्द्रघण्टा यशस्विनीम्॥
मणिपुर स्थिताम् तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खङ्ग, गदा, त्रिशूल, चापशर, पद्म कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वन्दना बिबाधारा कान्त कपोलाम् तुगम् कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥

स्त्रोत:----

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिद्धिदात्री चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यहम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टम् मन्त्र स्वरूपिणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छामयी ऐश्वर्यदायिनीम्।
सौभाग्यारोग्यदायिनी चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यहम्॥

कवच मंत्र:----

रहस्यम् शृणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघण्टास्य कवचम् सर्वसिद्धिदायकम्॥
बिना न्यासम् बिना विनियोगम् बिना शापोध्दा बिना होमम्।
स्नानम् शौचादि नास्ति श्रद्धामात्रेण सिद्धिदाम॥
कुशिष्याम् कुटिलाय वञ्चकाय निन्दकाय च।
न दातव्यम् न दातव्यम् न दातव्यम् कदाचितम्॥

 

कूष्माण्डा माता की पूजा नवरात्रि के चौथे दिन होती है। कूष्माण्डा संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ- कू मतलब छोटा/सूक्ष्म, ऊष्मा मतलब ऊर्जा और अण्डा मतलब अण्डा है। देवी के कूष्माण्डा रूप की पूजा से भक्तों को धन-वैभव और सुख-शांति मिलती है।

माता कूष्माण्डा का स्वरूप

माँ कूष्माण्डा की 8 भुजाएँ हैं जो चक्र, गदा, धनुष, तीर, अमृत कलश, कमण्डलु और कमल से सुशोभित हैं। माता शेरनी की सवारी करती हैं।

पौराणिक मान्यताएँ

जब चारों ओर अंधेरा फैला हुआ था, कोई ब्रह्माण्ड नहीं था, तब देवी कूष्माण्डा ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए सृष्टि की उत्पति की। देवी का यह रूप ऐसा है जो सूर्य के अंदर भी निवास कर सकता है। यह रूप सूर्य के समान चमकने वाला भी है। ब्राह्माण्ड की रचना करने के बाद देवी ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) और त्रिदेवी (काली, लक्ष्मी और सरस्वती) को उत्पन्न किया। देवी का यही रूप इस पूरे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाला है।

कूष्माण्डा माँ सूर्य का मार्गदर्शन करती हैं। अतः इनकी पूजा से सूर्य के कुप्रभावों से बचा जा सकता है।

मंत्र:---

ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः॥

प्रार्थना मंत्र

सुरासम्पूर्ण कलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥

स्तुति:---

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्विनीम्॥
भास्वर भानु निभाम् अनाहत स्थिताम् चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पद्म, सुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि, रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कान्त कपोलाम् तुगम् कुचाम्।
कोमलाङ्गी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्त्रोत:---

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहि दुःख शोक निवारिणीम्।
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥

कवच मंत्र:---

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,
पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिग्विदिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजम् सर्वदावतु॥

 

माता स्कंदमाता की पूजा नवरात्रि के पाँचवें दिन होती है। देवी के इस रूप के नाम का अर्थ, स्कंद मतलब भगवान कार्तिकेय/मुरुगन और माता मतलब माता है, अतः इनके नाम का मतलब स्कंद की माता है।

माता स्कंदमाता का स्वरूप

माँ स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। देवी दो हाथों में कमल, एक हाथ में कार्तिकेय और एक हाथ से अभय मुद्रा धारण की हुईं हैं। कमल पर विराजमान होने के कारण देवी का एक नाम पद्मासना भी है। माता की पूजा से भक्तों को सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। देवी की सच्चे मन से पूजा करने पर मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। देवी के इस रूप को अग्नि देवी के रूप में भी पूजा जाता है। जैसा की माँ ममता की प्रतीक हैं, इसलिए वे भक्तों को प्रेम से आशीर्वाद देती हैं।

पौराणिक मान्यताएँ

मान्यताओं के अनुसार तारकासुर नामक एक राक्षस था जो ब्रह्मदेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करता था। एक दिन भगवान उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हो गए। तब उसने उसने अजर-अमर होने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने उसे समझाया की इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसे मरना ही है। फिर उसने सोचा कि शिव जी तपस्वी हैं, इसलिए वे कभी विवाह नहीं करेंगे। अतः यह सोचकर उसने भगवान से वरदान माँगा कि वह शिव के पुत्र द्वारा ही मारा जाए। ब्रह्मा जी उसकी बात से सहमत हो गए और तथास्तु कहकर चले गए। उसके बाद उसने पूरी दुनिया में तबाही मचाना शुरू कर दिया और लोगों को मारने लगा।

उसके अत्याचार से तंग होकर देवतागण शिव जी के पास पहुँचे और विवाह करने का अनुरोध किया। तब उन्होंने देवी पार्वती से विवाह किया और कार्तिकेय के पिता बनें। जब भगवान कार्तिकेय बड़े हुए, तब उन्होंने तारकासुर दानव का वध किया और लोगों को बचाया।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी स्कंदमाता बुध ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से बुध ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी स्कन्दमातायै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:---

सिंहासनगता नित्यं पद्माञ्चित करद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥

स्तुति:---

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्विनीम्॥
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पञ्चम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि, रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् पीन पयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥

स्त्रोत:----

नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागरम् पारपारगहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रदीप्ति भास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चितां सनत्कुमार संस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलाद्भुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितां विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालङ्कार भूषिताम् मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेदमार भूषणाम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्र वैरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनीं सुवर्णकल्पशाखिनीम्
तमोऽन्धकारयामिनीं शिवस्वभावकामिनीम्।
सहस्रसूर्यराजिकां धनज्जयोग्रकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभृडवृन्दमज्जुलाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरम् सतीम्॥
स्वकर्मकारणे गतिं हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनः पुनर्जगद्धितां नमाम्यहम् सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवी पाहिमाम्॥

कवच मंत्र:----

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मधरापरा।
हृदयम् पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री ह्रीं हुं ऐं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वाङ्ग में सदा पातु स्कन्दमाता पुत्रप्रदा॥
वाणवाणामृते हुं फट् बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्ने च वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणी भैरवी चैवासिताङ्गी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥

 

कात्यायनी माता की पूजा नवरात्रि के छठे दिन की जाती है। देवी पार्वती ने यह रूप महिषासुर नामक राक्षस को मारने के लिए धारण किया था। माता का यह रूप काफ़ी हिंसक माना गया है, इसलिए माँ कात्यायनी को युदध की देवी भी कहा जाता है।

माता कात्यायनी का स्वरूप

माँ कात्यायनी शेर की सवारी करती हैं। इनकी चार भुजाएँ हैं, बाएँ दो हाथों में कमल और तलवार है, जबकि दाहिने दो हाथों से वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुईं हैं। देवी लाल वस्त्र में सुशोभित हो रही हैं।

पौराणिक मान्यताएँ

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी कात्यायनी ने कात्यायन ऋषि को जन्म दिया था, इसलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा। कई जगह यह भी संदर्भ मिलता है कि वे देवी शक्ति की अवतार हैं और कात्यायन ऋषि ने सबसे पहले उनकी उपासना की, इसलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा।

जब पूरी दुनिया में महिषासुर नामक राक्षस ने अपना ताण्डव मचाया था, तब देवी कात्यायनी ने उसका वध किया और ब्रह्माण्ड को उसके आत्याचार से मुक्त कराया। तलवार आदि अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित देवी और दानव महिषासुर में घोर युद्ध हुआ। उसके बाद जैसे ही देवी उसके क़रीब गईं, उसने भैंसे का रूप धारण कर लिया। इसके बाद देवी ने अपने तलवार से उसका गर्दन धड़ से अलग कर दिया। महिषासुर का वध करने के कारण ही देवी को महिषासुर मर्दिनी कहा जाता है।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी कात्यायनी बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से बृहस्पति के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी कात्यायन्यै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:---

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद् देवी दानवघातिनी॥

स्तुति:---

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छित मनोरथार्थ चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहारूढा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्विनीम्॥
स्वर्णवर्णा आज्ञाचक्र स्थिताम् षष्ठम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् तुगम् कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम्॥

स्त्रोत:----

कञ्चनाभां वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।
स्मेरमुखी शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोऽस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालङ्कार भूषिताम्।
सिंहस्थिताम् पद्महस्तां कात्यायनसुते नमोऽस्तुते॥
परमानन्दमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, कात्यायनसुते नमोऽस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभर्ती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्वाचिन्ता, विश्वातीता कात्यायनसुते नमोऽस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानन्दकां बीज जप तोषिते।
कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहर्षिणीकां धनदाधनमासना।
कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मन्त्रपूजिताकां बीज धारिणी।
कां कीं कूंकै क: ठ: छ: स्वाहारूपिणी॥

कवच मंत्र:---

कात्यायनौमुख पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयम् पातु जया भगमालिनी॥

 

माता कालरात्रि की पूजा नवरात्रि के सातवें दिन की जाती है। इन्हें देवी पार्वती के समतुल्य माना गया है। देवी के नाम का अर्थ- काल अर्थात् मृत्यु/समय और रात्रि अर्थात् रात है। देवी के नाम का शाब्दिक अर्थ अंधेरे को ख़त्म करने वाली है।

माता कालरात्रि का स्वरूप

देवी कालरात्रि कृष्ण वर्ण की हैं। वे गधे की सवारी करती हैं। देवी की चार भुजाएँ हैं, दोनों दाहिने हाथ क्रमशः अभय और वर मुद्रा में हैं, जबिक बाएँ दोनों हाथ में क्रमशः तलवार और खडग हैं।

पौराणिक मान्यताएँ

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शुंभ और निशुंभ नामक दो दानव थे जिन्होंने देवलोक में तबाही मचा रखी थी। इस युद्ध में देवताओं के राजा इंद्रदेव की हार हो गई और देवलोक पर दानवों का राज हो गया। तब सभी देव अपने लोक को वापस पाने के लिए माँ पार्वती के पास गए। जिस समय देवताओं ने देवी को अपनी व्यथा सुनाई उस समय देवी अपने घर में स्नान कर रहीं थीं, इसलिए उन्होंने उनकी मदद के लिए चण्डी को भेजा।

जब देवी चण्डी दानवों से युद्ध के लिए गईं तो दानवों ने उनसे लड़ने के लिए चण्ड-मुण्ड को भेजा। तब देवी ने माँ कालरात्रि को उत्पन्न किया। तब देवी ने उनका वध किया जिसके कारण उनका नाम चामुण्डा पड़ा। इसके बाद उनसे लड़ने के लिए रक्तबीज नामक राक्षस आया। वह अपने शरीर को विशालकाय बनाने में सक्षम था और उसके रक्त (खून) के गिरने से भी एक नया दानव (रक्तबीज) पैदा हो रहा था। तब देवी ने उसे मारकर उसका रक्त पीने का विचार किया, ताकि न उसका खून ज़मीन पर गिरे और न ही कोई दूसरा पैदा हो।

माता कालरात्रि को लेकर बहुत सारे संदर्भ मिलते हैं। आइए हम उनमें से एक बताते हैं कि देवी पार्वती दुर्गा में कैसे परिवर्तित हुईं? मान्यताओं के मुताबिक़ दुर्गासुर नामक राक्षस शिव-पार्वती के निवास स्थान कैलाश पर्वत पर देवी पार्वती की अनुपस्थिति में हमला करने की लगातार कोशिश कर रहा था। इसलिए देवी पार्वती ने उससे निपटने के लिए कालरात्रि को भेजा, लेकिन वह लगातार विशालकाय होता जा रहा था। तब देवी ने अपने आप को भी और शक्तिशाली बनाया और शस्त्रों से सुसज्जित हुईं। उसके बाद जैसे ही दुर्गासुर ने दोबारा कैलाश पर हमला करने की कोशिश की, देवी ने उसको मार गिराया। इसी कारण उन्हें दुर्गा कहा गया।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी कालरात्रि शनि ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से शनि के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी कालरात्र्यै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:----

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।
वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥

स्तुति:----

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

करालवन्दना घोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिम् करालिंका दिव्याम् विद्युतमाला विभूषिताम्॥
दिव्यम् लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयम् वरदाम् चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम्॥
महामेघ प्रभाम् श्यामाम् तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवम् सचियन्तयेत् कालरात्रिम् सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥

स्त्रोत:---

हीं कालरात्रि श्रीं कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं ह्रीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥

कवच मंत्र:---

ऊँ क्लीं मे हृदयम् पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततम् पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनाम् पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशङ्करभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥

 

माता महागौरी की पूजा नवरात्रि के आठवें दिन की जाती है। सच्चे मन से भक्तों द्वारा की गई प्रार्थना माँ अवश्य स्वीकर करती हैं। महागौरी के नाम का अर्थ, महा मतलब महान/बड़ा और गौरी मतलब गोरी। देवी का रंग गोरा होने के कारण ही उन्हें महागौरी कहा गया।

माता महागौरी का स्वरूप

देवी महागौरी की चार भुजाएँ हैं और वे वृषभ की सवारी करती हैं। वे दाहिने एक हाथ से अभय मुद्रा धारण की हुईं हैं, वहीं दूसरे दाहिने हाथ में त्रिशूल है और बाएँ एक हाथ में डमरू तथा दूसरे बाएँ हाथ से वे वर मुद्रा में है।

पौराणिक मान्यताएँ

पौराणिक मान्याताओं के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए गर्मी, सर्दी और बरसात का बिना परवाह किए कठोर तप किया था जिसके कारण उनका रंग काला हो गया था। उसके बाद शिव जी उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और गंगा के पवित्र जल से स्नान कराया जिसके बाद देवी का रंग गोरा हो गया। तब से उन्हें महागौरी कहा जाने लगा।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी महागौरी राहु ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से राहु के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी महागौर्यै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:---

श्वेते वृषेसमारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥

स्तुति:---

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ महागौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहारूढा चतुर्भुजा महागौरी यशस्विनीम्॥
पूर्णन्दु निभाम् गौरी सोमचक्रस्थिताम् अष्टमम् महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीयां लावण्यां मृणालां चन्दन गन्धलिप्ताम्॥

स्त्रोत:---

सर्वसङ्कट हन्त्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदायनीम्।
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यमङ्गल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददम् चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥

कवच मंत्र:---

ॐकारः पातु शीर्षो माँ, हीं बीजम् माँ, हृदयो।
क्लीं बीजम् सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
ललाटम् कर्णो हुं बीजम् पातु महागौरी माँ नेत्रम्‌ घ्राणो।
कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा माँ सर्ववदनो॥

 

माता सिद्धिदात्री की पूजा नवरात्रि के नौवें दिन की जाती है। उनके नाम का अर्थ, सिद्धी मतलब आध्यात्मिक शक्ति और दात्री मतलब देेने वाली। अर्थात् सिद्धी को देने वाली। देवी भक्तों के अंदर की बुराइयों और अंधकार को दूर करती हैं और ज्ञान का प्रकाश भरती हैं।

माता सिद्धिदात्री का स्वरूप

माँ सिद्धिदात्री कमल पर विराजमान हैं और वे शेर की सवारी करती हैं। उनकी चार भुजाएँ हैं जिनमें दाहिने एक हाथ में वे गदा और दूसरे दाहिने हाथ में चक्र तथा दोनों बाएँ हाथ में क्रमशः शंख और कमल का फूल धारण की हुईं हैं। देवी का यह स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है।

पौराणिक मान्यताएँ

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव ने सभी प्रकार की सिद्धियों को पाने के लिए देवी सिद्धिदात्री की उपासना की थी। तब देवी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी को सभी सिद्धियाँ दीं। तब शिव जी का आधा शरीर देवी सिद्धिदात्री का हो गया। जिसके बाद शिव जी को अर्धनारीश्वर कहा गया।

ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार देवी सिद्धिदात्री केतु ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से केतु के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मंत्र:---

ॐ देवी सिद्धिदात्र्यै नमः॥

प्रार्थना मंत्र:---

सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥

स्तुति:---

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

ध्यान मंत्र:---

वन्दे वाञ्छित मनोरथार्थ चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
कमलस्थिताम् चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्विनीम्॥
स्वर्णवर्णा निर्वाणचक्र स्थिताम् नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मधरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम्।
मञ्जीर, हार, केयूर, किङ्किणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटिं निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्त्रोत:---

कञ्चनाभा शङ्खचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालङ्कार भूषिताम्।
नलिस्थिताम् नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोऽस्तुते॥
परमानन्दमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभर्ती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता, विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भवसागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनीं।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते॥

कवच मंत्र:---

ॐकारः पातु शीर्षो माँ, ऐं बीजम् माँ हृदयो।
हीं बीजम् सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
ललाट कर्णो श्रीं बीजम् पातु क्लीं बीजम् माँ नेत्रम्‌ घ्राणो।
कपोल चिबुको हसौ पातु जगत्प्रसूत्यै माँ सर्ववदनो॥

 

चैत्र नवरात्रि का पारणा चैत्र शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। इस दिन 9 दिनों तक चलने वाली चैत्र नवरात्रि समाप्त हो जाती है। पारणा मुहूर्त को लेकर शास्त्रों में बहुत मतभेद है कि पारण नवमी को होगा या दशमी को। मिमांस (जिन्होंने शास्त्रों की व्याख्या की है) के अनुसार पारण दशमी को करना चाहिए, क्योंकि कई शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि नवमी को उपवास रखा जाता है।

यदि नवमी तिथि दो दिन पड़ रही हो, तब उस स्थिति में पहले दिन उपवास रखा जाएगा और दूसरे दिन पारण होगा। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है। जैसा की नवमी नवरात्रि पूजा का अंतिम दिन है, इसलिए इस दिन देवी दुर्गा की षोडषोपचार पूजा करके विसर्जन करना चाहिए।

पूजा और विसर्जन के बाद ब्राह्मणों को फल, उपहार, वस्त्र, दान-दक्षिणा आदि (अपनी इच्छानुसार) देनी चाहिए। साथ ही उपरोक्त चीज़ें 9 कन्याओं को भी कन्या पूजन करके देनी चाहिए।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411