श्रेणियाँ
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- कन्या का विवाह कहां होगा, कब होगा
- कब उन्नति, नौकरी व्यवसाय द्वारा कब
- प्रमुख 9 श्राप जिसके कारण नहीं होती संतान की प्राप्ति
- मंगल’ लाइफ में कैसे लाता है। अमंगल
- ज्योतिष योग, योगफल, जीवन उद्देश्य
- स्वप्न और जीवन पर इसका प्रभाव
- जातक वर्षकुंडली मुंथा राशि का जीवन पर प्रभाव
- शनि प्रदत्त सुखदायक योगकारक स्थितियां
- लम्बे समय से बीमार व्यक्ति के लिए ज्योतिषीय
- कन्या का शीघ्र विवाह कराने के लिए उपाय
- जीवन के लक्षणों से पता चलता है। ग्रहों की
- प्रेम-विवाह में सफलता के लिए क्या करें
- ज्योतिष मे शकुन शास्त्र
- चंचल नटखट जिद्दी -बच्चे और ज्योतिष सम्बन्ध
- कैंसर रोग और ज्योतिष का सम्बंध
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- ज्योतिष ग्रह- दशा और आप
- जैमिनी ज्योतिष शुभता एवं अशुभ का विचार
- ज्योतिष में श्रापित योग
- काली हल्दी साथ ही पूजा-पाठ में भी
- शाबर मन्त्रों के सम्बन्ध में कुछ लोग यह कहते हैं।
- ज्योतिष के अनुसार मुहूर्त योग
- यक्ष कुबेर साधना रहस्य
- २७ नक्षत्रों के सप्तवारादि युक्त नाडी मुहूर्त
- होरा कार्याऽकार्य विवेचना
- शादीशुदा लोग क्यों करते हैं। लव अफेयर
- कुंडली में होगा ऐसा योग हैं। तो होकर रहेगी लव मैरिज
- चमत्कारिक तान्त्रिक वनस्पतियों का रहस्य
- आप अनावश्यक खर्चों से परेशान है। तो यह उपाय करें ।
- इन छोटे-छोटे उपायो से सुख-समृद्धि लाएं ।
- कारोबारी अपनी समस्या का समाधान पाएं ।
- चावल के 21 दानें रखें --पैसों की तंगी होगी खत्म
- शीघ्र ही लाभ होगा इन उपायो के करने पर ।
- धन समृद्धि के अचूक टोटके अपना कर लाभ उठाएं ।
- नवग्रह के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए उपाय करें ।
- शादी करने के अद्भुत अनुभूत उपाय इस प्रकार हैं ।
- क्यों बदल जाती है। लाइफ पार्टनर की सोच ।
- कुछ लक्षणों को देखते ही व्यक्ति के मन में आशंका हो जाती है ।
- ऋण मुक्ति के अचूक उपाय इस प्रकार हैं ।
- बंधी हुई दुकान को खोलने के अचूक उपाय ।
- जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान पाएं ।
- लाल किताब के अचूक अद्भुत टोटके ।
- वास्तु द्वारा उपाय करने पर कष्ट का निवारण ।
- अंक ज्योतिष द्वारा समस्या का समाधान पाएं ।
- शनिदेव के कल्याणकारी उपाय
- भारतीय वैदिक ज्योतिष द्वारा समाधान
- रत्नो द्वारा नव ग्रहों का समाधान करे ।
- देवताओं के उपासनासंबंध से तंत्र
- श्री हनुमंत वडवानल स्तोत्र
- श्री हनुमान जी की स्तुति
- बन्दी-मोचन स्तोत्र
- हनुमान बाहुक :हिन्दी भावार्थ सहित
- श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र
- बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
- बैरि-नाशक हनुमान ग्यारहवाँ
- ज्योतिष में ग्रहों का फल
- ज्योतिष में ध्यान रखने योग्य खास बातें
- कुंडली से सर्व दोष हटाने निष्फल करने वाले
- केतू ग्रह का प्रभाव
- तनाव से खराब होते रिश्ते
- राहु ग्रह के गुण अवगुण
- दशाओं का प्रभाव -
- वशीकरण के अचूक उपाय
- धन प्रदान और कार्य सिद्ध वस्तुऐ
- माता बगलामुखी देवी साधना के मंत्र
- ग्रह दोष स्वयं पहचाने और उपाय करें।
- श्री कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र – प्रयोग
- कैसे प्राप्त होती है। भूतप्रेतों की योनि
- यदि जीवन में निरंतर समस्याए आ रही है।
- दुर्गा सप्तशती पाठ-अद्भुत शक्तियां प्रदान करता है।
- जैमिनी ज्योतिष पद्धति
- मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं।
- बटुक भैरव साधना
- बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है।
- सभी राशियों के लिये शनि साढेसाती उपाय
- शकुन हमारे भविष्य में होने वाली घटना का संकेत देते हैं।
- शत्रु नाशक प्रमाणिक प्रयोग
- पंचमुखी हनुमान साधना
- वैदिक शिव पूजन पद्धति
- यदि व्यवसाय अगर आपके व्यापार में मंदी आ गयी है।
- तंत्र में समस्याओं का समाधान
- ज्योतिष क्यों ? Why Astrology ?
- भैरव-सर्वस्व’ / ‘काल-संकर्षण तन्त्र’ से उद्धृत)
- महाकाली भगवती कालिका
- कालसर्प दोष निवारण उपाय
पंचमुखी हनुमान साधना
पंचमुखी हनुमान
‘‘भूत पिशाच निकट नहीं आवै। महावीर जब नाम सुनावै।’’
भूत-प्रेत-पिशाच आदि निकृष्ट अशरीरी आत्माओं से मुक्ति के उपायों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं इनसे संबंधित मंत्रों का एक बड़ा भाग हनुमान जी को ही समर्पित है। ऊपरी बाधा दूर करने वाले शाबर मन्त्रों से लेकर वैदिक मन्त्रों में हनुमान जी का नाम बार-बार आता है।
वैसे तो हनुमान जी के कई रूपों का वर्णन तंत्रशास्त्र में मिलता है जैसे – एकमुखी हनुमान, पंचमुखी हनुमान, सप्तमुखी हनुमान तथा एकादशमुखी हनुमान।
परंतु ऊपरी बाधा निवारण की दृष्टि से पंचमुखी हनुमान की उपासना चमत्कारिक और शीघ्रफलदायक मानी गई है।
पंचमुखी हनुमान जी के स्वरूप में वानर, सिंह, गरुड़, वराह तथा अश्व मुख सम्मिलित हैं और इनसे ये पाँचों मुख तंत्रशास्त्र की समस्त क्रियाओं यथा मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि के साथ-साथ सभी प्रकार की ऊपरी बाधाओं को दूर करने में सिद्ध माने गए हैं।
किसी भी प्रकार की ऊपरी बाधा होने की शंका होने पर पंचमुखी हनुमान यन्त्र तथा पंचमुखी हनुमान लाॅकेट को प्राणप्रतिष्ठित कर धारण करने से समस्या से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है।
प्राण-प्रतिष्ठा: पंचमुखी हनुमान जी की प्रतिमा या चित्र, यंत्र तथा लाॅकेट का पंचोपचार पूजन करें तथा उसके बाद समुचित विधि द्वारा उपरोक्त सामग्री को प्राणप्रतिष्ठित कर लें। प्राणप्रतिष्ठित यंत्र को पूजन स्थान पर रखें तथा लाॅकेट को धारण करें।
उपरोक्त अनुष्ठान को किसी भी मंगलवार के दिन किया जा सकता है। उपरोक्त विधि अपने चमत्कारपूर्ण प्रभाव तथा अचूकता के लिए तंत्रशास्त्र में दीर्घकाल से प्रतिष्ठित है। श्रद्धापूर्वक किया गया उपरोक्त अनुष्ठान हर प्रकार की ऊपरी बाधा से मुक्ति प्रदान करता है।
2…श्री हनुमान जी के चमत्कारी बारह नाम
हनुमानजी के बारह नामों की महिमा
हनुमान जी के बारह नाम का स्मरण करने से ना सिर्फ उम्र में वृद्धि होती है बल्कि समस्त सांसारिक
सुखों की प्राप्ति भी होती है। बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्तिकी श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश-पाताल से रक्षा करते हैं।प्रस्तुत है केसरीनंदन बजरंग बली के 12 चमत्कारी और असरकारी नाम :
हनुमान जी के 12 असरकारी नाम
1 ॐ हनुमान
2 ॐ अंजनी सुत
3 ॐ वायु पुत्र
4 ॐ महाबल
5 ॐ रामेष्ठ
6 ॐ फाल्गुण सखा
7 ॐ पिंगाक्ष
8 ॐ अमित विक्रम
9 ॐ उदधिक्रमण
10 ॐ सीता शोक विनाशन
11 ॐ लक्ष्मण प्राण दाता
12 ॐ दशग्रीव दर्पहा
नाम की अलौकिक महिमा
- प्रात: काल सो कर उठते ही जिस अवस्था में भी हो बारह नामों को 11 बार लेनेवाला व्यक्ति दीर्घायु होता है।
- नित्य नियम के समय नाम लेने से इष्ट की प्राप्ति होती है।
- दोपहर में नाम लेनेवाला व्यक्ति धनवान होता है। दोपहर संध्या के समय नाम लेनेवाला व्यक्ति पारिवारिक सुखों से तृप्त होता है।
- रात्रि को सोते समय नाम लेनेवाले व्यक्ति की शत्रु से जीत होती है।
- उपरोक्त समय के अतिरिक्त इन बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्तिकी श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश पाताल से रक्षा करते हैं।
- लाल स्याही से मंगलवार को भोजपत्र पर ये बारह नाम लिखकर मंगलवार के दिनही ताबीज बांधने से कभी सिरदर्द नहीं होता। गले या बाजू में तांबे काताबीज ज्यादा उत्तम है। भोजपत्र पर लिखने के काम आनेवाला पेन नया होनाचाहिए।
3…◄श्रीहनुमान् माला मन्त्र►
श्री हनुमान जी के सम्मुख इस मंत्र के 51 पाठ करें और भोजपत्र पर इस मंत्रको लिखकर पास में रख लें तो सभी कार्यों में सिद्धि मिलती है ।
“
ॐ वज्र-काय वज्र-तुण्ड कपिल-पिंगल ऊर्ध्व-केश महावीर सु-रक्त-मुखतडिज्जिह्व महा-रौद्र दंष्ट्रोत्कट कह-कह करालिने महा-दृढ़-प्रहारिनलंकेश्वर-वधाय महा-सेतु-बंध-महा-शैल-प्रवाह-गगने-चर एह्येहिं भगवन्महा-बल-पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घ-पुच्छेन वेष्टय वैरिणं भंजय भंजय हुँ फट् ।।”
श्री हनुमान जी सदा सहाय ।
।। जय श्री राम ।।
।। जय जय हनुमान ।।..
4…हनुमान बजरंग बाण
इस संसार में अगर हम भगवान के अस्तित्व कोमानते हैं तो इसके साथ हमें बुरी आत्माओं का डर भी होता है. यही डर हमेंकई बार इतना सताने लगता है कि हमें जिंदगी से भी डर लगने लगता है. लेकिनकहते हैं ना हर दर्द की एक दवा होती है, उसी तरह आपके डर की भी दवा है. डर और भय को दूर भगाने का सबसे अच्छा उपाय है बजरंग बाण.
भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये बजरंग बाण केअमोघास्त्र का विलक्षण प्रयोग किया जाता है. कहा जाता है कि बजरंग बाण कापाठ करने से बड़ी से बड़ी परेशानी भी दूर हो जाती है.
बजरंग बाण का जप और पाठ मंगलवार या शनिवार के दिन शुरुकरें.इस दिन यथाशक्ति हनुमान कृपा और शनिदेव की प्रसन्नता के लिए व्रत भीरख सकते हैं. बजरंग बाण के नित्य पाठ से व्यक्ति केतन, मन और धन से जुड़े सभी कलह और संताप दूर होते हैं और भौतिक सुखप्राप्त होते हैं.
दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।
चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।
दोहा
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।
5…अब सर्वेष्टसिद्धि के लिए हनुमान जी के मन्त्रों को कहता हूँ -
इन्द्रस्वर (औं) और इन्दु (अनुस्वार) इन दोनों के साथ वराह (ह्) अर्थात् (हौं), यह प्रथम बीज है । फिर झिण्टीश (ए) बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् फ् औरअग्नि (र्) अर्थात (ह्स्फ्रें), यह द्वितीय बीज कहा गया है । रुद्र (ए) एवंबिन्दु अनुस्वार सहित गदी (ख्) पान्त (फ्) तथा अग्नि (र्) अर्थात् (ख्फ्रें), यह तृतीय बीज है । मनु (औ), चन्द्र (अनुस्वार) सहित ह् स् र्अर्थात् (ह्स्त्रौं), यह चतुर्थ बीज है । शिव (ए) एवं बिन्दु (अनुस्वार)सहित ह् स् ख् फ् तथा र अर्थात (ह्ख्फ्रें), यह पञ्चम बीज है । मनु (औ)इन्दु अनुस्वार सहित ह् तथा स् अर्थात् (ह्सौं), यह षष्ठ बीज है । इसके बादचतुर्थ्यन्त हनुमान् (हनुमते) फिर अन्त में हार्द (नमः) लगाने से १२अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥१-२॥
द्वादशाक्षर हनुमत् मन्त्र कास्वरुप इस प्रकार है – १. हौं २. ह्स्फ्रें, ३. ख्फ्रें, ४. ह्स्त्रौं ५.ह्स्ख्फ्रें ६., हनुमते नमः (१२) ॥३॥
इस मन्त्र के रामचन्द्र ऋषि हैं, जगती छन्द है, हनुमान् देवता है तथा षष्ठ ह्सौं बीज है, द्वितीय ह्स्फ्रें शक्ति माना गया है ॥४-५॥
विनिर्श – विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ अस्य श्रीहनुमन्मन्त्रस्यरामचन्द्र ऋषिः जगतीछन्दः हनुमान् देवता ह्स्ॐ बीजं ह्स्फ्रें शक्तिःआत्मनोऽभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः; ॥४-५॥
अब षडङ्ग एवंवर्णन्यास कहते हैं – ऊपर कहे गये मन्त्र के छः बीजाक्षरों से षडङ्गन्यासकरना चाहिए । फिर मन्त्र के एक एक वर्ण का क्रमशः १. शिर, २. ललाट, ३.नेत्र, ४. मुख, ५. कण्ठ, ६. दोनो हाथ, ७. हृदय, ८. दोनों कुक्षि, ९. नाभि, १०. लिङ्ग ११. दोनों जानु, एवं १२. पैरों में, इस प्रकार १२ स्थानों में १२वर्णों का न्यास करना चाहिए ॥५-६॥
विमर्श – षडङ्गन्यास का प्रकार -
हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, ह्स्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट, ह्स्ॐ अस्त्राय फट् ।
वर्णन्यास -
हौं नमः मूर्ध्नि, ह्ख्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः नेत्रयोः,
हं नमः हृदि, नुं नमः कुक्ष्योः मं नमः नाभौ,
ते नमः लिङ्गे नं नमः जान्वोः, मं नमः पादयोः ॥५-६॥
अब पदन्यास कहते हैं – ६ बीजों एवं दोनों पदों का क्रमशः शिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, ऊरु जंघा, एवं पैरों में न्यास करना चाहिए ॥७॥
विमर्श – हौं नमः मूर्ध्नि, हस्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः मुखे,
ह्स्त्रौ नमः हृदि, ह्स्ख्फ्रें नमः नाभौ, ह्सौं नमः ऊर्वोः,
हनुमते नमः जंघयोः, नमः नमः पादयोः ॥७॥
अबध्यान कहते है – उदीयमान सूर्य के समान कान्ति से युक्त, तीनों लोको कोक्षोभित करने वाले, सुन्दर, सुग्रीव आदि समस्त वानर समुदायोम से सेव्यमानचरणों वाले, अपने भयंकर सिंहनाद से राक्षस समुदायों को भयभीत करने वाले, श्री राम के चरणारविन्दों का स्मरण करने वाले हनुमान् जी का मैं ध्यान करताहूँ ॥८॥
इस प्रकार ध्यान कर अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करसाधक बारह हजार की संख्या में जप करे तथा दूध, दही, एवं घी मिश्रित व्रीहि (धान) से उसका दशांश होम करे ॥९॥
विमला आदि शक्तियों से युक्त पीठ पर श्री हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए ॥१०॥
विमर्श – प्रथम वृत्ताकारकर्णिका,फिर अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र का निर्माणकरे । फिर १३. ८ श्लोक में वर्णित हनुमान् जी के स्वरुप का ध्यान करमानसोपचार से पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । फिर ९. ७२.७८ में वर्णित विधिसे वैष्णव पीठ पर उनका पूजन करे । यथा – पीठमध्ये-
ॐ आधारशक्तये नमः, ॐ प्रकृत्यै नमः, ॐ कूर्माय नमः,
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,
ॐ मणिवेदिकायै नम्ह, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,
तदनन्तर आग्नेयादि कोणों में धर्म आदि का तथा दिशाओं में अधर्म आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ धर्माय नमः, आग्नेये, ॐ ज्ञानाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये, ॐ ऐश्वर्याय नमः ऐशान्ये,
ॐ अधर्माय नमः पूर्वे, ॐ अज्ञानाय नमः, दक्षिणे,
ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे, ॐ अनैश्वर्याय नमः, उत्तरे,
पुनः पीठ के मध्य में अनन्त आदि का-
ॐ अनन्ताय नमः,
ॐ पद्माय नमः,
ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः
ॐ उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः,
ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः
ॐ सं सत्त्वाय नमः,
ॐ रं रजसे नमः,
ॐ तं तमसे नमः,
ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मने नमः,
ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः, पूर्वे
केशरों के ८ दिशाओं में तथा मध्य में विमला आदि शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए -
ॐ विमलायै नमः, ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, ॐ ज्ञानायै नमः,
ॐ क्रियायै नमः, ॐ योगायै नमः, ॐ प्रहव्यै नमः,
ॐ सत्यायै नमः, ॐ ईशानायै नमः ॐ अनुग्रहायै नमः ।
तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्पीठात्मने नमः’ (द्र० ९.७३-७४) इस पीठ मन्त्र से पीठ को पूजित कर पीठ पर आसन ध्यान आवाहनादिउपचारों से हनुमान् जी का पूजन कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करनीचाहिए । तदनन्तर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१०॥
अबआवरण पूजा का विधान कहते हैं – सर्वप्रथम केसरों में अङ्गपूजा तथा दलों परतत्तन्नामोम द्वारा हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए । रामभक्त महातेजा, कपिराज, महाबल, दोणाद्रिहारक, मेरुपीठकार्चनकारक, दक्षिणाशाभास्कर तथासर्वविघ्ननिवारक ये ८ उनके नाम हैं । नामों से पूजन करने बाद दलों केअग्रभाग में सुग्रीव, अंगद, नील, जाम्बवन्त, नल, सुषेण, द्विविद और मयन्दये ८ वानर है । तदनन्तर दिक्पालोम का भी पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥
विमर्श – आवरण पूजा विधि – प्रथम केसरों में आग्नेयादि क्रम से
अङ्ग्पूजा यथा – हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, हस्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्स्ॐ अस्त्राय फट्,
फिर दलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से नाम मन्त्रों से -
ॐ रामभक्ताय नमः, ॐ महातेजसे नमः, ॐ कपिराजाय नमः,
ॐ महाबलाय नमः, ॐ द्रोणादिहारकाय नमः, ॐ मेरुपीठकार्चनकारकाय नमः,
ॐ दक्षिणाशाभास्कराय नमः, ॐ सर्वविघ्ननिवारकाय नमः ।
तदनन्तर दलों के अग्रभाग पर सुग्रीवादि की पूर्वादि क्रम से यथा -
ॐ सुग्रीवाय नमः, ॐ अंगदाय नमः, ॐ नीलाय नमः,
ॐ जाम्बवन्ताय नमः, ॐ नलाय नमः, ॐ सुषेणाय नमः,
ॐ द्विविदाय नमः, ॐ मैन्दाय नमः,
फिर भूपुर में पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दिक्पालों की यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः, पूर्वे, ॐ रं अग्नयेः आग्नेये,
ॐ यं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋत्ये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः, पश्चिमे, ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्रह्मणे नमः पूर्वैशानयोर्मध्ये,
ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये
इस प्रकार आवरण पूजा कर मूलमन्त्र से पुनः हनुमान् जी का धूप, दीपादि उपचारों से पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥
अब काम्य प्रयोग कहते है – इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपना या दूसरों का अभीष्ट कार्य करे ॥१४॥
केला, बिजौरा, आम्रफलों से एक हजार आहुतियाँ दे और २२ ब्रह्मचारी ब्राह्मणों कोभोजन करावे । ऐसा करने से महाभूत, विष, चोरों आदि के उपद्रव नष्ट हो जातेहैं । इतना ही नहीं विद्वेष करने वाले, ग्रह और दानव भी ऐसा करने नष्ट होजाते है ॥१४-१६॥
१०८ बार मन्त्र से अभिमन्त्रित जल विष को नष्ट करदेता है । जो व्यक्ति रात्रि में १० दिन पर्यन्त ८०० की संख्या में इसमन्त्र का जप करत है उसका राजभय तथा शत्रुभय से छुटकारा हो जाता है ।अभिचार जन्य तथा भूतजन्य ज्वर में इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल या भस्मद्वारा क्रोधपूर्वक ज्वरग्रस्त रोगी को प्रताडित करना चाहिए । ऐसा करने सेवह तीन दिन के भीतर ज्वरमुक्त हो कर सुखी हो जाता है । इस मन्त्र सेअभिमन्त्रित औषधि खाने से निश्चित रुप से आरोग्य की प्राप्ति हो जाती है॥१६-१९॥
इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पीकर तथा इस मन्त्र को जपतेहुये अपने शरीर में भस्म लगाकर जो व्यक्ति इस मन्त्र का जप करते हुयेरणभूमि में जाता हैं,युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र समुदाय उस को कोईबाधा नहीं पहुँचा सकते ॥२०॥
चाहे शस्त्र का घाव हो अथवा अन्य प्रकारका घाव हो, शोध अथवा लूता आदि चर्मरोग एवं फोडे फुन्सियाँ इस मन्त्र से ३बार अभिमन्त्रित भस्म के लगाने से शीघ्र ही सूख जाती हैं ॥२१॥
अपनीइन्द्रियों को वश में कर साधक को सूर्यास्त से ले कर सूर्योदय पर्यन्त ७दिन कील एवं भस्म ले कर इस मन्त्र का जप करन चाहिए । फिर शत्रुओं को बिनाजनाये उस भस्म को एवं कीलों को शत्रु के दरवाजे पर गाड दे तो ऐसा करने सेशत्रु परस्पर झगड कर शीघ्र ही स्वयं भाग जाते हैं ॥२२-२३॥
अपने शरीरपर लगाये गये चन्दन के साथ इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल एवं भस्म कोखाद्यान्न के साथ मिलाकर खिलाने से खाने वाला व्यक्ति दास हो जाता है ।इतना ही नहीं ऐसा करने से क्रूर जानवर भी वश में हो जाते हैं ॥२४-२५॥
करञ्जवृक्ष के ईशानकोण की जड ले कर उससे हनुमान् जी की प्रतिमा निर्माण कराकरप्राणप्रतिष्ठा कर सिन्दूर से लेपकर इस मन्त्र का जप करते हुये उसे घर केदरवाजे पर गाड देनी चाहिए । ऐसा करने से उस घर में भूत, अभिचार, चोर, अग्नि, विष, रोग, तथा नृप जन्य उपद्रव कभी भी नहीं होते और घर में प्रतिदिनधन, पुत्रादि की अभिवृद्धि होती हैं ॥२५-२८॥
मारण प्रयोग – रात्रिमें श्मशान भूमि की मिट्टी या भस्म से शत्रु की प्रतिमा बनाकर हृदय स्थानमें उसक नाम लिखना चाहिए । फिर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर, मन्त्र के बादशत्रु का नाम, फिर छिन्धि भिन्धि एवं मारय लगाकर उसका जप करते हुये शस्त्रद्वारा उसे टुकडे -टुकडे कर देना चाहिए । फिर होठों को दाँतों के नीचे दबाकर हथेलियों से उसे मसल देना चाहिए । तदनन्तर उसे वहीं छोडकर अपन घर आ जानाचाहिए । ७ दिन तक ऐसा लगातार करते रहने से भगवान् शिव द्वारा रक्षित भीशत्रु मर जाता है ॥२९-३२॥
श्मशान स्थान में अपने केशों को खोलकरअर्धचन्द्राकृति वाले कुण्ड में अथवा स्थाण्डिल (वेदी) पर राई नमक मिश्रितधतूर के फल, उसके पुष्प, कौवा उल्लू एवं गीध के नाखून, रोम और पंखों से तथाविष से लिसोडा एवं बहेडा की समिधा में दक्षिणाभिमुख हो रात में एक सप्ताहपर्यन्त निरन्तर होम करने से उद्धत शत्रु भी मर जाता है ॥३२-३५॥
इसकेबाद बेताल सिद्धि का प्रयोग कहते हैं – श्मशान में रात्रि के समय लगातारतीन दिन तक प्रतिदिन ६०० की संख्या में इस मूल मन्त्र का जप करते रहने सेबेताल खडा हो कर साधक का दास बन जाता है और भविष्य में होने वाले शुभ अथवाघटनाओम को तथा अन्य प्रकार की शंकाओं की भी साफ साफ कह देता है ॥३५-३६॥
साधकहनुमान् जी की प्रतिमा के सामने साध्य का द्वितीयान्त नाम, फिर ‘विमोचयविमोचय’ पद, तदनन्तर, मूल मन्त्र लिखे । फिर उसे बायें हाथ से मिटा देवे, यह लिखने और मिटाने की प्रक्रियाः पुनः पुनः करते रहना चाहिए । इस प्रकारएक सौ आठ बार लिखते मिटाते रहने से बन्दी शीघ्र ही हथकडी और बेडी से मुक्तहो जाता है । हनुमान् जी के पैरों के नीचे ‘अमुकं विद्वेषय विद्वेषय’ लगाकरविद्वेषण करे, ‘अमुकं उच्चाटय उच्चाटय’ लगाकर उच्चाटन करे तथा ‘मारय मारय’ लगाकर मारण का भी प्रयोग किया जा सकता है ॥३७-३९॥
विमर्श – बिना गुरु के मारन एवं विद्वेषण आदि प्रयोगों को करने से स्वयं पर ही आघात हो जाता है ॥३७-३९॥
अबविविध कामनाओं में होम का विधान कहते हैं – वश्य कर्म में सरसों से, विद्वेष में कनेर के पुष्प, लकडियों से, अथवा जीरा एवं काली मिर्च से भीहोम करना चाहिए ॥४०॥
ज्वर में दूर्वा, गुडूची, दही, घृत, दूध से तथाशूल में कुवेराक्ष (षांढर) एवं रेडी की समिधाओं से अथवा तेल में डुबोई गईनिर्गुण्डी की समिधाओं से प्रयत्नपूर्वक होम करना चाहिए । सौभाग्य प्राप्तिके लिए चन्दन, कपूर, गोरोचन, इलायची, और लौंग से वस्त्र प्राप्ति के लिएसुगन्धित पुष्पों से तथा धान्य वृद्धि के लिए धान्य से ही होम करना चाहिए ।शत्रु की मृत्यु के लिए उसके परि की मिट्टी राई और नमक मिलाकर होम करने सेउसकी मृत्यु हो जाती है ॥४१-४३॥
अब इस विषय में हम बहुत क्या कहें -सिद्ध किया हुआ यह मन्त्र मनुष्योम को विष, व्याधि, शान्ति, मोहन, मारण, विवाद, स्तम्भन, द्यूत, भूतभय संकट, वशीकरण, युद्ध, राजद्वार, संग्राम एवंचौरादि द्वारा संकट उपस्थित होने पर निश्चित रुप से इष्टसिद्धि प्रदान करताहै ॥४४-४५॥
अब धारण के लिए हनुमान जी के सर्वसिद्धिदायक यन्त्र को कहता हूँ -
पुच्छके आकार समान तीन वलय (घेरा) बनाना चाहिए । उसके बीच में धारण करन वालेसाध्य का नाम लिखकर दूसरे घेरे में पाश बीज (आं) लिखकर उसे वेष्टित कर देनाचाहिए । फिर वलय के ऊपर अष्टदल बनाकर पत्रों में वर्म बीज (हुम्) लिखनाचाहिए । फिर उसके बाहर वृत्त बनाकर उसके ऊपर चौकोर चतुरस्त्र लिखना चाहिए ।फिर चतुरस्त्र के चारो भुजाओं के अग्रभाग में दोनों ओर त्रिशूल का चिन्हबनाना चाहिए । तत्पश्चात भूपुर के अष्ट वज्रों (चारों दिशाओं, चारोम कोणों)में ह्सौं यह बीज लिखना चाहिए । फिर कोणों पर अंकुश बीज (क्रों) लिखकर उसचतुरस्त्र को वक्ष्यमाण मालामन्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए । तत्पश्चातसारे मन्त्रों को तीन वलयोम (गोलाकार घेरों) से वेष्टित कर देना चाहिए॥४६-५०॥
यह यन्त्र, वस्त्र, शिला, काष्ठफलक, ताम्रपत्र, दीवार, भोजपत्र या ताडपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुंकुम (केशर) से लिखना चाहिए ।साधक उपवास तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये मन्त्र में हनुमान् जी कीप्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् उसका पूजन करे । सभी प्रकार के दुःखों सेछुटकारा पाने के लिए यह यन्त्र स्वयं भी धारण करना चाहिए ॥५०-५२॥
उक्तलिखित यन्त्र ज्वर, शत्रु, एवं अभिचार जन्य बाधाओं को नष्ट करता है तथासभी प्रकार के उपरद्रवों को शान्त करता है । किं बहुना स्त्रियों तथाबच्चों द्वारा धारण करने पर यह उनका भी कल्याण करता है ॥५३॥
विमर्श – इस धारण यन्त्र को चित्र के अनुसार बनाना चाहिए । तदनन्तर उसमें हनुमान्जी की प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् पूजन कर पहनना चाहिए ॥५३॥
अब ऊपरप्रतिज्ञात माला मन्त्र का उद्धार कहते हैं – प्रथम प्रणव (ॐ), वाग् (ऐं), हरिप्रिया (श्रीं), फिर दीर्घत्रय सहित माया (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिरपूर्वोक्त पाँच कूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं) तथातार (ॐ), फिर ‘नमो हनुमते प्रकट’ के बाद ‘पराक्रम आक्रान्तदिङ्मण्डलयशोवि’ फिर ‘तान’ कहना चाहिए, फिर ‘ध्वलीकृत’ पद के बाद ‘जगत्त्रितय और ‘वज्र’ कहना चाहिए । फिर ‘देहज्वलदग्निसूर्यकोटि’ के बाद ‘समप्रभतनूरुहरुद्रवतार’, इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘लंकापुरी दह’ के बाद ‘नोदधिलंघन’, फिर ‘दशग्रीवशिरः कृतान्तक सीताश्वासनवायु’, के बाद ‘सुतं’ शब्द कहना चाहिए ॥५४-५८॥
फिर ‘अञ्जनागर्भसंभूत श्रीरामलक्ष्मणानन्दक’, फिर ‘रकपि’, ‘सैन्यप्राकार’, फिर ‘सुग्रीवसख्यका’ केबाद ‘रणबालिनिबर्हण कारण द्रोणपर्व’ के बाद ‘तोत्पाटन’ इतना कहना चाहिए ।फिर ‘अशोक वन वि’ के बाद, ‘दारणाक्षकुमारकच्छेदन’ के बाद फिर ‘वन’ शब्द, फिर ‘रक्षाकरसमूहविभञ्जन’, फिर ‘ब्रह्मारस्त्र ब्रह्मशक्ति ग्रस’ और ‘नलक्ष्मण’ के बाद ‘शक्तिभेदनिवारण’ तथा ‘विशलौषधि’ वर्ण के बाद ‘समानयनबालोदितभानु’, फिर ‘मण्डलग्रसन’ के बाद ‘मेघनाद होम’ फिर ‘विध वंसन’ यह पदबोलना चाहिए । फिर ‘इन्द्रजिद्वधकार’ के बाद, ‘णसीतारक्षक राक्षसीसंघ’, विदारण’, फिर ‘कुम्भकर्णादिवध’ शब्दो के बाद, ‘परायण’, यह पद बोलना चाहिए ।फिर ‘श्री रामभक्ति’ के बाद ‘तत्पर-समुद्र-व्योम द्रुमलंघनमहासामर्घमहातेजःपुञ्जविराजमान’ स्बद, तथा ‘स्वामिवचसंपादितार्जुन’ के बाद ‘संयुगसहाय’ एवं ‘कुमार ब्रह्मचारिन्’ पद कहना चाहिए । फिर ‘गम्भीरशब्दो’ के बाद अत्रि (द), वायु(य) , फिर ‘दक्षिणाशा’, पद, तथा ‘मार्तण्डमेरु’ शब्न्द के बाद ‘पर्वत’ शब्द कहना चाहिए । फिर ‘पीठेकार्चन’ शब्द के बाद ‘सकल मन्त्रागमार्चाय मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन और ‘सर्वविषविनाशनसर्वापत्ति निवारण सर्वदुष्ट’ इतना पढना चाहिए । फिर ‘निबर्हण’ पद, तथा ‘सर्वव्याघ्रादिभय’, उसके बाद ‘निवारण सर्वशत्रुच्छेदन मम परस्य च त्रिभुवनपुंस्त्रीनपुंसकात्मकं सर्वजीव’ पद के बाद ‘जातं’, फिर ‘वशय’ यह पद दोबार, फिर ‘ममाज्ञाकारक’ के बाद दो बार ‘संपादय’, फिर ‘नाना नाम’ शब्द, फिर ‘धेयान् सर्वान् राज्ञः स” इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘परिवारन्मम सेवकान्’ फिर दो बार ‘कुरु’, फिर ‘सर्वशस्त्रास्त्र वि’ के बाद ‘षाणि’, तदनन्तर दोबार ‘विध्वंसय’ फिर दीर्घत्रयान्विता माया (ह्रां ह्रीं ह्रूँ), फिर हात्रय (हा हा हा) एहि युग्म (एह्येहि), विलोमक्रम से पञ्चकूट (ह्सौं ह्स्ख्फ्रेंह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्स्फ्रें) और फिर ‘सर्वशत्रून’, तदनन्तर दो बार हन (हनहन), फिर ‘परद’ के बाद ‘लानि परसैन्यानि’, फिर क्षोभय यह पद दो बार (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘मम सर्वकार्यजातं’ तथा २ बार कीलय (कीलय कीलय), फिरघेत्रय (घे घे घे), फिर हात्रय (हा हा हा), वर्म त्रितय (हुं हुं हुं), फिर३ बार फट् और इसके अन्त में वह्रिप्रिया, (स्वाहा) लगाने सेसर्वाभीष्टकारक ५८८ अक्षरों का हनुन्माला मन्त्र बनता है । महान् से महान्उपद्रव होने पर मन्त्र के जप से सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं ॥५४-७९॥
विमर्श – हनुमन्माला मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रींह्रूं ह्स्फ्रें ह्स्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॐ नमो हनुमते प्रकटपराकरमआक्रान्त दिङ्मतण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह ज्वलदन्गिसूर्यकोटि समप्रभतनूरुह रुद्रावतार लंकापुरीदहनोदधिलंघनदशग्रीवशिरःकृतान्तक सीताश्वासन वायुसुत अञ्जनागर्भसंभूतश्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसख्यकारण बालिनिबर्हण-कारणद्रोणपर्वतोत्पाटन अशोकवनविदारण अक्षकुमारकच्छेदन वनरक्षाकरसमूहविभञ्जनब्रह्यास्त्रब्रह्यशक्तिग्रसन लक्ष्मणशक्तिभेदेनिवारण विशल्यौषधिसमानयनबालोदितभानुमण्डलग्रसन मेघनादहोमविध्वंसन इन्द्राजिद्वधकाराण सीतारक्षकराक्षासंघविदारण कुम्भकर्णादि-वधपरायण श्रीरामभक्तितत्परसमुद्रव्योमद्रुमलंघन महासामर्घ्य महातेजःपुञ्जविराजमान स्वामिवचनसंपादितअर्जुअनसंयुगसहाय कुमारब्रह्मचारिन् गम्भीरशब्दोदय दक्षिणाशामार्तण्डमेरुपर्वतपीठेकार्चन सकलमन्त्रागमाचार्य मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटनसर्वविषविनाशन सर्वापत्तिनिवारण सर्वदुष्टनिबर्हण सर्वव्याघ्रादिभयनिवारणसर्वशत्रुच्छेदन प्रम परस्य च त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकसर्वजीवजातंवशय वशय मम आज्ञाकारक्म संपादय संपादय नानानामध्येयान् सर्वान् राज्ञःसपरिवारान् मम सेवकान् कुरु कुरु सर्वशस्त्रास्त्रविषाणि विध्वंसय विध्वंसयह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रां ह्रां एहि एहि ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौंख्फ्रें ह्सफ्रें सर्वशत्रून हन हन परदलानि परसैन्यानि क्षोभय क्षोभय ममसर्वकार्यजातं साधय साधय सर्वदुष्टदुर्जनमुखानि कीलय कीलय घे घे घे हा हाहा हुं हुं हुं फट् फट् फट् स्वाहा – मालामन्त्रोऽयमष्टाशीत्याधिकपञ्चशतवर्णः; ॥५४-७९॥
पूर्व में कहे गये द्वादशाक्षर मन्त्र (द्र०१३. १ – ३) के अन्तिम ६ वर्णों को (हनुमते नमः) तथा प्रारम्भ के एक वर्ण हौको छोडकर जो पञ्च कूटात्मक मन्त्र बनता है वह साधक के सर्वाभीष्ट को पूर्णकर देता है ॥८०॥
विमर्श – पञ्चकूट का स्वरुप – ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॥८०॥
इस मन्त्र के राम ऋषि, गायत्री छन्द तथा कपीश्वर देवता हैं ॥८१॥
विमर्श – विनियोगः – अस्य श्रीहनुमत पञ्चकूट मन्त्रस्य रामचन्द्रऋषिःगायत्रीच्छन्दः कपीश्वरो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥८१॥
पञ्चकूटात्मकबीज तथा समस्त मन्त्रों के क्रमशः – हनुमते रामदूताय लक्ष्मण प्राणदात्रेअञ्जनासुताय सीताशोकविनाशाय, लंकाप्रासादभञ्जनाय रुप चतुर्थ्यन्त शब्दों कोप्रारम्भ में लगाने से इस मन्त्र का षडङ्गन्यास मन्त्र बन जाता है । इसमन्त्र का ध्यान (द्र०१३. ८) तथा पूजापद्धति (द्र १३. १०-१३) पूर्ववत् है॥८१-८३॥
विमर्श – षडङ्गन्यासं- ह्स्फ्रें हनुमते हृदयाय नमः,
ख्फें रामदूताय शिरसे स्वाहा, ह्स्त्रौं लक्ष्मणप्राणदात्रे शिखायै वषट्,
ह्स्ख्फ्रें अञ्जनासुताय कवचाय हुम्, ह्सौं सीताशोक विनाशाय नेत्रत्रयाय वौषट्,
ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्स्ख्फ्रें ह्सौं लंकाप्रासादभञ्जनाय अस्त्राय फट् ॥८१-८३॥
तार (ॐ), वाक् (ऐं), कमला (श्रीं), माया दीर्घत्रयाद्या (ह्रां ह्रीं हूँ), तथा पञ्चकूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्सौं) लगाने से ११ अक्षरों काअभीष्ट सिद्धिदायक मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का ध्यान तथा पूजा पद्धति (१३. ८, १३. १०-१३) पूर्ववत हैं ॥८४-८५॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुपइस प्रकार है – ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐह्स्ख्फ्रें ह्स्ॐ (११) ॥८४-८५॥
अब इस मन्त्र के अतिरिक्त अन्यमन्त्र कहते हैं – नम, फिर भगवान् आञ्जनेय तथा महाबल का चतुर्थ्यन्त (भगवते, आञ्जनेयाय महाबलाय), इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने सेअष्टादशाक्षर अन्य मन्त्र बन जाता है ॥८५-८६॥
अष्टादशाक्षार मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥८५-८६॥
विनियोगएवं न्यास – उपर्युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र के ईश्वर ऋषि हैं, अनुष्टुप्छन्द है, और हनुमान् देवता हैम, हुं बीज तथा अग्निप्रिया (स्वाहा) शक्तिहैं ॥८६-८७॥
आञ्जनेय, रुद्रमूर्ति, वायुपुत्र, अग्निगर्भ, रामदूततथा ब्रह्मस्त्रविनिवारन इनमें चतुर्थ्यन्त लगाकर षडङ्गन्यास कर कपीश्वर काइस प्रकार ध्यान करना चाहिए ॥८७-८८॥
विमर्श – विनियोग- अस्यश्रीहनुमन्मन्त्रस्य ईश्वरऋषिरनुष्टुप् छन्दः हनुमान् देवता हुं बीजंस्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जप विनियोगः ।
षडङ्गन्यास विधि – ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः,
रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा, ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः, अग्निगर्भाय कवचाय हुम्
रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ब्रह्मास्त्रविनिवारणाय अस्त्राय फट् ॥८७-८८॥
अबउक्त मन्त्र का ध्यान कहते हैं – मैम तपाये गये सुवर्ण के समान, जगमगातेहुये, भय को दूर करने वाले, हृदय पर अञ्जलि बाँधे हुये, कानों में लटकतेकुण्डलों से शोभायमान मुख कमल वाले, अद्भुत स्वरुप वाले वानरराज को प्रणामकरता हूँ ॥८९॥
पुरश्चरण – इस मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए ।तदनन्तर तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए । वैष्णव पीठ पर कपीश्वर कापूजन करना चाहिए । पीठ पूजा तथा आवरण पूजा (१३.१०-०१३) श्लोक में द्रष्टव्यहै ॥९०॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं – साधक इस मन्त्र के अनुष्ठानकरते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में भोजन करे । जो साधकव्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है वहतीन दिन मे ही क्षुद्र रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवंपिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए ।किन्तु असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एकहजार की संख्या में जप आवश्यक है ॥९१-९२॥
नियमित एक समय हविष्यान्नभोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान करप्रतिदिन १० हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजयप्राप्त कर लेता है ॥९३॥
सुग्रीव के साथ राम की मित्रता कराये हुयेकपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने सेशत्रुओं के साथ सन्धि करायी जा सकती है ॥९४॥
लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है, उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं ॥९५॥
जोसाधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआयात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है ॥९६॥
जोव्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जपकरता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आपनष्ट हो जाते है ॥९७॥
इस मन्त्र के जप से साधक की व्याघ्रादि हिंसकजन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहींसोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुःस्वप्नभी दिखाई नहीं देते ॥९८॥
अब प्लीहादिउदररोगनाशक मन्त्र का उद्धारकहते हैं – ध्रुव (ॐ), फिर सद्योजात (ओ) सहिन पवनद्वय (य) अर्थात् ‘योयो’, फिर ‘हनू’ पद, फिर ‘शशांक’ (अनुस्वार) सहित महाकाल (मं), कामिका (त)तथा ‘फलक’, पद, फिर सनेत्रा क्रिया (लि), णान्त (त), मीन (ध) एवं ‘ग’ वर्ण, फिर ‘सात्वत’ (ध) तथा ‘गित आयु राष’ फिर लोहित (प) तथा रुडाह लगाने से २४अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥९९-१००॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ यो यो हनूमन्तं फलफलित धग धगितायुराषपरुडाह’ (२४) ॥९९-१००॥
प्रयोगविधि – इस मन्त्र के ऋषि आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है । प्लीहा वालेरोगी के पेट पर पान रखे । उसको उसका आठ गुना कपडा फैलाकर आच्छादित करे, फिरउसके ऊपर हनुमान् जी का ध्यान करते हुये बाँस का टुकडा रखे, फिर जंगल केपत्थर पर उत्पन्न बेर की लकडियोम से जलायी गई अग्नि में मूलमन्त्र का जपकरते हुये ७ बार यष्टि को तपाना चाहिए । उसी यष्टि से पेट पर रखे बाँस केटुकडे को सात बार संताडित करना चाहिए । ऐसा करने से प्लीहा रोग शीघ्र दूरहो जाता है ॥१०१-१०४॥
अब विजयप्रद प्रयोग कहते हैं – पूँछ जैसीआकृति वाले वस्त्र पर कोयल के पंखे से अष्टगन्ध द्वारा हनुमान् जी की मनोहरमूर्ति निर्माण करना चाहिए । उसके मध्य में शत्रु के नाम से युक्तअष्टादशाक्षर मन्त्र लिखाना चाहिए । फिर उस वस्त्र को इसी मन्त्र सेअभिमन्त्रित कर राजा शिर पर उसे बाँधकर युद्धभूमि में जावे, तो वह अपनेशत्रुओं को देखते देखते निश्चित ही जीत लेता है (अष्टादशाक्षर मन्त्र द्र०१३. १८) ॥१०५-१०७॥
अब विजयप्रदध्वज कहते हैं – युद्ध में अपनेशत्रुओं पर विजय चाहने वाला राजा शत्रु के नाम एवं अष्टादशाक्षर मन्त्र केसाथ पूर्ववत् हनुमान् जी का चित्र ध्वज पर लिखे । उस ध्वज को लेकर ग्रहणके समय स्पर्शकाल से मोक्षकाल पर्यन्त मातृकाओं का जप करे, तथा तिलमिश्रितसरसों से स्पर्शकाल से मोक्षकालपर्यन्त दशांश होम करे, फिर उस ध्वज को हाथीके ऊपर लगा देवे तो हाथी के ऊपर लगे उस ध्वज को देखते ही शत्रुदल शीघ्रभाग जात है ॥१०७-१०९॥
अब रक्षक यन्त्र कहते हैं – अष्टदल कमल बनाकरउसकी कर्णिका में साध्य नाम (जिसकी रक्षा की इच्छा हो) लिखना चाहिए ।तदनन्तर दलों में अष्टाक्षर मन्त्र लिखना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण मालामन्त्र से उसे परिवेष्टित करना चाहिए । उसको भी महाबीज (ह्रीं) सेपरिवेष्टित कर इसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए ॥११०-१११॥
शुभकमलदल को भोजपत्र पर सुर्वण की लेखनी से गोरोचन और कुंकुम मिलाकर उक्तयन्त्र लिखना चाहिए । संपात साधित होम द्वारा सिद्ध इस यन्त्र को स्वर्णअदि से परिवेष्टित (सोने या चाँदी का बना हुआ गुटका में डालकर) भुजा यामस्तक पर उसे धारण करना चाहिए ॥११२-११३॥
इसकें धारण करने से मनुष्ययुद्ध व्यवहार एवं जूए में सदैव विजयी रहता है ग्रह, विघ्न, विष, शस्त्र, तथा चौरादि उसका कुछ बिगाड नहीं सकते । वह भाग्यशाली तथा नीरोग रहकरदीर्घकालपर्यन्त जीवित रहता है ॥११३-११४॥
अब अष्टाक्षर मन्त्र काउद्धार करते हैं – अग्नि (र्) सहित वियत् (ह्), इनमें दीर्घ षट्क (आं ईंऊं ऐं औं अः) लगाकर उसे तार से संपुटित कर देने पर अष्टाक्षर मन्त्रनिष्पन्न हो जाता है ॥११५॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ‘ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौं ह्रः औ’ ॥११५॥
अबमालामन्त्र का उद्धार कहते हैं – वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिल, फिर पिङ्गलऊर्ध्वकोष महावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहवमहारौद्रदंष्ट्रोत्कटक, फिर दो बार ह (ह ह), फिर ‘करालिने महादृढप्रहारिन्’ ये पद, फिर ‘लंकेश्वरवधाय’ के बाद ‘महासेतु’ एवं ‘बन्ध’, फिर ‘महाशैल प्रवाह गगने चर एह्येहि भगवान्’ के बाद ‘महाबलपराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्रदीर्घपुच्छेन वेष्टय वैरिणंभञ्जय भञ्जय हुं फट्’, इसके प्रारम्भ में प्रणव लगाने से १५ अक्षरों कासर्वर्थदायक माला मन्त्र निष्पन्न होता है ॥११६-१२१॥
विमर्श – इसमन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ वज्रकाय बज्रतुण्डकपिल पिङ्गल ऊर्ध्वकेशमहावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहव महारौद्र दंष्टोत्कटक ह ह करालिने महादृढप्रहारिन् लंकेश्वरवधाय महासेतुबन्ध महाशैलप्रवाह गगनेचर एह्येहिं भगवन्महाबल पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घपुच्छेन वेष्टय् वैरिणंभञ्जय भञ्जय हुं फट् । रक्षायन्त्र के लिए विधि स्पष्ट है ॥११६-१२१॥
युद्ध काल में मालामन्त्र का जप विजय प्रदान करता है तथा रोग में जप करने से रागों को दूर करता है ॥१२१॥
अष्टाक्षरएवं मालामन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता पूर्ववत् हैं पूजा तथा प्रयोग कीविधि पूर्ववत् है । इनके विषय में बहुत कहने की आवश्यकता नहीं है । कपीश्वरहनुमान् जी सब कुछ अपने भक्तों को देते हैं ॥१२२॥
6....हनुमान् वडवानल स्तोत्र
यह स्तोत्र सभी रोगों के निवारण में, शत्रुनाश, दूसरों के द्वारा किये गये पीड़ा कारक कृत्या अभिचार के निवारण, राज-बंधन विमोचन आदि कई प्रयोगों में काम आता है ।
विधिः- सरसों के तेल का दीपक जलाकर १०८ पाठ नित्य ४१ दिन तक करने पर सभी बाधाओं का शमन होकर अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं, मम समस्त विघ्न-दोष-निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे सकल-राज-कुल-संमोहनार्थे, मम समस्त-रोग-प्रशमनार्थम् आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त-पाप-क्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये ।
ध्यानः-
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम सकल-दिङ्मण्डल-यशोवितान-धवलीकृत-जगत-त्रितय वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र उदधि-बंधन दशशिरः कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार-ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्व-पाप-ग्रह-वारण-सर्व-ज्वरोच्चाटन डाकिनी-शाकिनी-विध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दुःख निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर, माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हां ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु शिरः-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय नागपाशानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोटकालियान् यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।
।। इति विभीषणकृतं हनुमद् वडवानल स्तोत्रं ।।
7....ॐ वैष्णव तंत्र:-
वैष्णव तंत्र शुरू से ही गोपनीय रहा है। इसको गोपनीय इसलिए रखा गयाक्योंकि इसका प्रभाव प्रबल एवं अचूक है। इसकी कोई काट भी नहीं है। जैसेतांत्रिक शिरोमणि क्रोधभट्टारक यानि दुर्वासा को भी अम्बरीश से परास्त होकरनतमस्तक होना पड़ा था। उनकी तपोशक्ति उनकी कृत्या का भी नाश हो गया था। वेउस समय शक्तिविहीन हो गए थे। तंत्र क्षेत्र में कहा जाता है कि श्री कृष्णस्वयं नारायण थे और नारायणी तंत्रमेंपारंगत थे। वे सर्वदा अजेय रहे स्वयं तंत्रों के जनक सदाशिव से भी।वैष्णवों की परम शक्ति श्री हनुमान जी हैं जिनके सामने समस्त और प्रबलतमशक्तियां परास्त हो जाती हैं। देवियों की मूल श्री त्रिपुरसुन्दरी श्रीगोलोक धाम की प्रहरी हैं और ललिता सखी के रूप में रास में भी सम्मिलित होतीहैं। शर्भेश्वर का निवास श्री कृष्ण की भुजाओं में माना गया है। जब रामरावण युद्ध में रावन ने दस महाबिध्याओं को रणभूमि में मंत्रबल से उतारा तबश्री हनुमान की हांक से सब उनको सदाशिव मान अदृश्य हो गयी थी।भगवान् शिव कात्रिशूल जो कुम्भकर्ण को प्राप्त था उसको युद्ध में श्री हनुमानजी द्वारातोड़ दिया था और चंद्रहास खडग को श्री राम ने अपने बाणों से काट दिया था।मेघनाद जो निखुम्बला या प्रत्यंगिरा का साधक था उसका भी वध उसी मंदिर केबहार हुआ। माँ दुर्गा श्री कृष्ण मन्त्रों की अधिष्ठात्री और उनकी योगमायाकही जातीं हैं।
मेरा तात्पर्य किसी को निम्न दिखाना नहीं है। केवलनारायणी तंत्र का परिचय देना है। जो अन्यतम और गुह्य है। कृपयातत्सम्बन्धित ग्रंथो का अध्यन भी करें। मैंने जैसा महापुरुषों से सुना वैसाबता दिया।
ॐ विष्णवे नमः।
8.....।। अथ आञ्जनेयास्त्रम् ।।
अधुना गिरिजानन्द आञ्जनेयास्त्रमुत्तमम् ।
समन्त्रं सप्रयोगं च वद मे परमेश्वर ।।१।।
।।ईश्वर उवाच।।
ब्रह्मास्त्रं स्तम्भकाधारि महाबलपराक्रम् ।
मन्त्रोद्धारमहं वक्ष्ये श्रृणु त्वं परमेश्वरि ।।२।।
आदौ प्रणवमुच्चार्य मायामन्मथ वाग्भवम् ।
शक्तिवाराहबीजं व वायुबीजमनन्तरम् ।।३।।
विषयं द्वितीयं पश्चाद्वायु-बीजमनन्तरम् ।
ग्रसयुग्मं पुनर्वायुबीजं चोच्चार्य पार्वति ।।४।।
स्फुर-युग्मं वायु-बीजं प्रस्फुरद्वितीयं पुनः ।
वायुबीजं ततोच्चार्य हुं फट् स्वाहा समन्वितम् ।।५।।
आञ्जनेयास्त्रमनघे पञ्चपञ्चदशाक्षरम् ।
कालरुद्रो ऋषिः प्रोक्तो गायत्रीछन्द उच्यते ।।६।।
देवता विश्वरुप श्रीवायुपुत्रः कुलेश्वरि ।
ह्रूं बीजं कीलकं ग्लौं च ह्रीं-कार शक्तिमेव च ।।७।।
प्रयोगं सर्वकार्येषु चास्त्रेणानेन पार्वति ।
विद्वेषोच्चाटनेष्वेव मारणेषु प्रशस्यते ।।८।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीहनुमाद्-आञ्जनेयास्त्र-विद्या-मन्त्रस्य कालरुद्र ऋषिः, गायत्री छन्दः, विश्वरुप-श्रीवायुपुत्रो देवता, ह्रूं बीजं, ग्लौं कीलकं, ह्रीं शक्तिः, मम शत्रुनिग्रहार्थे हनुमन्नस्त्र जपे विनियोगः ।
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं क्लीं ऐं सौं ग्लौं यं शोषय शोषय यं ग्रस ग्रस यं विदारय विदारय यं भस्मी कुरु कुरु यं स्फुर स्फुर यं प्रस्फुर प्रस्फुर यं सौं ग्लौं हुं फट् स्वाहा ।”
।। विधान ।।
नामद्वयं समुच्चार्यं मन्त्रदौ कुलसुन्दरि ।
प्रयोगेषु तथान्येषु सुप्रशस्तो ह्ययं मनुः ।।९।।
आदौ विद्वेषणं वक्ष्ये मन्त्रेणानेन पार्वति ।
काकोलूकदलग्रन्थी पवित्रीकृत-बुद्धिमान् ।।१०।।
तर्पयेच्छतवारं तु त्रिदिनाद्द्वेषमाप्नुयात् ।
ईक्ष्यकर्ममिदं म मन्त्रांते त्रिशतं जपेत् ।।११।।
वसिष्ठारुन्धतीभ्यां च भवोद्विद्वेषणं प्रिये ।
महद्विद्वेषणं भूत्वा कुरु शब्दं विना प्रिये ।।१२।।
मन्त्रं त्रिशतमुच्चार्य नित्यं मे कलहप्रिये ।
ग्राहस्थाने ग्रामपदे उच्चार्याष्ट शतं जपेत् ।।१३।।
ग्रामान्योन्यं भवेद्वैरमिष्टलाभो भवेत् प्रिये ।
देशशब्द समुच्चार्य द्विसहस्त्रं जपेन्मनुम् ।।१४।।
देशो नाशं समायाति अन्योन्यं क्लेश मे वच ।
रणशब्दं समुच्चार्य जपेदष्टोत्तरं शतम् ।।१५।।
अग्नौ नता तदा वायुदिनान्ते कलहो भवेत् ।
उच्चाटन प्रयोगं च वक्ष्येऽहं तव सुव्रते ।।१६।।
उच्चाटन पदान्तं च अस्त्रमष्टोत्तरं शतम् ।
तर्पयेद्भानुवारे यो निशायां लवणांबुना ।।१७।।
त्रिदिनादिकमन्त्रांते उच्चाटनमथो भवेत् ।
भौमे रात्रौ तथा नग्नो हनुमन् मूलमृत्तिकाम् ।।१८।।
नग्नेन संग्रहीत्वा तु स्पष्ट वाचाष्टोत्तरं जपेत् ।
समांशं च प्रेतभस्म शल्यचूर्णे समांशकम् ।।१९।।
यस्य मूर्ध्नि क्षिपेत्सद्यः काकवद्-भ्रमतेमहीम् ।
विप्रचाण्डालयोः शल्यं चिताभस्म तथैव च ।।२०।।
हनुमन्मूलमृद्ग्राह्या बध्वा प्रेतपटेन तु ।
गृहे वा ग्राममध्ये वा पत्तने रणमध्यमे ।।२१।।
निक्षिपेच्छत्रुगर्तेषु सद्यश्चोच्चाटनं भवेत् ।
तडागे स्थापयित्वा तु जलदारिद्यमाप्नुयात् ।।२२।।
मारणं संप्रवक्ष्यामि तवाहं श्रृणु सुव्रते ।
नरास्थिलेखनीं कृत्वा चिताङ्गारं च कज्जलम् ।।२३।।
प्रेतवस्त्रे लिखेदस्त्रं गर्त्त कृत्वा समुत्तमम् ।
श्मशाने निखनेत्सद्यः सहस्त्राद्रिपुमारणे ।।२४।।
न कुर्याद्विप्रजातिभ्यो मारणं मुक्तिमिच्छता ।
देवानां ब्राह्मणानां च गवां चैव सुरेश्वरि ।।२५।।
उपद्रवं न कुर्वीत द्वेषबुद्धया कदाचन ।
प्रयोक्तव्यं तथान्येषां न दोषो मुनिरब्रवीत् ।।२६।।
।। इति सुदर्शन-संहिताया आञ्नेयास्त्रम् ।।
9…… हनुमान् वडवानल स्तोत्र
यह स्तोत्र सभी रोगों के निवारण में, शत्रुनाश, दूसरों के द्वारा किये गये पीड़ा कारक कृत्या अभिचार के निवारण, राज-बंधन विमोचन आदि कई प्रयोगों में काम आता है ।
विधिः- सरसों के तेल का दीपक जलाकर १०८ पाठ नित्य ४१ दिन तक करने पर सभी बाधाओं का शमन होकर अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं, मम समस्त विघ्न-दोष-निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे सकल-राज-कुल-संमोहनार्थे, मम समस्त-रोग-प्रशमनार्थम् आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त-पाप-क्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये ।
ध्यानः-
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम सकल-दिङ्मण्डल-यशोवितान-धवलीकृत-जगत-त्रितय वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र उदधि-बंधन दशशिरः कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार-ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्व-पाप-ग्रह-वारण-सर्व-ज्वरोच्चाटन डाकिनी-शाकिनी-विध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दुःख निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर, माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हां ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु शिरः-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय नागपाशानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोटकालियान् यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।
।। इति विभीषणकृतं हनुमद् वडवानल स्तोत्रं
10… एक-मुखी-हनुमत्-कवचम्
यह कवच भोजपत्र के ऊपर, ताड़पत्र पर या लाल रंग के रेशमी वस्त्र पर त्रिगन्ध की स्याही से लिखकर कण्ठ या भुजा पर धारण करना चाहिये । इसे त्रिलोह के ताबीज में भर कर धारण करना लाभकारी रहता है । रविवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर इसका पाठ करने से धन की वृद्धि व शत्रुओं की हानि होती है ।
इस कवच को लिखकर पूजन स्थल पर रखने से इसकी पंचोपचार से पूजा करने पर शत्रु ह्रास को प्राप्त होते है । साधक का मनोबल बढ़ता है । रात्रि के समय दस बार इसका पाठ करने से मान-सम्मान व उन्नति प्राप्त होती है ।
अर्द्ध-रात्रि के समय जल में खड़े होकर सात बार पाठ करने से क्षय, अपस्मारादि का शमन होता है ।
इस पाठ को तीनों सन्ध्याओं के समय प्रतिदिन जपते हुए तीन मास व्यतीत करता है, उसकी इच्छा मात्र से शत्रुओं का हनन होता है । लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । इसके साधक के पास भूत-प्रेत नहीं आ पाते हैं ।
।। अथ एकमुखी हनुमान् कवचम् ।।
।। श्रीरामदास उवाच ।।
एकदा सुखमासीनं शंकरं लोकशंकरम् ।
प्रपच्छ गिरिजाकांतं कर्पूरधवलं शिवम् ।।
।। पार्वत्युवाच ।।
भगवन् देवदेवेश लोकनाथ जगत्प्रभो ।
शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद् ध्रुवम् ।।
संग्रामे संकटे घोरे भूत-प्रेतादिके भये ।
दु:ख-दावाग्नि-संतप्त-चेतसां दु:खभागिनाम् ।।
।। श्रीमहादेव उवाच ।।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।
विभीषणाय रामेण प्रेम्णा दत्तं च यत्पुरा ।।
कवचं कपि-नाथस्य वायु-पुत्रस्य धीमत: ।
गुह्यं तत्ते प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छ्रणु सुंदरि ।।
उद्यदादित्य-संकाशमुदार-भुज-विक्रमम् ।
कंदर्प-कोटि-लावण्यं सर्व-विद्या-विशारदम् ।।
श्रीराम-हृदयानन्दं भक्त-कल्पमहीरुहम् ।
अभयं वरदं दोर्भ्यां कलये मारुतात्मजम् ।।
हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल: ।
रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम: ।।
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशन: ।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ।।
एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मन: ।
स्वल्पकाले प्रबोधे च यात्राकाले च य: पठेत् ।।
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् ।
राजद्वारे गह्वरे च भयं नास्ति कदाचन ।।
उल्लङ्घ्य सिन्धो: सलिलं सलीलं य: शोकवह्निं जनकात्मजाया: ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ।।
मंत्र- “ॐ नमो हनुमते सर्व-ग्रहान् भूत-भविष्य-द्वर्तमानान् समीप-स्थान् सर्व-काल-दुष्ट-बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलान् क्षोभय क्षोभय मम सर्व-कार्याणि साधय साधय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् । घे घे घे ॐ शिवसिद्धिं ॐ ह्रां ॐ ह्रीं ॐ ह्रूं ॐ ह्रैं ॐ ह्रौं ॐ ह्र: स्वाहा । पर-कृत-यन्त्र-मन्त्र-पराहंकार-भूत-प्रेत-पिशाच-दृष्टि-सर्व-विघ्न-दुर्जन-चेष्टा-कुविद्या-सर्वोग्रभयानि निवारय निवारय बन्ध बन्ध लुण्ठ लुण्ठ विलुञ्च विलुञ्च किलि किलि सर्वकुयन्त्राणि दुष्टवाचं ॐ हुं फट् स्वाहा ।”
श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने के उपरांत हाथ की अंजली में जल लेकर विनियोग करते हुए जल को पृथ्वी पर छोड़ दें। तत्पश्चात् वायुपुत्र का ध्यान करते हुए सम्पूर्ण अंगों का न्यास करें। प्रत्येक अंग को ध्यान करते हुए स्पर्श करें।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीहनुमत्-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि:, श्रीहनुमान् परमात्मा देवता, अनुष्टुप् छंद:, मारुतात्मज इति बीजम्, ॐ अंजनीसूनुरिति शक्ति:, लक्ष्मण-प्राण-दातेति कीलकम् रामदूतायेती अस्त्रम्, हनुमानदेवता इति कवचम्, पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम इति मन्त्र:, श्रीरामचन्द्रप्रेरणया रामचन्द्रप्रीत्यर्थं मम सकलकामनासिद्धये जपे विनियोग:।
करन्यासः- ॐ ह्रां अञ्जनी-सुताय अंगुष्ठाभ्यां नम:। ॐ ह्रीं रुद्र-मूर्त्तये तर्जनीभ्यां नम:। ॐ ह्रूं राम-दूताय मध्यमाभ्यां नम:। ॐ ह्रैं वायु-पुत्राय अनामिकाभ्यां नम:। ॐ अग्नि-गर्भाय कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ॐ ह्र: ब्रह्मास्त्र-निवारणाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नम:।
हृदयादिन्यासः- ॐ ह्रां अञ्जनीसुताय हृदयाय नम:। ॐ ह्रीं रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रूं रामदूताय शिखायै वषट्। ॐ ह्रैं वायुपुत्राय कवचाय हुम्। ॐ ह्रौं अग्निगर्भाय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ ह्र: ब्रह्मास्त्रनिवारणाय अस्त्राय फट्।
।। ध्यानम् ।।
ध्यायेद् बाल-दिवाकर-द्युति-निभं देवारि-दर्पापहं देवेन्द्र-प्रमुखं-प्रशस्त-यशसं देदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादि-समस्त-वानर-युतं सुव्यक्त-तत्त्व-प्रियं संरक्तारुण-लोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ।।
उद्यन्मार्तण्ड-कोटि-प्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं मौञ्जीयज्ञोपवीताभरणरुचिशिखं शोभितं कुंडलाङ्कम् ।
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं ध्यायेद् देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदी भूतवार्धिम् ।।
वज्राङ्गं पिङ्गकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डल-मण्डितम् । निगूढमुपसङ्गम्य पारावारपराक्रमम् ।।
स्फटिकाभं स्वर्णकान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिम् । कुण्डलद्वयसंशोभिमुखाम्भोजं हरिं भजे ।।
सव्यहस्ते गदायुक्तं वामहस्ते कमण्डलुम् । उद्यद्दक्षिणदोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तयेत् ।।
ध्यान के उपरांत श्रद्धापूर्वक 11 बार कवच मंत्र का जाप करें।
कवच मन्त्रः- “ॐ नमो हनुमदाख्यरुद्राय सर्व-दुष्ट-जन-मुख-स्तम्भनं कुरु कुरु ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ठं ठं ठं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते शोभिताननाय यशोऽलंकृताय अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकाय कपिसैन्यप्राकाराय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाह्यकरणाय परोच्चाटनाय कुमार ब्रह्मचर्यगम्भीरशब्दोदय ॐ ह्रीं सर्वदुष्टग्रह निवारणाय स्वाहा।
ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि सर्वग्रहभूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषमदुष्टानां सर्वेषामाकर्षयाकर्षय मर्दय मर्दय छेदय छेदय मृत्यून् मारय मारय शोषय शोषय प्रज्वल प्रज्वल भूत-मण्डल-पिशाच-मण्डल-निरसनाय भूत-ज्वर-प्रेत-ज्वर-चातुर्थिक-ज्वर-विष्णु-ज्वर-महेश-ज्वरं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि अक्षिशूल-पक्षशूल-शिरोऽभ्यन्तरेशूल-गुल्मशूल-पित्तशूल ब्रह्मराक्षसकुलच्छेदनं कुरु प्रबलनागकुलविषं निर्विषं कुरु कुरु झटिति झटिति । ॐ ह्रां ह्रीं फट् सर्व-ग्रहनिवारणाय स्वाहा।
ॐ नमो हनुमते पवनपुत्राय वैश्वानरमुखाय पापदृष्टि-चोरदृष्टि हनुमदाज्ञास्फुर ॐ स्वाहा।
स्वगृहे-द्वारे-पट्टके तिष्ठ तिष्ठेति तत्र रोगभयं राजकुलभयं नास्ति तस्योच्चारणमात्रेण सर्वे ज्वरा नश्यन्ति। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् घे घे स्वाहा।
।। कवच ।।
।। श्रीरामचन्द्र उवाच ।।
हनुमान् पूर्वत: पातु दक्षिणे पवनात्मज: ।
पातु प्रतीच्यां रक्षोघ्नः पातु सागरपारगः ।। १।।
उदीच्यामूर्ध्वतः पातु केसरीप्रियनन्दनः ।
अधस्ताद् विष्णुभक्तस्तु पातु मध्यं च पावनिः ।। २।।
अवान्तरदिशः पातु सीताशोकविनाशकः ।
लङ्काविदाहक: पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ।। ३।।
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ।। ४।।
नेत्रेच्छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलौ कर्णमूले तु पातु श्रीरामकिङ्करः ।। ५।।
नासाग्रमञ्जनीसूनुः पातु वक्त्रं हरीश्वरः ।
वाचं रुद्रप्रियः पातु जिह्वां पिङ्गललोचनः ।। ६।।
पातु दन्तानु फालगुनेष्टश्चिबुकं दैत्यपादहृत् ।
पातु कण्ठं च दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ।। ७।।
भुजौ पातु महातेजाः करौ च चरणायुधः ।
नखान्नखायुधः पातु कुक्षौ पातु कपीश्वरः ।। ८।।
वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ।
लङ्कानिभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ।। ९।।
नाभिं च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्यं पातु महाप्राज्ञो लिङ्गं पातु शिवप्रियः ।। ९।।
ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः ।
जङ्घे पातु कपिश्रेष्ठो गुल्फौ पातु महाबलः ।। १०।।
अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
अङ्गान्यमितसत्त्वाढयः पातु पादाङ्गुलीस्तथा ।। ११।।
सर्वाङ्गानि महाशूरः पातु रोमाणि चात्मवित् ।
कुमारः कन्यकां पातु पिङ्गाक्षः पातु वै पशून् ।। १२।।
वायुसूनुः सुतान्पातु मार्गं पातु महाबली ।
द्रोणाचलसुरस्थायी राजद्वारेऽपि रक्ष माम् ।। १३।।
जानकीशोकभयहृत्कुटुम्बं कपिवल्लभः ।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षतां यमकिङ्करः ।। १४।।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद् विद्वान् विचक्षणः ।
स एव पुरुषश्रेष्ठो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।।१५।।
त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयं नरः ।
सर्वानृरिपून् क्षणाज्जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।। १६।।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्यदि ।
क्षयाऽपस्मार-कुष्ठादितापत्रय-निवारणम् ।। १७।।
अश्वत्थमूलेऽर्कवारे स्थित्वा पठति यः पुमान् ।
अचलां श्रियमाप्नोति संग्रामे विजयं तथा ।। १८।।
रामाग्रे हनुमदग्रे यः पठेच्च नरः सदा ।
लिखित्वा पूजयेद्यस्तु सर्वत्र विजयी भवेत् ।। १९।।
यः करे धारयेन्नित्यं सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।। २०।।
बुद्धिर्बलं यशोवीर्यं निर्भयत्वमरोगता ।
सुदाढर्यं वाक्स्फुरत्वं च हनुमत्स्मरणाद्भवेत् ।।२१।।
मारणं वैरिणां सद्यः शरणं सर्वसम्पदाम् ।
शोकस्य हरणे दक्षं वन्दे तं रणदारुणम् ।। २२।।
लिखित्वा पूजयेद्यस्तु सर्वत्र विजयी भवेत् ।
यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।। २३।।
स्थित्वा तु बन्धने यस्तु जपं कारयति द्विजैः ।
तत्क्षणान्मुक्तिमाप्नोति निगडात्तु तथैव च ।। २४।।
।। ईश्वर उवाच ।।
भाविन्दू चरणारविन्दयुगलं कौपीनमौञ्जीधरं, काञ्ची श्रेणिधरं दुकूलवसनं यज्ञोपवीताजिनम् ।
हस्ताभ्यां धृतपुस्तकं च विलसद्धारावलिं कुण्डलं यश्चालंबिशिखं प्रसन्नवदनं श्री वायुपुत्रं भजेत् ।।
यो वारांनिधिमल्पपल्वलमिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो वैदेहीघनशोकतापहरणो वैकुण्ठभक्ति प्रियः ।
अक्षाद्यूर्जितराक्षसेश्वरमहादर्पापहारी रणे सोऽयं वानरपुंगवोऽवतु सदा योऽस्मान् समीरात्मजः ।।
वज्रांगं पिङ्गनेत्रं कनकमयलस्कुण्डलाक्रान्तगण्डं दंभोलिस्तंभसारप्रहरणसुवशीभूतरक्षोधीनाथम् ।
उद्यल्लाङ्गूलसप्तप्रचलाचलधरं भीममूर्तिं कपीन्द्रं ध्यायन्तं रामचन्द्रं भ्रमरदृढकरं सत्त्वसारं प्रसन्नम् ।।
वज्राङ्गं पिङ्गनेत्रं कनकमयलसत्कुण्डलैः शोभनीयं सर्वापीठ्यादिनाथं करतलविधृतं पूर्णकुम्भं दृढाङ्म् ।
भक्तानामिष्टकारं विदधतिच सदा सुप्रसन्नम् हरीशं त्रैलोक्यं त्रातुकामं सकलभुविगतं रामदूतं नमामि ।।
वामे करे वैरभिदं वहन्तं शैलं परं श्रृङ्खलहारकण्ठम् ।
दधानमाच्छाद्य सुवर्णवर्णं भजेज्ज्वलकुण्डलमाञ्जनेयम् ।।
पद्मरागमणिकुण्डलत्विषा पाटलीकृतकपोलमण्डलम् ।
दिव्यदेहकदलीवनान्तरे भावयामि पवमानन्दनम् ।।
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनम् तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।
वाष्पवारिपरिपूर्णलोवनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ।।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ।।
विवादे युद्धकाले च द्युते राजकुले रणे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारो जितेन्द्रियः ।।
विजयं लभते लोके मानवेषु नरेषु च ।
भुते प्रेते महादुर्गेऽरण्ये सागरसम्प्लवे ।।
सिंहव्याघ्रभये चोग्रे शरशस्त्रास्त्रपातने ।
श्रृङ्खलाबन्धने चैव कारागृहादियंत्रणे ।।
कोपस्तम्भे वह्नि-चक्रे क्षेत्रे घोरे सुदारुणे ।
शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रह निवारणे ।।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोति निश्चितम् ।
भूर्जे वा वसने रक्ते क्षौमे वा तालपत्रके ।।
त्रिगंधिना वा मष्या वा विलिख्य धारयेन्नरः ।
पंचसप्तत्रिलोहैर्वा गोपितः सर्वतः शुभम् ।।
करे कट्यां बाहुमूले कण्ठे शिरसि धारितम् ।
सर्वान्कामान्वाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितम् ।।
अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित ।
प्रस्थानञ्च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ।।
इत्युक्त्वा यो व्रजेद्-ग्राम देशं तीर्थान्तरं रणम् ।
आगमिष्यति शीघ्रं स क्ज़ेमरुपो गृहं पुनः ।।
इति वदति विशेषाद्राघवे राक्षसेन्द्रः प्रमुदितवरचित्तो रावणस्यानुजो हि ।
रघुवरपदपद्मं वंदयामास भूयः कुलसहितकृतार्थः शर्मदं मन्यमानं ।।
तं वेदशास्त्रपरिनिष्ठितशुद्धबुद्धिं शर्माम्बरं सुरमुनीन्द्रनुतं कपीन्द्रम् ।
कृष्णत्वचं क नकपिङ्गजटाकलापं व्यासं नमामि शिरसा तिलकं मुनीनाम् ।।
य इदं प्रातरुत्थाय पठते कवचं सदा ।
आयुरारोग्यसंतानैस्तेभ्यस्तस्य स्तवो भवेत् ।।
एवं गिरीन्द्रजे श्रीमद्धनुमत्कवचं शुभम् ।
त्वयापृष्टं मया प्रीत्या विस्तराद्विनिवेदितम् ।।
।। रामदास उवाच ।।
एवं शिवमुखाच्छ्रुत्वा पार्वती कवचं शुभम् ।
हनुमतः सदा भक्तया पपाठं तन्मनाः सदा ।।
एवं शिष्य त्वयाप्यत्र यथा पृष्टं तथा मया ।
हनुमत्कवचं चेदं तवाग्रे विनिवेदितम् ।।
इदं पूर्वं पठित्वा तु रामस्य कवचं ततः ।
पठनीयं नरैर्भक्तया नैकमेव पठेत्कदा ।।
हनुमत्कवचं चात्र श्रीरामकवचं विना ।
ये पठन्ति नराश्चात्र पठनं तद्वृथा भवेत ।।
तस्मात्सर्वैः पठनीयं सर्वदा कवचद्वयम् ।
रामस्य वायुपुत्रस्य सद्भक्तेश्च विशेषतः ।।
उल्लंघ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लंकां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ।।
।। इति श्री ब्रह्माण्ड-पुराणे श्री नारद एवं श्री अगस्त्य मुनि संवादे श्रीराम प्रोक्तं एकमुखी हनुमत्कवचं ।।…
11… अथ श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्कवचम् ।।
।। श्री गणेशाय नमः ।।
।। ईश्वर उवाच।।
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वाङ्ग-सुन्दरी ।
यत्कृतं देवदेवेशि ध्यानं हनुमतः परम् ।। १।।
पञ्चवक्त्र महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम् ।
बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थ सिद्धिदम् ।। २।।
पूर्वं तु वानरं वक्त्र कोटिसूर्यसमप्रणम् ।
दंष्ट्राकरालवदनं भ्रकुटी कुटिलेक्षणम् ।। ३।।
अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् ।
अत्युग्र तेजवपुषं भीषणं भयनाशनम् ।। ४।।
पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वज्रतुण्डं महाबलम् ।
सर्वनागप्रशमनं विषभुतादिकृतन्तनम् ।। ५।।
उत्तरं सौकर वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम् ।
पातालसिद्धिवेतालज्वररोगादि कृन्तनम् ।। ६।।
ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम् ।
खङ्ग त्रिशूल खट्वाङ्गं पाशमंकुशपर्वतम् ।। ७।।
मुष्टिद्रुमगदाभिन्दिपालज्ञानेनसंयुतम् ।
एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ।। ८।।
प्रेतासनोपविष्टं त सर्वाभरणभूषितम् ।
दिव्यमालाम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।। ९।।
सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम् ।। १०।।
पञ्चास्यमच्युतमनेक विचित्रवर्णं चक्रं सुशङ्खविधृतं कपिराजवर्यम् ।
पीताम्बरादिमुकुटैरुपशोभिताङ्गं पिङ्गाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि ।। ११।।
मर्कटेशं महोत्साहं सर्वशोक-विनाशनम् ।
शत्रुं संहर मां रक्ष श्रियं दापयमे हरिम् ।। १२।।
हरिमर्कटमर्कटमन्त्रमिमं परिलिख्यति भूमितले ।
यदि नश्यति शत्रु-कुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामकरः ।। १३।।
ॐ हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा । नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखे सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखे करालवदनाय नर-सिंहाय सकल भूत-प्रेत-प्रमथनाय स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविषहराय स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखे आदि-वराहाय सकलसम्पतकराय स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते पंचवदनाय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवाय सकलजनवशीकरणाय स्वाहा ।
।। अथ न्यासध्यानादिकम् । दशांश तर्पणं कुर्यात् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य रामचन्द्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, ममसकलभयविनाशार्थे जपे विनियोगः ।
ॐ हं हनुमानिति बीजम्, ॐ वायुदेवता इति शक्तिः, ॐ अञ्जनीसूनुरिति कीलकम्, श्रीरामचन्द्रप्रसादसिद्धयर्थं हनुमत्कवच मन्त्र जपे विनियोगः ।
कर-न्यासः- ॐ हं हनुमान् अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ वायुदेवता तर्जनीभ्यां नमः, ॐ अञ्जनी-सुताय मध्यमाभ्यां नमः, ॐ रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः, ॐ श्री हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ रुद्र-मूर्तये करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि-न्यासः- ॐ हं हनुमान् हृदयाय नमः, ॐ वायुदेवता शिरसे स्वाहा, ॐ अञ्जनी-सुताय शिखायै वषट्, ॐ रामदूताय कवचाय हुम्, ॐ श्री हनुमते नेत्र-त्रयाय विषट्, ॐ रुद्र-मूर्तये अस्त्राय फट् ।
।। ध्यानम् ।।
श्रीरामचन्द्र-दूताय आञ्जनेयाय वायु-सुताय महा-बलाय सीता-दुःख-निवारणाय लङ्कोपदहनाय महाबल-प्रचण्डाय फाल्गुन-सखाय कोलाहल-सकल-ब्रह्माण्ड-विश्वरुपाय सप्तसमुद्रनीरालङ्घिताय पिङ्लनयनामित-विक्रमाय सूर्य-बिम्ब-फल-सेवनाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीवनीनां निरालङ्कृताय अङ्गद-लक्ष्मण-महाकपि-सैन्य-प्राण-निर्वाहकाय दशकण्ठविध्वंसनाय रामेष्टाय महाफाल्गुन-सखाय सीता-समेत-श्रीरामचन्द्र-वर-प्रसादकाय षट्-प्रयोगागम-पञ्चमुखी-हनुमन्-मन्त्र-जपे विनियोगः ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटाय वं वं वं वं वं वषट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय हुं हुं हुं हुं हुं वषट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय खें खें खें खें खें मारणाय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तम्भनाय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय लुं लुं लुं लुं लुं आकर्षितसकलसम्पत्कराय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्र-मूर्तये पञ्चमुखी हनुमन्ताय सकलजन-निरालङ्करणाय उच्चाटनं कुरु कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रीं ठं ठं ठं ठं ठं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखीहनुमते परयंत्र-परतंत्र-परमंत्र-उच्चाटनाय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं स्वाहा ।
इति दिग्बंध: ।।
ॐ ह्रीं पूर्व-कपिमुखाय पंच-मुखी-हनुमते टं टं टं टं टं सकल-शत्रु-संहारणाय स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं दक्षिण-मुखे पंच-मुखी-हनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ॐ हां हां हां हां हां सकल-भूत-प्रेत-दमनाय स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं पश्चि।ममुखे वीर-गरुडाय पंचमुखीहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहरणाय स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं उत्तरमुखे आदि-वराहाय लं लं लं लं लं सिंह-नील-कंठ-मूर्तये पंचमुखी-हनुमते अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय रामेष्टाय फाल्गुन-सखाय सीताशोकदुःखनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय दशग्रीवहरणाय रामचंद्रपादुकाय पञ्चमुखीवीरहनुमते नमः ।।
भूतप्रेतपिशाच ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीअन्तरिक्षग्रहपरयंत्रपरतंत्रपरमंत्रसर्वग्रहोच्चाटनाय सकलशत्रुसंहारणाय पञ्चमुखीहनुमन् सकलवशीकरणाय सकललोकोपकारणाय पञ्चमुखीहनुमान् वरप्रसादकाय महासर्वरक्षाय जं जं जं जं जं स्वाहा ।।
एवं पठित्वा य इदं कवचं नित्यं प्रपठेत्प्रयतो नरः ।
एकवारं पठेत्स्त्रोतं सर्वशत्रुनिवारणम् ।।१५।।
द्विवारं च पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् ।
त्रिवारं तु पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं प्रभुम् ।।१६।।
चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् ।।
पञ्चवारं पठेन्नित्यं पञ्चाननवशीकरम् ।।१७।।
षड्वारं च पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् ।
सप्तवारं पठेन्नित्यमिष्टकामार्थसिद्धिदम् ।।१८।।
अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् ।
नववारं पठेन्नित्यं राजभोगमवाप्नुयात् ।।१९।।
दशवारं च प्रजपेत्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् ।
त्रिसप्तनववारं च राजभोगं च संबवेत् ।।२०।।
द्विसप्तदशवारं तु त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् ।
एकादशं जपित्वा तु सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ।।२१।।
।। इति सुदर्शनसंहितायां श्रीरामचन्द्रसीताप्रोक्तं श्रीपञ्चमुखीहनुमत्कत्वचं सम्पूर्णम् ।।…
12.… ।। अथ श्री सप्तमुखी हनुमत् कवचम् ।।
(अथर्णव-रहस्योक्त)
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीसप्तमुखिवीरहनुमत्कवच स्तोत्र-मन्त्रस्य नारद ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीसप्तमुखिकपिः परमात्मा देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिः, हूं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
करन्यासः- ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यासः- ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रै कवचाय हुम्, ॐ ह्रौं नेत्र-त्रयाय वोषट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ।
ध्यानः- वंदे वानरसिंह सर्परिपुवाराहश्वगोमानुषैर्युक्तं सप्तमुखैः करैर्द्रुमगिरिं चक्रं गदां खेटकम् । खट्वाङ्गं हलमंकुशं फणिसुधाकुम्भौ शराब्जाभयाञ्छूलं सप्तशिखं दधानममरैः सेव्यं कपिं कामदम् ।।
।। ब्रह्मोवाच ।।
सप्तशीर्ष्णः प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिदम् । जप्त्वा हनुमतो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१।।
सप्तस्वर्गपतिः पायाच्छिखां मे मारुतात्मजः । सप्तमूर्धा शिरोऽव्यान्मे सप्तार्चिर्भालदेशकम् ।।२।।
त्रिःसप्तनेत्रो नेत्रेऽव्यात्सप्तस्वरगतिः श्रुती । नासां सप्तपदार्थोव्यान्मुखं सप्तमुखोऽवतु ।।३।।
सप्तजिह्वस्तु रसनां रदान्सप्तहयोऽवतु । सप्तच्छंदो हरिः पातु कण्ठं बाहूगिरिस्थितः ।।४।।
करौ चतुर्दशकरो भूधरोऽव्यान्ममाङ्गुलीः । सप्तर्षिध्यातो हृदयमुदरं कुक्षिसागरः ।।५।।
सप्तद्वीपपतिश्चितं सप्तव्याहृतिरुपवान् । कटिं मे सप्तसंस्थार्थदायकः सक्थिनी मम ।।६।।
सप्तग्रहस्वरुपी मे जानुनी जंघयोस्तथा । सप्तधान्यप्रियः पादौ सप्तपातालधारकः ।।७।।
पशून्धनं च धान्यं च लक्ष्मी लक्ष्मीप्रदोऽवतु । दारान् पुत्रांश्च कन्याश्च कुटुम्बं विश्वपालकः ।।८।।
अनुरक्तस्थानमपि मे पायाद्वायुसुतः सदा । चौरेभ्यो व्यालदंष्ट्रिभ्यः श्रृङ्गिभ्यो भूतरा्क्षसात् ।।९।। दैत्येभ्योऽप्यथ यक्षेभ्यो ब्रह्मराक्षसजाद्भयात् । दंष्ट्राकरालवदनो हनुमान्मां सदाऽवतु ।।१०।।
परशस्त्रमंत्रतंत्रयंत्राग्निजलविद्युतः । रुद्रांशः शत्रुसंग्रामात्सर्वावस्थासु सर्वभृत् ।।११।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय आद्यकपिमुखाय वीरहनुमते सर्वशत्रुसंहारणाय ठं ठं ठं ठं ठं ठं ठं ॐ नमः स्वाहा ।।१२।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय द्वितीयनारसिंहास्याय अत्युग्रतेजोवपुषे भीषणाय भयनाशनाय हं हं हं हं हं हं हं ॐ नमः स्वाहा ।।१३।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय तृतीयविनाशनायवक्त्राय वज्रदंष्ट्राय महाबलाय सर्वरोगविनाशनाय मं मं मं मं मं मं मं ॐ नमः स्वाहा ।।१४।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय चतुर्थक्रोडतुण्डाय सौमित्रिरक्षकायपुत्राद्यभिवृद्धिकराय लं लं लं लं लं लं लं ॐ नमः स्वाहा ।।१५।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय पञ्चमाश्ववदनाय रुद्रमूर्त्तये सर्ववशीकरणाय सर्वनिगमस्वरुपाय रुं रुं रुं रुं रुं रुं रुं ॐ नमः स्वाहा ।।१६।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय षष्ठगोमुखाय सूर्यस्वरुपाय सर्वरोगहराय मुक्तिदात्रे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमः स्वाहा ।।१७।।
ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय सप्तममानुषमुखाय रुद्रावताराय अञ्जनीसुताय सकलदिग्यशोविस्तारकार्यवज्रदेहाय सुग्रीवसाह्यकराय उदधिलङ्घनाय सीताशुद्धिकराय लङ्कादहनाय अनेकराक्षसांतकाय रामानंददायकाय अनेकपर्वतोत्पाटकाय सेतुबंधकाय कपिसैन्यनायकाय रावणातकाय ब्रह्मचर्याश्रमिणे कौपीनब्रह्मसूत्रधारकाय रामहृदयाय सर्व-दुष्ट-ग्रह-निवारणाय शाकिनी-डाकिनी-वेताल-ब्रह्मराक्षस-भैरवग्रह-यक्षग्रह-पिशाचग्रह-ब्रह्मग्रह-क्षत्रियग्रह-वैश्यग्रह-शुद्रग्रहांत्यजग्रह-म्लेच्छग्रह-सर्पग्रहोच्चाटकाय मम सर्वकार्यसाधकाय सर्वशत्रुसंहारकाय सिंहव्याघ्रादिदुष्टसत्त्वाकर्षकायै-काहिकादिविविधज्वरच्छेदकाय परयंत्रमंत्रतंत्रनाशकाय सर्वव्याधिनिकृंतकाय सर्पादिसर्वस्थावर-जङ्गम-विष-स्तम्भनकराय सर्वराजभयचोरभयाग्निभयप्रशमनाया-ध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकतापत्रयनिवारणाय सर्वविद्यासर्वसम्पत्सर्वपुरुषार्थदायकायासाध्यकार्यसाधकाय सर्ववरप्रदाय सर्वाभीष्टकराय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः ॐ नमः स्वाहा ।।१८।।
य इदं कवचं नित्यं सप्तास्यस्य हनुमतः त्रिसंध्यं जपते नित्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।।१९।।
पुत्रपौत्रप्रदं सर्वं सम्पद्राज्यप्रदं परम् । सर्वरोगहरं चायुः किर्त्तिदं पुण्यवर्धनम् ।।२०।।
राजानंस वंश नीत्वा त्रैलोक्य विजयी भवेत् । इदं हि परमं गोप्यं देयं भक्तियुताय च ।।२१।।
न देयं भक्तिहीनाय दत्त्वा स निरयं व्रजेत् ।।२२।।
नामानिसर्वाण्यपवर्गदानि रुपाणि विश्वानि च यस्य सन्ति । कर्माणि देवैरपि दुर्घटानि त मारुतिं सप्तमुखं प्रपद्ये ।।२३।।
।। इति अथर्वणरहस्योक्तं सप्तमुखी-हनुमत्कवच ।।
अमोघ सिद्ध हनुमत-मंत्र
ऊपरी बाधाओं और नजर दोष के शमन के लिए निम्नोक्त हनुमान मंत्र का जप करना चाहिए।
ओम ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रीं ओम नमो
भगवतेमहाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी डाकिनी- यक्षिणी-पूतना मारी महामारी यक्ष-राक्षस भैरव-वेताल ग्रह राक्षसादिकम क्षणेन हन हन भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट स्वाहा। इस मंत्र को दीपावली की रात्रि, नवरात्र अथवा किसी अन्य शुभ मुहूर्त में या ग्रहण के समय हनुमान जी के किसी पुराने सिद्ध मंदिर में ब्रह्मचर्य पूर्वक रुद्राक्ष की माला पर दस हजार बार जप कर उसका दशांश हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिए ताकि कभी भी अवसर पड़ने पर इसका प्रयोग किया जा सके।
सिद्ध मंत्र से अभिमंत्रित जल प्रेत बाधा या नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति को पिलाने तथा इससे अभिमंत्रित भस्म उसके मस्तक पर लगाने से वह इन दोषों से मुक्त हो जाता है। उक्त सिद्ध मंत्र से एक कील को १००८ बार अभिमंत्रित कर उसे भूत-प्रेतों के प्रकोप तथा नजर दोषों से पीड़ित मकान में गाड़ देने से वह मकान कीलित हो जाता है तथा वहां फिर कभी किसी प्रकार का पैशाचिक अथवा नजर दोषजन्य उपद्रव नही होता ।
जहां भूत - प्रेत का भय लगे , वहां गीता , रामायण जी रखो !
जिन पुस्तकों का संत - महात्माओं ने पाठ किया है , उन्हें रखो ! उन पुस्तकों को रखने मात्र से भूत - प्रेत नहीं आते !
जय श्री राम ॐ रां रामाय नम: श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा ,संपर्क सूत्र- 9760924411