देवी छिन्नमस्ता के प्रादुर्भाव से

देवी छिन्नमस्ता के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा

नारद-पंचरात्र के अनुसार, एक बार देवी पार्वती अपनी दो सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान हेतु गई। नदी में स्नान करते हुए, देवी पार्वती काम उत्तेजित हो गई तथा उत्तेजना के फलस्वरूप उनका शारीरिक वर्ण काला पड़ गया। उसी समय, देवी के संग स्नान हेतु आई दोनों सहचरी डाकिनी और वारिणी, जो जया तथा विजया नाम से भी जानी जाती हैं क्षुधा (भूख) ग्रस्त हुई और उन दोनों ने पार्वती देवी से भोजन प्रदान करने हेतु आग्रह किया। देवी पार्वती ने उन दोनों सहचरियों को धैर्य रखने के लिये कहा तथा पुनः कैलाश वापस जाकर भोजन देने का आश्वासन दिया। परन्तु, उनके दोनों सहचरियों को धैर्य नहीं था, वे दोनों तीव्र क्षुधा का अनुभव कर रहीं थीं तथा कहने लगी! "देवी आप तो संपूर्ण ब्रह्मांड की माँ हैं और एक माता अपने संतानों को केवल भोजन ही नहीं अपितु अपना सर्वस्व प्रदान कर देती हैं। संतान को पूर्ण अधिकार हैं कि वह अपनी माता से कुछ भी मांग सके, तभी हम बार-बार भोजन हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। आप दया के लिए संपूर्ण जगत में विख्यात हैं, परिणामस्वरूप देवी को उन्हें भोजन प्रदान करना चाहिए।" सहचरियों द्वारा इस प्रकार दारुण प्रार्थना करने पर देवी पार्वती ने उनकी क्षुधा निवारण हेतु, अपने खड़ग से अपने मस्तक को काट दिया, तदनंतर, देवी के गले से रक्त की तीन धार निकली। एक धार से उन्होंने स्वयं रक्त पान किया तथा अन्य दो धाराएं अपनी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान किया। इस प्रकार देवी ने स्वयं अपना बलिदान देकर अपनी सहचरियों के क्षुधा का निवारण किया।

देवी छिन्नमस्ता के उत्पत्ति से संबंधित एक और कथा प्राप्त होती हैं! जो समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं और राक्षसों ने अमृत तथा अन्य प्रकार के नाना रत्नों के प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। देवताओं और राक्षसों दोनों नाना रत्न प्राप्त कर शक्तिशाली बनना चाहते थे, सभी रत्नों में अमृत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न था, जिसे प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त करने हेतु, देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे। समुद्र मंथन से कुल १८ प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, देवताओं के वैध धन्वन्तरी, अमृत कलश के साथ अंत में प्रकट हुए। तदनंतर देवताओं और राक्षसों दोनों में अमृत कलश प्राप्त करने हेतु, भारी उत्पात हुआ अंततः देवताओं से दैत्य अमृत कलश लेने में सफल हुए। समस्या के निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया। अपने नाम के स्वरूप ही देवी मोहिनी ने असुरों को मोहित कर लिया तथा असुर-राज बाली से अमृत कलश प्राप्त कर, देवताओं तथा दानवों को स्वयं अमृत पान करने हेतु तैयार कर लिया। मोहिनी अवतार में स्वयं आद्या शक्ति महामाया ही भगवान विष्णु से प्रकट हुई थी। देवी मोहिनी ने छल से सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराया तथा शेष स्वयं पान कर, अपने हाथों से अपने मस्तक को धर से अलग कर दिया, जिससे अब और कोई अमृत प्राप्त न कर सकें।

देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित अधिक तथ्य

सामान्यतः हिंदू धर्म अनुसरण करने वाले देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतंत्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मंदिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं तथा तांत्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता हैं, देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं। देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं।

देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

संक्षेप में देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : छिन्नमस्ता।

अन्य नाम : छिन्न-मुंडा, छिन्न-मुंडधरा, आरक्ता, रक्त-नयना, रक्त-पान-परायणा, वज्रवराही।

भैरव : क्रोध-भैरव।

भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान नृसिंह अवतार।

तिथि : वैशाख शुक्ल चतुर्दशी।

कुल : काली कुल।

दिशा : उत्तर।

स्वभाव : उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।

कार्य : सभी प्रकार के कार्य हेतु दृढ़ निश्चितता, फिर वह अपना मस्तक ही अपने हाथों से क्यों न काटना हो, अहंकार तथा समस्त प्रकार के अवगुणों का छेदन करने हेतु शक्ति प्रदाता, कुण्डलिनी जाग्रति में सहायक।

शारीरिक वर्ण : करोड़ों उदित सूर्य के प्रकाश समान कान्तिमयी है।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा, संपर्क सूत्र- 9760924411