गायत्री के पांच मुखों का रहस्य

गायत्री के पांच मुखों का रहस्य धार्मिक पुस्तकों में ऐसे कई प्रसंग या वृतांत पढऩे में आते हैं।, जो बहुत ही आश्चर्यजनक हैं। लाखों-करोड़ों देवी-देवता, स्वर्ग-नर्क, आकाश-पाताल, कल्पवृक्ष, कामधेनु गाय, इन्द्रलोक  और भी न जाने क्या-क्या। इन आश्चर्यजनक बातों का यदि हम शाब्दिक अर्थ निकालें तो शायद ही किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं। अधिकांस घटनाओं का वर्णन प्रतीकात्मक शैली में किया गया है। गायत्री के पांच मुखों का आश्चर्यजनक और रहस्यात्मक प्रसंग भी कुछ इसी तरह का है। यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। ये पांच तत्व ही गायत्री के पांच मुख हैं। मनुष्य के शरीर में इन्हें पांच कोश कहा गया है। इन पांच कोशों का उचित क्रम इस प्रकार है। अन्नमय कोश - प्राणमय कोश - मनोमय कोश - विज्ञानमय कोश - आनन्दमय कोश ये पांच कोश यानि कि भंडार, अनंत ऋद्धि-सिद्धियों के अक्षय भंडार हैं। इन्हें पाकर कोई भी इंसान या जीव सर्वसमर्थ हो सकता है। योग साधना से इन्हें जाना जा सकता है।, पहचाना जा सकता है। इन्हें सिद्ध करके यानि कि जाग्रत करके जीव संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाता है। जीव का 'शरीर' अन्न से, 'प्राण' तेज से, 'मन' नियंत्रण से, 'ज्ञान' विज्ञान से और कला से 'आनन्द की श्रीवृद्धि होती है। गायत्री के पांच मुख इन्हीं तत्वों के प्रतीक हैं।

गायत्री की दस भुजाओं का रहस्य वैज्ञानिक तरीके से शोध-अनुसंधान करने के बाद ही देवी-देवता सम्बंधी मान्यता की स्थापना हुई है। आज के तथाकथित पढ़े लिखे लोग देवी-देवता सम्बंधी बातों को अंधविश्वास या अंध श्रृद्धा कहते हैं।, किन्तु उनका ऐसा सोचना, उनके आधे-अधूरे ज्ञान की पहचान है। चित्रों और मूर्तियों में देवी-देवताओं को एक से अधिक हाथ और कई मुखों वाला दिखाया जाता है। इन बातों के वास्तविक अर्थ क्या है।  इस तरह के सारे प्रश्रों और जिज्ञासाओं का समाधान हम लगातार करते रहेंगे। आज यह जानेगे कि गायत्री की दश भुजाओं का क्या अर्थ है। इंसान के जीवन में दस शूल यानि कि कष्ट हैं। ये दस कष्ट है—दोषयुक्त दृष्टि, परावलंबन ( दूसरों पर निर्भर होना) , भय, क्षुद्रता, असावधानी, क्रोध, स्वार्थपरता, अविवेक, आलस्य और तृष्णा। गायत्री की दस भुजाएं इन दस कष्टों को नष्ट करने वाली हैं। इसके अतिरिक्त गायत्री की दाहिनी पांच भुजाएं मनुष्य के जीवन में पांच आत्मिक लाभ—आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, आत्म-अनुभव, आत्म-लाभ और आत्म-कल्याण देने वाली हैं। तथा गायत्री की बाईं पांच भुजाएं पांच सांसारिक लाभ—स्वास्थ्य, धन, विद्या, चातुर्य और दूसरों का सहयोग देने वाली हैं। दस भुजी गायत्री का चित्रण इसी आधार पर किया गया है। ये सभी जीवन विकास की दस दिशाएं हैं। माता के ये दस हाथ, साधक को उन दसों दिशाओं में सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं। गायत्री के सहस्रो नेत्र, सहस्रों कर्ण, सहस्रों चरण भी कहे गए हैं। उसकी गति सर्वत्र है। गायत्री कौन हैं। लक्ष्मी, काली और सरस्वती ? सेकड़ों देवी-देवताओं वाले हिन्दू धर्म को अज्ञानतावश कुछ लोग अंधश्रृद्धा वाला धर्म कह देते हैं। गायत्री किन्तु संसार में सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म कोई है। तो वह सनातन हिन्दू धर्म ही है। सामान्य इंसान भी धर्म के मर्म यानि गहराई को समझ सके, यह सौच कर ही ऋषि-मुनियों ने विश्व की विभिन्न सूक्ष्म शक्तियों को देवी-देवताओं के रूप में चित्रित किया है। ईश्वर या परमात्मा अपने तीन कर्तव्यों को पूरा करने के लिए तीन रूपों में प्रकट हुआ- ब्रह्म, विष्णु और महेश। ब्रह्म को रचनाकार, विष्णु को पालनहार और महेश को संहार का देवता कहा गया है। इस त्रिमूर्ति की तीन शक्तियां हैं- ब्रह्म की महासरस्वती, विष्णु की महालक्ष्मी और महेश की महाकाली। इस तरह परमात्मा अपनी शक्ति से संसार का संचालन करता है। हम किसी भी वस्तु के बारे में उसका इतिहास इसी क्रम से जानते हैं।- उसका निर्माण, उसकी अवस्था और उसका अंत। इसी क्रम में ब्रह्म-विष्णु-महेश का क्रम भी त्रिमूर्ति में कहा गया है। किंतु जब जीवन में शक्ति की उपासना होती है। तो यह क्रम उलटा हो जाता है। - महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती। संहार- हम उन बुराइयों का संहार करें, जो बीमारी की तरह हमारे समूचे जीवन को नष्ट कर देती है। बीमारी को जड़ से काट कर जीवन को बचाएं। पोषण- जब बीमारी कट जाए तो शरीर की ताकत बढ़ाने वाला आहार लेना चाहिए। बुराइयां हटाकर जीवन में सद्गुणों का रोपण करें, जिससे आत्मविश्वास मजबूत हो। रचना- जब जीवन बुराइयों से मुक्त होकर सद्गुणों को अपनाता है। तो हमारे आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण शुरू होता है। संसार संचालन के लिए परमात्मा को अतुलनीय शक्ति, पर्याप्त धन और निर्मल विद्या की आवश्यकता होती है।, इसीलिए उसकी शक्ति महाकाली का रंग काला, महालक्ष्मी का रंग पीला (स्वर्ण) और सरस्वती का रंग सफेद (शुद्धता) है। हमें जीवन में यही मार्ग अपनाना चाहिए अर्थात समाज से बुराइयों का नाश और सदाचार का पोषण करें, तभी आदर्श समाज का नवनिर्माण होगा। यह हम तब ही कर सकते हैं। जब हमारे पास वीरता, धन और शिक्षा जैसी शक्तियां हों।

गायत्री मन्त्र को मंत्रराज होने का सम्मान प्राप्त है। इस मन्त्र की महिमा अपरम्पार व अकथनीय है। इस मन्त्र में इतनी शक्ति समाहित है। कि संसार की किसी भी समस्या का समाधान इस मन्त्र के माध्यम से किया जा सकता है। यही नहीं, यदि सम्पूर्ण विधि विधान के साथ इस मन्त्र का जप किया जाय, तो किसी भी मनोवांछित कामना की पूर्ति हो सकती है।

आज कल के इस आधुनिक युग में लेस मात्र भी व्यक्ति को इतनी सुविधायें, एकांतवास व समय उपलब्ध नहीं है। कि वह प्राचीन काल के ऋषि मुनियों की भांति शांतचित होकर व शुद्धतापूर्वक विधि विधान से जप तप की क्रिया कर सके। अतः यदि कोई व्यक्ति दैनिकचर्या के रूप में स्नान करके पूजा के समय गायत्री मन्त्र का 3-5-7-11 माला, जितना भी सम्भव हो, नियमित रूप से जाप करता रहे, तो उसे गायत्री मन्त्र का प्रभाव अवश्य ही देखने को मिल जाएगा।

गायत्री मन्त्र इस प्रकार है।-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

गायत्री मन्त्र जप विधि--

कोई साधक यदि गायत्री मन्त्र जप करना चाहता है। तो उसको चाहिए कि सर्वप्रथम प्रातः स्नान करके किसी शुद्ध एकान्त स्थल का चयन करें तत्पश्चात गायत्री जी के चित्र अथवा मूर्ति का धूप, दीप, अक्षत, पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात शिखा में गांठ लगाकर, मन को शांत व स्थिर कर आसन ग्रहण कर संकल्प ले व तदोपरान्त मन्त्र जप की क्रिया प्रारम्भ कर दे। जप क्रिया में यह बात अत्यंत ध्यान देने योग्य है। कि जप की गति सामान्य रहे एवं शब्दों का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। मौन रूप से किया जप भी मान्य होता है। किन्तु उसमें भी जप की गति सामान्य रहनी चाहिए एवं शब्दों का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। जप समाप्त होने के पश्चात् गायत्री जी के चित्र को प्रणाम करते हुए, जप क्रिया में जाने अनजाने में की गई त्रुटियों  की क्षमायाचना करना भी आवश्यक होता है।

सामान्य रूप से दैनिक पूजन के रूप में जप करना सरल है।  किन्तु यदि किसी विशेष प्रयोजन से, अनुष्ठान के रूप में गायत्री साधना की जाती है। तब साधक को संयम नियम के प्रति विशेष रूप से सतर्क रहना पड़ता है।

गायत्री साधना के नियम एवं वर्जनायें--

ब्रह्मचर्य - गायत्री जी की साधना के दिनों में साधक को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अति आवश्यक होता है। साधक को स्वमं के मन, वाणी, विचार एवं क्रिया कलापों पर नियंत्रण करना चाहिए एवं इनके प्रति सजग रहना चाहिए; ताकि जाने अनजाने कहीं ऐसी परिस्तिथि न आन खड़ी हो, जो तपस्या के भंग होने का कारण बन जाए। वस्तुतः वेदों व पुराणो के अनुसार  ब्रह्मचर्य प्रत्येक पूजा व अनुष्ठान का पहला नियम, पहली शर्त है।

उपवास -   गायत्री मन्त्र जप काल में अन्न का त्याग कर उपवास करने से आध्यात्मिक शक्ति एवं तेजस्विता में वृद्धि होती है। निराहार रहना तो सम्भव नहीं है। किन्तु फलाहार के माध्यम से देह को सतेज रखा जा सकता है। उपवास के दिनों में दूध, दही, फल, शर्बत, नींबू का पानी जैसे पदार्थ लिये जा सकते हैं। यदि अन्न का सम्पूर्ण त्याग सम्भव न हो तो, एक समय अन्न एवं एक समय दूध व फलाहार पर रहना चाहिए। ध्यान रहे कि जप काल में साधक अन्न से बना जो भोजन ग्रहण करे वह सादा, सात्विक, हल्का एवं सुपाच्य होना चाहिए क्योंकि गरिष्ठ पदार्थ देह में आलस्य उत्पन्न करते हैं। पेटभर हलुआ, पूड़ी, चाट, मसाले एवं अचार आदि खाकर सफल साधना संभव नहीं है।

मौन -   जप काल में साधक का कम वार्तालाप करना ही उचित रहता है। सर्वविदित है। की मौन रहकर ही ईश्वर चिन्तन अथवा स्वाधय करते रहने से ज्ञान, स्मरणशक्ति एवं तेजस्विता की वृद्धि संभव होती है। अधिक वार्तालाप करने से देह के कई अंग जैसे जिव्हा, मस्तिष्क, फेफड़ा, हृदय एवं स्नायु-तन्तु आदि शिथिल हो जाते हैं। वैसे भी साधनारत व्यक्ति को अधिक व्यक्तियों  की संगत नहीं करनी चाहिए। क्यूंकि उनकी उचित अनुचित वार्ता व विचारों का प्रभाव साधक की मानसिक पवित्रता एवं समर्पण के भाव को विचलित अथवा खण्डित कर सकता है।

सहिष्णुता -   सहिष्णुता के लिए सादगी और धैर्य की आवश्यकता होती है। इस प्रवृत्ति के प्रभाव से साधक को साधना काल में किसी प्रकार की प्राकृतिक बाधा विचलित नहीं कर पाती। सहिष्णुता के प्रभाव से ही सर्दी अथवा गर्मी से विचलित हुए बिना पूरी तन्मयता से साधक के लिए साधना करना संभव हो पाता है। सहिष्णुता के आभाव में साधक थोड़ी थोड़ी देर में आकुल हो उठता है। ऐसी स्थिति में साधना करना संभव नहीं हो पाता है। अतः अभीष्ट साधना हेतु धैर्य एवं मनोयोग के लिए, साधक में सहिष्णुता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक है।

कर्षण साधना -   कर्षण साधना हेतु मानसिक शान्ति अति आवश्यक होती है। एवं ऐसी साधना हेतु साधक के भीतर उद्वेग नष्ट हो जाने अति आवश्यक हैं। अतः साधक को चाहिए कि साधना काल में अन्न, वस्त्र, आसन, व्यसन, सवारी, निद्रा आदि का परित्याग करके अथवा ऐसा संभव न हो सके तो इनका अल्प प्रयोग कर अपने साधना काल का समय व्यतीत करना चाहिए।

चान्द्रायण व्रत -   इस समय चन्द्रकला के अनुपात के अनुसार साधक को अपनी साधना बढा़ते हुए, त्याग एवं तितिक्षा को आधार बना अधिक संयमी, त्यागी एवं सहिष्णु बन अपनी साधना में लीन हो जाना चाहिए।

निष्कासन -   निष्कासन से यहां आशय, त्याग एवं बहिष्कार करने से है। अर्थात साधनाकाल में साधक को दुष्प्रवृत्तियों का त्याग कर देना चाहिए। साधक को इस काल में अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए, उनका प्रायश्चित करना चाहिए। अहंकार व द्धेष की भावना को अपने निकट भी नहीं भटकने देना चाहिए अर्थात इनसे सर्वथा मुक्त हो जाना चाहिए। समस्त प्रकार की मनोव्याधियों, ईर्ष्या, काम, क्रोध, छल व कपट, अहम् एवं दम्भ आदि से स्वमं को सर्वथा मुक्त कर लेना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। साधक को तन व मन दोनों रूपों में शुद्ध, पवित्र एवं निष्कलुष होना चाहिए।

प्रदातव्य -   अनुष्ठानकाल में साधक को चाहिए कि वह कुछ दानपुण्य भी करे अर्थात जरुरतमंदो को अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ दे फिर चाहे वह मनुष्य हो पशु हो अथवा पक्षी कोई भी हो, उसे कुछ न कुछ अवश्य प्रदान करना चाहिए। दीन-दुखियों को भोजन, पक्षियों को दाना, चींटी, कुत्ते  जैसे छोटे पशुओं को कुछ खाने को देना चाहिए अथवा पशुओं को चारा डालना चाहिए।

अतः यदि कोई साधक, विधिपूर्वक नियमों संयमों के साथ यदि गायत्री मन्त्र की साधना करे एवं आस्था रखते हुए विधिपूर्वक हवन कर ले, तो अनेक प्रकार से लाभान्वित हो सकता है।

गायत्री मन्त्र सर्वोपरी मन्त्र है। इससे बड़ा और कोई मन्त्र नहीं। जो काम संसार के किसी अन्य मन्त्र से नहीं हो सकता, वह निश्चित रूप से गायत्री मंत्र द्वारा हो सकता है। यह एक प्रचण्ड शक्ति है।, जिसे जिधर भी लगा दिया जायेगा, उधर ही चमत्कारिक सफलता मिलेगी।

काम्य कर्मों के लिये, सकाम प्रयोजनों के लिये अनुष्ठान करना आवश्यक होता है। सवा लक्ष का पूर्ण अनुष्ठान, चौबीस हजार का आंशिक अनुष्ठान अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार फल देते हैं। ‘जितना गुड़ डालो उतना मीठा’ वाली कहावत इस क्षेत्र में भी चरितार्थ होती है। साधना और तप द्वारा जो आत्मबल संग्रह किया गया है।, उसे जिस काम में भी खर्च किया जायेगा, उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। गायत्री की प्रयोग विधि एक प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति है। तप या साधना द्वारा संग्रह की हुई आत्मिक शक्ति अमोघ है। दोनों के मिलने से ही लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार जिनके पास तपोवल है, पर उसका काम्य प्रयोजन के लिये विधिवत प्रयोग करना नहीं जानते, वैसे हैं। जैसे चलनी में दूध काढ़ना और भाग्य को दोष देना।

आत्मबल संचय करने के लिये जितनी अधिक साधनायें की जाएँ, उतना ही अच्छा है। पाँच प्रकार के साधक गायत्री सिद्ध समझे जाते हैं।-

(1) लगातार बारह वर्ष तक प्रतिदिन कम से कम एक माला नित्य जप किया हो।

(2) गायत्री की ब्रह्मसन्ध्या को नौ वर्ष किया हो।

(3) ब्रह्मचर्यपूर्वक पाँच वर्ष तक प्रतिदिन एक हजार मन्त्र जपे हों।

(4) चौबीस लक्ष गायत्री का अनुष्ठान किया हो।

(5) पाँच वर्ष तक विषेष गायत्री जप किया हो। जो व्यक्ति इन साधनाओं में कम से कम एक या एक से अधिक का तप पूरा कर चुके हों, वे गायत्री मन्त्र का काम्य कर्म में प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चौबीस हजार वाले अनुष्ठानों की पूँजी जिनके पास है।, वे भी अपनी-अपनी पूँजी के अनुसार एक सीमा तक सफल हो सकते हैं।

गायत्री मंत्र प्रयोग की विधियाँ दी जाती है।

रोग निवारणः- स्वयं रोगी होने पर जिस स्थिति में भी रहना पड़े, उसी में मन ही मन गायत्री का जप करना चाहिये। एक मन्त्र समाप्त होने और दूसरा आरम्भ होने के बीच में एक ‘बीज मन्त्र’ का सम्पुट भी लगाते चलना चाहिये। सर्दी प्रधान (कफ) रोग में ‘एं’ बीज मन्त्र, गर्मी प्रधान पित्त रोगों में ‘ऐं’, अपच एवं विष तथा वात रोगों में ‘हूं’ बीज मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये। निरोग होने के लिये वृषभवाहिनी हरितवस्त्रा गायत्री का ध्यान करना चाहिये।

दूसरों को निरोग करने के लिये भी इन्हीं बीज मन्त्रों का और इसी ध्यान का प्रयोग करना चाहिये। रोगी के पीड़ित अंगों पर उपर्युक्त ध्यान और जप करते हुए हाथ फेरना, जल अभिमन्त्रित करके रोगी पर मार्जन देना एवं छिडक़ना चाहिये। इन्हीं परिस्थितियों में तुलसी पत्र और कालीमिर्च गंगाजल में पीसकर दवा के रूप में देना, यह सब उपचार ऐसे हैं, जो किसी भी रोग के रोगी को दिये जाएँ, उसे लाभ पहुँचाये बिना न रहेंगे।

विष निवारणः- सर्प, बिच्छू, बर्र, ततैया, मधुमक्खी और जहरीले जीवों के काट लेने पर बड़ी पीड़ा होती है। साथ ही शरीर में विष फैलने से मृत्यु हो जाने की सम्भावना रहती है। इस प्रकार की घटनायें घटित होने पर गायत्री मंत्र शक्ति द्वारा उपचार किया जा सकता है।

पीपल वृक्ष की समिधाओं से विधिवत हवन करके उसकी भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये। अपनी नासिका का जो स्वर चल रहा है, उसी हाथ पर थोड़ी सी भस्म रखकर दूसरे हाथ से उसे अभिमंत्रित करता चले और बीच में ‘हूं’ बीज मन्त्र का सम्पुट लगावें तथा रक्तवर्ण अश्वारूढ़ा गायत्री का ध्यान करता हुआ उस भस्म को विषेले कीड़े के काटे हुए स्थान पर दो-चार मिनट मसले। पीड़ा में जादू के समान आराम होता है।

सर्प के काटे हुए स्थान पर रक्त चन्दन से किये हुए हवन की भस्म मलनी चाहिये और अभिमंत्रित करके घृत पिलाना चाहिये। पीली सरसों अभिमंत्रित करके उसे पीसकर दशों इन्द्रियों के द्वार पर थोड़ा-थोड़ा लगा देना चाहिये। ऐसा करने से सर्प विष दूर हो जाता है।

बुद्धि वृद्धिः- गायत्री मंत्र प्रधानतः बुद्धि को शुद्ध, प्रखर और समुन्नत करने वाला मन्त्र है। मन्द बुद्धि, स्मरण शक्ति की कमी वाले लोग इससे विशेष रूप से लाभ उठा सकते हैं। जो बालक अनुत्तीर्ण हो जाते हैं, पाठ ठीक प्रकार याद नहीं कर पाते, उनके लिये निम्न उपासना बहुत उपयोगी है।

सूर्योदय के समय की प्रथम किरणें पानी से भीगे हुए मस्तक पर लगने दें। पूर्व की ओर मुख करके अधखुले नेत्रों से सूर्य का दर्शन करते हुए आरम्भ में तीन बार ऊँ का उच्चारण करते हुए गायत्री मंत्र का जप करें। कम से कम एक माला (108 मन्त्र) अवश्य जपना चाहिये। पीछे हाथों की हथेली का भाग सूर्य की ओर इस प्रकार करें मानो आग पर ताप रहे हैं। इस स्थिति में बारह मन्त्र जपकर हथेलियों को आपस में रगड़ना चाहिये और उन उष्ण हाथों को मुख, नेत्र, नासिका, ग्रीवा, कर्ण, मस्तक आदि समस्त षिरोभागों पर फिराना चाहिये।

राजकीय सफलताः- किसी सरकारी कार्य, मुकदमा, राज्य स्वीकृति, नियुक्ति आदि में सफलता प्राप्त करने के लिये गायत्री मंत्र का उपयोग किया जा सकता है। जिस समय अधिकारी के सम्मुख उपस्थित होना हो अथवा कोई आवेदन पत्र लिखना हो, उस समय यह देखना चाहिये कि कौन सा स्वर चल रहा है। यदि दाहिना स्वर चल रहा हो, तो पीतवर्ण ज्योति का मस्तिष्क में ध्यान करना चाहिये और यदि बायाँ स्वर चल रहा हो, तो हरे रंग के प्रकाश का ध्यान करना चाहिये। मंत्र में सप्त व्याहृतियाँ (ऊँ भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्य्) लगाते हुए बारह मन्त्रों का मन ही मन जप करना चाहिये। दृष्टि उस हाथ के अँगूठे के नाखून पर रखनी चाहिये, जिसका स्वर चल रहा हो। भगवती की मानसिक आराधना, प्रार्थना करते हुए राजद्वार में प्रवेश करने से सफलता मिलती है।

दरिद्रता का नाशः- दरिद्रता, हानि, ऋण, बेकारी, साधनहीनता, वस्तुओं का अभाव, कम आमदनी, बढ़ा हुआ खर्च, कोई रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की व्यर्थ चिन्ता से मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार हो जाती है, जो वर्तमान अर्थ-चक्र से निकालकर साधक को सन्तोषजनक स्थिति पर पहुँचा देती है।

दरिद्रता नाश के लिये गायत्री की ‘श्रीं’ शक्ति की उपासना करनी चाहिये। मंत्र के अन्त में तीन बार ‘श्रीं’ बीज का सम्पुट लगाना चाहिये। साधना काल के लिये पीत वस्त्र, पीले पुष्प, पीला यज्ञोपवीत (केशर से रंगा हुआ), पीला तिलक, पीला आसन प्रयोग करना चाहिये और रविवार को उपवास करना चाहिये। शरीर पर शुक्रवार को हल्दी मिले हुए तेल की मालिष करनी चाहिये। पीताम्बरधारी, हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का ध्यान करना चाहिये। पीतवर्ण लक्ष्मी का प्रतीक है। भोजन में भी पीली चीजें प्रधान रूप से लेनी चाहिये। इस प्रकार की साधना से धन की वृद्धि और दरिद्रता का नाश होता है।

सुसन्तति की प्राप्तिः- जिसकी सन्तान नहीं होती हैं, होकर मर जाती हैं, रोगी रहती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, केवल कन्याएँ होती हैं, तो इन कारणों से माता-पिता को दुःखी रहना स्वाभाविक है। इस प्रकार के दुःखों से भगवती की कृपा द्वारा छुटकारा मिल सकता है।

इस प्रकार की साधना में स्त्री-पुरुष दोनों ही सम्मिलित हो सकें, तो बहुत ही अच्छा है। एक पक्ष के द्वारा ही पूरा भार कन्धे पर लिये जाने से आंशिक सफलता ही मिलती है। प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर साधना पर बैठें। नेत्र बन्द करके श्वेत वस्त्राभूषण अलंकृत, किषोर आयु वाली, कमल पुष्प हाथ में धारण किये हुए गायत्री का ध्यान करें। ‘यं’ बीज के तीन सम्पुट लगाकर गायत्री का जप चन्दन की माला पर करें।

नासिका से साँस खींचते हुए पेडू तक ले जानी चाहिए। पेडू को जितना वायु से भरा जा सके भरना चाहिये। फिर साँस रोककर ‘यं’ बीज सम्पुटित गायत्री का कम से कम एक, अधिक से अधिक तीन बार जप करना चाहिये। इस प्रकार पेडू में गायत्री शक्ति का आकर्षण और धारण कराने वाला यह प्राणायाम दस बार करना चाहिये। तदनन्तर अपने वीर्यकोष या गर्भाषय में शुभ्र वर्ण ज्योति का ध्यान करना चाहिये।

यह साधना स्वस्थ, सुन्दर, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान सन्तान उत्पन्न करने के लिये है। इस साधना के दिनों में प्रत्येक रविवार को चावल, दूध, दही आदि केवल श्वेत वस्तुओं का ही भोजन करना चाहिये।

नोटः- पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, भक्ति एवं धैर्य के साथ ही सफलता निश्चित प्राप्त होती है।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411