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मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं।

मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी, बल्कि आपका स्वाकस्य्े भी अच्छाी रहेगा
1-वाचिक जप
वाणी द्वारा सस्वर मंत्र का उच्चारण करना वाचिक जप की श्रेणी में आता है।
2- उपांशु जप- अपने इष्ट भगवान के ध्यान में मन लगाकर, जुबान और ओंठों को कुछ कम्पित करते हुए, इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करें कि केवल स्वंय को ही सुनाई पड़े। ऐसे मंत्रोचारण को उपांशु जप कहते है।
3- मानसिक जप- इस जप में किसी भी प्रकार के नियम की बाध्यता नहीं होती है। सोते समय, चलते समय, यात्रा में एंव शौच आदि करते वक्त भी ’ मंत्र’ जप का अभ्यास किया जाता है। मानसिक जप सभी दिशाओं एंव दशाओं में करने का प्रावधान है।
इन नियमों का भी पालन करें
1- शरीर की शुद्धि आवश्यक है। अतः स्नान करके ही आसन ग्रहण करना चाहिए। साधना करने के लिए सफेद कपड़ों का प्रयोग करना सर्वथा उचित रहता है।
2- साधना के लिए कुश के आसन पर बैठना चाहिए क्योंकि कुश उष्मा का सुचालक होता है। और जिससे मंत्रोचार से उत्पन्न उर्जा हमारे शरीर में समाहित होती है।
3- मेरूदण्ड हमेशा सीधा रखना चाहिए, ताकि सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह आसानी से हो सके।
4- साधारण जप में तुलसी की माला का प्रयोग करना चाहिए। कार्य सिद्ध की कामना में चन्दन या रूद्राक्ष की माला प्रयोग हितकर रहता है।
5- ब्रह्रममुहूर्त में उठकर ही साधना करना चाहिए क्योंकि प्रातः काल का समय शुद्ध वायु से परिपूर्ण होता है। साधना नियमित और निश्चित समय पर ही की जानी चाहिए।
6- अक्षत, अंगुलियों के पर्व, पुष्प आदि से मंत्र जप की संख्या नहीं गिननी चाहिए।
7- मंत्र शक्ति का अनुभव करने के लिए कम से कम एक माला नित्य जाप करना चाहिए।
8- मंत्र का जप प्रातः काल पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए एंव सांयकाल में पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करना श्रेष्ठ माना गया है।
2…तन्त्रोक्त माला संस्कार / प्राण-प्रतिष्ठा विधि
मंत्र जप -अनुष्ठान-साधना-पूजा में जप माला की आवश्यकता होती है |बहुत कम ही ऐसी साधनाये है जिसमेमाला का जरूरत न हो |माला बाजार से सीधे खरीदकर जप नहीं किया जा सकता ,इस तरह की माला पर जप बहुत प्रभावी नहीं होता ,इसलिये माला प्राण-प्रतिष्ठा विधि-विधान अत्यंत आवश्यक है| सभी की ऐसी इच्छा रहती है की मेरे पास दुर्लभ माला रहे जिससे मेरी हरकामना पूर्ण हो,, परंतु आजकल मार्केट मे ऐसा माला नहीं मिलता,|इसके लिए एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार माल की प्राण प्रतिष्ठा और उसमे चैतन्यता की आवश्यकता होती है | अगर पत्थर मे जान डालकर उनका पूजन हो सकता है तो फिर माला का हर मनका भी जीवित किया जा सकता है | इसके लिए तंत्रानुसार निम्न प्रक्रिया अपनाई जा सकती है ,यद्यपि भिन्न लोग भिन्न प्रक्रिया भी अपना सकते है ,साथ ही कई प्रक्रियाएं इस सम्बन्ध में उपयोग में आती है |
सर्वप्रथम स्नान आदि से शुद्ध हो कर अपने पूजा गृह में पूर्व या उत्तर की ओर मुह कर आसन पर बैठ जाए| अब सर्व प्रथम आचमन – पवित्रीकरण करने के बाद गणेश -गुरु तथा अपने इष्ट देव/ देवी का पूजन सम्पन्न कर ले| …
मुख शोधन करे :
“क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्लीं क्लीं क्लीं”
इस मंत्र का १० बार जाप करने से मुख शोधन होगा…
स्व-गुरु पूजन :-
श्रीगुरुनाथ श्री पादुकां पुजयामी । परमगुरु श्री पादुकां पुजयामी । परापरगुरु श्री पादुकां पुजयामी । परमेष्टिगुरुनाथ श्री पादुकां पुजयामी ।
गुरुमंत्र का कम से कम एक माला जाप करे और गुरुजी से सफलता हेतु प्रार्थना करे….
निम्न मंत्र बोलकर गुरुचरनोमे भक्ति-भाव से पुष्प समर्पित कीजिये…
अभीष्ट सिद्धिम मे देही शरनागतवस्तले। भक्त्या समर्पये तुभ्यं गुरुपंक्तिप्रपूजनम॥
तत्पश्चात पीपल के 09 पत्तो को भूमि पर अष्टदल कमल की भाती बिछा ले ! एक पत्ता मध्य में तथा शेष आठ पत्ते आठ दिशाओ में रखने से अष्टदल कमल बनेगा ! इन पत्तो के ऊपर आप माला को रख दे ! अब अपने समक्ष पंचगव्य तैयार कर के रख ले किसी पात्र में और उससे माला को प्रक्षालित ( धोये ) करे ! गाय से उत्पन्न दूध , दही , घी , गोमूत्र , गोबर इन पांच वस्तुओं को मिलाने से पंचगव्य बनता है ! पंचगव्य से माला को स्नान करना है – स्नान करते हुए अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर -व्यंजन का उच्चारण करे ! – ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं !! यह उच्चारण करते हुए माला को पंचगव्य से धोले ध्यान रखे इन समस्त स्वर का अनुनासिक उच्चारण होगा !इसके बाद माला को जल से धो ले –
ॐ सद्यो जातं प्रद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः
भवे भवे नाति भवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः !!
अब माला को साफ़ वस्त्र से पोछे और निम्न मंत्र बोलते हुए माला के प्रत्येक मनके पर चन्दन- कुमकुम आदि का तिलक करे –
ॐ वामदेवाय नमः जयेष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कल विकरणाय नमो बलविकरणाय नमः !
बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूत दमनाय नमो मनोनमनाय नमः !!
अब धूप जला कर माला को धूपित करे और मंत्र बोले –
ॐ अघोरेभ्योथघोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्व शर्वेभया नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य:
अब माला को अपने हाथ में लेकर दाए हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र का १०८ बार जप कर उसको अभिमंत्रित करे –
ॐ ईशानः सर्व विद्यानमीश्वर सर्वभूतानाम ब्रह्माधिपति ब्रह्मणो अधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम !!
अब साधक माला की प्राण – प्रतिष्ठा हेतु अपने दाय हाथ में जल लेकर विनियोग करे –
ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु रुद्रा ऋषय: ऋग्यजु:सामानि छन्दांसि प्राणशक्तिदेवता आं बीजं ह्रीं शक्ति क्रों कीलकम अस्मिन माले प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः !!
अब माला को बाएं हाथ में लेकर दायें हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र बोलते हुए ऐसी भावना करे कि यह माला पूर्ण चैतन्य व शक्ति संपन्न हो रही है !
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम प्राणा इह प्राणाः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम जीव इह स्थितः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम सर्वेन्द्रयाणी वाङ् मनसत्वक चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राणा इहागत्य इहैव सुखं तिष्ठन्तु स्वाहा !
ॐ मनो जूतिजुर्षतामाज्यस्य बृहस्पतिरयज्ञमिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु विश्वे देवास इह मादयन्ताम् ॐ प्रतिष्ठ !!
२४ बार गायत्री मंत्र बोलकर माला पर जल चढ़ाये, जिससे माला का शुद्धिकरण हो जाये और मंत्र जाप मे किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगे. .माला का गन्ध अक्षत और पुष्प से पूजन करके प्रार्थना करे…
ॐ माले माले महामाले, सर्वशक्तिस्वरूपिणी । चतुर्वर्गस्त्वयिन्यस्तस्तस्मात्वं सिद्धिदा भव॥
माला को चैतन्य करने के लिये चेतना बीज मंत्रोसे माला के हर मणि को कुंकुम का बिंदी लगाये
चेतना बीज मंत्र :- “क्लीं श्रीं ह्रीं फट”
अब माला का स्तुति करते हुये माला को दाहिने हाथ से ग्रहण करे
ॐ अविघ्नंकुरु माले त्वं जपकाले सदा मम। त्वं माले सर्वमन्त्रानामभीष्टसिद्धिकरी भव ॥
आप जिस प्रकार का माला चाहते है जैसे गुरुमंत्र जाप माला, दशमहाविद्या, महामृत्युंजय,
नवग्रह माला, तो इस के लिये आप संबन्धित देवी/ देवता काआवाहन माला मे करे या इष्ट से प्रार्थना करे के उनके प्रसन्नता प्राप्त करने हेतु “अमुक मंत्र जाप हेतु माला मे अमुक शक्ति की स्थापना हो “और अपने इष्ट का आज्ञा चक्र मे ध्यान करे…
कुल्लुका मंत्र का करमाला (उंगली से) से शिर पर १० बार जाप करे
“क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट”
अब माला को हाथ मे लेकर निम्न मंत्र का आवश्यक संख्या मे जाप प्रारम्भ करे
तान्त्रोक्त माला मंत्र :-
ॐ ऐं श्रीं सर्व माला मणि माला सिद्धिप्रदायत्री शक्तिरूपीन्यै श्रीं ऐं नम:
मंत्र जाप के बाद माला को शिर पर रखे और प्रार्थना करे…
माले त्वं सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव ।
शुभं कुरुष्व मे देवी यशोवीर्य ददस्व मे ॥
माला को शिर से उतारकर पुष्प समर्पित कर दे॰ सदगुरुजी भगवान को सर्व विधि-विधान हाथ मे जल लेकर जल के रूप मे समर्पित कर दीजिये और क्षमा प्रार्थना भी करनी है|
अब माला को अपने मस्तक से लगा कर पूरे सम्मान सहित स्थान दे ! इतने संस्कार करने के बाद माला जप करने योग्य शुद्ध तथा सिद्धिदायक होती है ! नित्य जप करने से पूर्व माला का संक्षिप्त पूजन निम्न मंत्र से करने के उपरान्त जप प्रारम्भ करे –
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ साधिनी साधय-साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय मे स्वाहा ! ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः !
जप करते समय माला पर किसी कि दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए ! गोमुख रूपी थैली ( गोमुखी ) में माला रखकर इसी थैले में हाथ डालकर जप किया जाना चाहिए अथवा वस्त्र आदि से माला आच्छादित कर ले अन्यथा जप निष्फल होता है !
यह एक सामान्य प्रक्रिया है जो सामान्य साधक उपयोग में ले सकते हैं |इस सम्बन्ध में योग्य जानकार से परामर्श लें और मंत्रादी की शुद्धि जांच लें …
3….जानिए षट्कर्म के बारे में :-
भारतीय वेद षास्त्रों में अनेक प्रकार के अनुश्ठान आदि बताए गए हैं, किसी को अपनी ओर आकर्शित करने से लेकर उसे स्तंभित करने या उसे अपने पक्ष में कर लेने तक। सभी मंत्र-तंत्र-यंत्र में षट्कर्मों की साधना बताई गई है।
1:- शरीर व मन के रोगों की शांति, क्लेश की शांति, उपद्रवों की समाप्ति, ग्रह-बाधा के कुप्रभावों की समाप्ति, आपत्ति व कष्ट निवारण, पाप विमोचन, ऋद्धि, सिद्धि या सुख-शांति के उपाय व दरिद्रता निवारण इत्यादि की साधना को शांति कर्म कहते हैं।
2:-किसी को अपनी तरफ मोहित कर लेना मोहन कर्म है। किसी को आकृष्ट कर अनुकूल बनाकर अपना काम करवा लेना आकर्षण कहा गया है।किसी को शुभ या अशुभ कार्य करने के लिए प्रयोजन पूर्वक वशीभूत कर देना वशीकरण है।
3:-किसी की चाल-ढाल को बंद कर देना। सजीव या निर्जीव को जहां का तहां रोक देना, बंधन में डाल देना, निष्क्रिय या स्थिर कर देना, शत्रु के अस्त्र-शस्त्र को रोक देना, अग्नि के तेज को रोक देना, विरोधी की जीभ, मुख आदि को रोक देना इत्यादि स्तम्भन कर्म कहलाता है।
4:-किसी के मन में शंका पैदा कर भयभीत या भ्रमित बनाकर भगा देना या स्थानांतरित कर देना उच्चाटन होता है। साध्य व्यक्ति मारा-मारा फिरता है। पागल की तरह हो जाता है। घर-स्थान छोड़कर भाग जाता है।
5:-किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति से अलग करना, किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कलह-क्लेश उत्पन्न करवाकर एक दूसरे का शत्रु बना देना विद्वेषण कर्म कहलाता है।
6:-किसी का प्राण हरण कर उसका जीवन समाप्त कर देना या करवा देना। मरण तुल्य कष्ट देना मारण कर्म कहलाता है।
1. शांति कर्म: 2. मोहन, आकर्षण, वशीकरण: 3. स्तंभन कर्म: 4. उच्चाटन कर्म: 5. विद्वेषण कर्म: 6. मारण कर्म: प्रथम तीन कर्म समान्यतः अपने कष्ट निवारण हेतु किए जाते हैं।
इनमें दूसरे के प्रति कोई विद्वेषण की भावना नहीं होती। लेकिन आखिरी तीन कर्म विद्वेषण की भावना से ही किए जाते हैं अतः उनका प्रयोग सर्वदा वर्जित ही है। उपरोक्त सभी साधनाएं अनुष्ठान रूप में किसी ब्राह्मण द्वारा कराई जानी चाहिए।
इन प्रयोगों में आवष्यक है कि अनुश्ठान करने वाला ब्राह्मण सदाचारी रहे। जातक के प्रति उसकी सद्भावना हो। सभी साधनाएं निश्चित मात्रा में (प्रायः सवा लाख) मंत्र जप द्वारा उनके यंत्रों को प्रतिष्ठित कर की जाती है। तदुपरांत हवन, मार्जन व तर्पण कर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है। प्रतिष्ठित यंत्र को कार्य पूर्ण होने तक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है। कार्य सिद्ध होने के बाद यंत्र को विसर्जित कर दिया जाता है।
4…(बगला उत्पत्ति
एक बार समुद्र में संशय नामक राक्षस ने बहुत बड़ा प्रलय मचाया, विष्णु उसका संहार नहीं कर सके तो उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप महा-त्रिपुर-सुन्दरी की आराधना की तो श्रीविद्या ने ही ‘बगला’ रुप में प्रकट होकर संशय राक्षस का वध किया । मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकर-कुल नक्षत्रों से युक्त वीर-रात्रि कही जाती है । इसी अर्द्ध-रात्रि में श्री बगला का आविर्भाव हुआ था । मकर-कुल नक्षत्र – भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण तथा उत्तर-भाद्रपद नक्षत्र है । बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है । वैदिक शब्द ‘वल्गा’ कहा है, जिसका अर्थ कृत्या सम्बन्ध है, जो बाद में अपभ्रंश होकर बगला नाम से प्रचारित हो गया ।
बगलामुखी शत्रु-संहारक विशेष है अतः इसके दक्षिणाम्नायी पश्चिमाम्नायी मंत्र अधिक मिलते हैं । नैऋत्य व पश्चिमाम्नायी मंत्र प्रबल संहारक व शत्रु को पीड़ा कारक होते हैं । इसलिये इसका प्रयोग करते समय व्यक्ति घबराते हैं । वास्तव में इसके प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिये । ऐसी बात नहीं है कि यह विद्या शत्रु-संहारक ही है, ध्यान योग में इससे विशेष सहयता मिलती है । यह विद्या प्राण-वायु व मन की चंचलता का स्तंभन कर ऊर्ध्व-गति देती है, इस विद्या के मंत्र के साथ ललितादि विद्याओं के कूट मंत्र मिलाकर भी साधना की जाती है । बगलामुखी मंत्रों के साथ ललिता, काली व लक्ष्मी मंत्रों से पुटित कर व पदभेद करके प्रयोग में लाये जा सकते हैं । इस विद्या के ऊर्ध्व-आम्नाय व उभय आम्नाय मंत्र भी हैं, जिनका ध्यान योग से ही विशेष सम्बन्ध रहता है । त्रिपुर सुन्दरी के कूट मन्त्रों के मिलाने से यह विद्या बगलासुन्दरी हो जाती है, जो शत्रु-नाश भी करती है तथा वैभव भी देती है ।
बगलामुखी की साधना :-
बगलामुखी देवी की गणना दस महाविद्याओं में है तथा संयम-नियमपूर्वक बगलामुखी के पाठ-पूजा, मंत्र जाप, अनुष्ठान करने से उपासक को सर्वाभीष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है। शत्रु विनाश, मारण-मोहन, उच्चाटन, वशीकरण के लिए बगलामुखी से बढ़ कर कोई साधना नहीं है। मुकद्दमे में इच्छानुसार विजय प्राप्ति कराने में तो यह रामबाण है। बाहरी शत्रुओं की अपेक्षा आंतरिक शत्रु अधिक प्रबल एवं घातक होते हैं। अतः बगलामुखी साधना की, मानव कल्याण, सुख-समृद्धि हेतु, विशेष उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। यथेच्छ धन प्राप्ति, संतान प्राप्ति, रोग शांति, राजा को वश में करने हेतु कारागार (जेल) से मुक्ति, शत्रु पर विजय, मारण आदि प्रयोगों हेतु प्राचीन काल से ही बगलामुखी प्रयोग द्वारा लोगों की इच्छा पूर्ति होती रही है।
आज भी राजनीतिज्ञगण इस महाविद्या की साधना करते हैं। चुनावों के दौरान प्रत्याशीगण मां का आशीर्वाद लेने उनके मंदिर अवश्य जाते हैं।
भारतवर्ष में इस शक्ति के केवल तीन ही शक्ति पीठ हैं – 1)कामाख्या 2) हिमाचल में ज्वालामुखी से 22 किमी दूर वनखंडी नामक स्थान पर। और 3) दतिया में पीतांबरा पीठ
महर्षि च्यवन ने इसी विद्या के प्रभाव से इन्द्र के वज्र को स्तम्भित कर दिया था । आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु श्रीमद्-गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने पर रेवा नदी का स्तम्भन इसी विद्या के प्रभाव से किया था । महामुनि निम्बार्क ने एक परिव्राजक को नीम के वृक्ष पर सूर्य के दर्शन इसी विद्या के प्रभाव से कराए थे । इसी विद्या के कारण ब्रह्मा जी सृष्टि की संरचना में सफल हुए ।
श्री बगला शक्ति कोई तामसिक शक्ति नहीं है, बल्कि आभिचारिक कृत्यों से रक्षा ही इसकी प्रधानता है । इस संसार में जितने भी तरह के दुःख और उत्पात हैं, उनसे रक्षा के लिए इसी शक्ति की उपासना करना श्रेष्ठ होता है । शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन संहिता के पाँचवें अध्याय की २३, २४ एवं २५वीं कण्डिकाओं में अभिचारकर्म की निवृत्ति में श्रीबगलामुखी को ही सर्वोत्तम बताया है । शत्रु विनाश के लिए जो कृत्या विशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उन्हें नष्ट करने वाली महा-शक्ति श्रीबगलामुखी ही है ।
त्रयीसिद्ध विद्याओं में आपका पहला स्थान है । आवश्यकता में शुचि-अशुचि अवस्था में भी इसके प्रयोग का सहारा लेना पड़े तो शुद्धमन से स्मरण करने पर भगवती सहायता करती है । लक्ष्मी-प्राप्ति व शत्रुनाश उभय कामना मंत्रों का प्रयोग भी सफलता से किया जा सकता है ।
देवी को वीर-रात्रि भी कहा जाता है, क्योंकि देवी स्वम् ब्रह्मास्त्र-रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र-महारुद्र तथा मृत्युञ्जय-महादेव कहा जाता है, इसीलिए देवी सिद्ध-विद्या कहा जाता है । विष्णु भगवान् श्री कूर्म हैं तथा ये मंगल ग्रह से सम्बन्धित मानी गयी हैं ।
शत्रु व राजकीय विवाद, मुकदमेबाजी में विद्या शीघ्र-सिद्धि-प्रदा है । शत्रु के द्वारा कृत्या अभिचार किया गया हो, प्रेतादिक उपद्रव हो, तो उक्त विद्या का प्रयोग करना चाहिये ।
बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना :-
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बगला उपासना व दश महाविद्याओं में मंत्र जाग्रति हेतु शापोद्धार मंत्र, सेतु, महासेतु, कुल्कुलादि मंत्र का जप करना जरुरी है । अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी व अन्य विषय साधकों के लिये आवश्यक है ।
नाम – बगलामुखी, पीताम्बरा, ब्रह्मास्त्र-विद्या ।
आम्नाय – मुख आम्नाय दक्षिणाम्नाय हैं इसके उत्तर, ऊर्ध्व व उभयाम्नाय मंत्र भी हैं ।
आचार – इस विद्या का वामाचार क्रम मुख्य है, दक्षिणाचार भी है ।
कुल – यह श्रीकुल की अंग-विद्या है ।
शिव – इस विद्या के त्र्यंबक शिव हैं ।
भैरव – आनन्द भैरव हैं । कई विद्वान आनन्द भैरव को प्रमुख शिव व त्र्यंबक को भैरव बताते हं ।
गणेश – इस विद्या के हरिद्रा-गणपति मुख्य गणेश हैं । स्वर्णाकर्षण भैरव का प्रयोग भी उपयुक्त है ।
यक्षिणी – विडालिका यक्षिणी का मेरु-तंत्र में विधान है । प्रयोग हेतु अंग-विद्यायें -मृत्युञ्जय, बटुक, आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, पार्जन्यास्त्र, संमोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, कुल्लुका, तारा स्वप्नेश्वरी, वाराही मंत्र की उपासना करनी चाहिये ।
कुल्लुका – “ॐ क्ष्रौं” अथवा “ॐ हूँ क्षौं” शिर में १० बार जप करना ।
सेतु – कण्ठ में १० बार “ह्रीं” मंत्र का जप करें ।
महासेतु – “स्त्रीं” इसका हृदय में १० बार जप करें ।
निर्वाण – हूं, ह्रीं श्रीं से संपुटित करे एवं मंत्र जप करें । दीपन पुरश्चरण आदि में “ईं” से सम्पुटित मंत्र का जप करें ।
जीवन – मूल मंत्र के अंत में ” ह्रीं ओं स्वाहा” १० बार जपे । नित्य आवश्यक नहीं है ।
मुख-शोधन – “हं ह्रीं ऐं” मुख में १० बार मंत्र जप करें ।
शापोद्धार – “ॐ ह्लीं बगले रुद्रशायं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा” १० बार जपे ।
उत्कीलन – “ॐ ह्लीं स्वाहा” मंत्र के आदि में १० बार जपे ।….
बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र –
|| ॐ ह्लीं ॐ ||
‘’ ह्लीं ‘’ को स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है ।
(सांख्यायन तन्त्र)
विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास
ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे –
वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः,
श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।।
एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे ।
विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर ‘शाम्यति’ ।
मंत्र महोदधि में बगलामुखी साधना के बारे में विस्तार से दिया हुआ है।
साधना में सावधानियां बगलामुखी तंत्र के विषय में बतलाया गया है – बगलासर्वसिद्धिदा सर्वाकामना वाप्नुयात’ अर्थात बगलामुखी देवी का स्तवन पूजा करने वालों की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं।
‘सत्ये काली च अर्थात बगला शक्ति को त्रिशक्तिरूपिणी माना गया है। वस्तुतः बगलामुखी की साधना में साधक भय से मुक्त हो जाता है। किंतु बगलामुखी की साधना में कुछ विशेष सावधानियां बरतना अनिवार्य है जो इस प्रकार हैं। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। साधना क्रम में स्त्री का स्पर्श या चर्चा नहीं करनी चाहिए। साधना डरपोक या बच्चों को नहीं करनी चाहिए।
बगलामुखी देवी अपने साधक को कभी-कभी भयभीत भी करती हैं। अतः दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति वाले साधक ही साधना करें। साधना आरंभ करने से पूर्व गुरु का ध्यान और पूजा अनिवार्य है। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं। अतः साधना से पूर्व महामृत्यंजय का कम से कम एक माला जप अवश्य करें। वस्त्र, आसन आदि पीले होने चाहिए। साधना उत्तर की ओर मुंह कर के ही करें। मंत्र जप हल्दी की माला से करें। जप के बाद माला गले में धारण करें। ध्यान रखें, साधना कक्ष में कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न करे, न ही कोई माला का स्पर्श करे। साधना रात्रि के 8.00 से भोर 3.00 बजे के बीच ही करें। मंत्र जप की संख्या अपनी क्षमतानुसार निश्चित करें, फिर उससे न तो कम न ही अधिक जप करें। मंत्र जप 16 दिन में पूरा हो जाना चाहिए। मंत्र जप के लिए शुक्ल पक्ष या नवरात्रि सर्वश्रेष्ठ समय है। मंत्र जप से पहले संकल्प हेतु जल हाथ में लेकर अपनी इच्छा स्पष्ट रूप से बोल कर व्यक्त करें। साधना काल में इसकी चर्चा किसी से न करें। साधना काल में अपने बायीं ओर तेल का तथा अपने दायीं ओर घी का अखंड दीपक जलाएं।
उपासना विधि :- किसी भी शुभ मुहूर्त में सोने, चांदी, या तांबे के पत्र पर मां बगलामुखी के यंत्र की रचना करें। यंत्र यथासंभव उभरे हुए रेखांकन में हो। इस यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर नियमित रूप से पूजा करें। इस यंत्र को रविपुष्य या गुरुपुष्य योग में मां बगलामुखी के चित्र के साथ स्थापित करें। फिर सब से पहले बगला माता का ध्यान कर विनियोग करें गणेशजी का पूजन, संकल्प , गुरुजी का पूजन , पंचदेवता पूजन, भैरव पूजन , भूतशुद्धि , कलशस्थापन प्राणप्रतिस्ठा , पीठमातृका न्यास , पीठपूजन करें | निम्न मंत्र पढ़कर विनियोग करें :-
विनियोग मंत्र :- ॐ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषिः त्रिष्टुपछंदः श्री बगलामुखी देवता ह्लीं बीजं स्वाहा शक्तिः ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।( दाएं हाथ में जल में जल लेकर मंत्र का उच्चारण करते हुए चित्र के आगे छोड़ दें )–
करन्यास :-
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ॐ ह्ल्रीम अगुष्ठाभ्यां नमः |
बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः |
वाचं मुखं पदं स्तंभय अनामिकाभ्यां नमः |
जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः |
बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः |
षडअंगन्यास :-
ॐ ह्ल्रीम हृदयाम नमः |
बगलामुखी शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां शिखायै वषट् |
वाचं मुखं पदं स्तम्भयं कवचाय हुंम |
जिह्वां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् |
बुद्धि विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्।
ध्यान :-
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मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेद्यां |
सिंहासनो परिगतां परिपीतवर्णाम् ||
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी |
देवी नजामि घृतमुद्गर वैरिजिहवाम्।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं। वामेन शत्रून् परिपीडयंतीम् ||
गदाभिघातेन व दक्षिणेन। पीतांबराढ्यां द्विभुजां नमामि।।
अब षोडशोपचार पूजन करने के बाद आवरण पूजा , स्तोत्र , सहस्त्रनाम , बगलहृदय पाठ करें पश्चात उपरोक्त उद्धृत बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना एवं प्राणायाम करके 36 अक्षर का मूल मंत्र जप करे ( प्रतिदिन कम से कम 5000 मंत्र जप आवश्यक है )
36 अक्षर का मंत्र –
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“ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।”
प्रणाम :-
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प्रपद्ये शर्णां देवी श्री कामाख्या स्वरूपिणीम् ।
शिवश्य दुहितां शुद्धां नमामि बगलामुखीम् ॥
अंतिम दिन दशांश हवन , ततदशांश तर्पण ततदशांश मार्जन ततदशांश ब्राह्मण भोजन भी करना आवश्यक है
विशेष :- 1)माँ बगलामुखी का बीज ‘’ ह्लीं ‘’ है , परंतु इसमे अग्नि बीज का संयुक्त कर ‘’ ह्ल्रीम ‘’ का जप करने पर मंत्र और भी शक्ति प्रदान करता है |
2) माँ बगलामुखी दशमहाविद्या में से हैं अतः गुरुवर के सान्निध्य में ही साधना करें अन्यथा हानि की आशंका रहती है ।
यदि शत्रु का प्रयोग या प्रेतोपद्रव भारी हो, तो मंत्र क्रम में निम्न विघ्न बन सकते हैं –
१॰ जप नियम पूर्वक नहीं हो सकेंगे ।
२॰ मंत्र जप में समय अधिक लगेगा, जिह्वा भारी होने लगेगी ।
३॰ मंत्र में जहाँ “जिह्वां कीलय” शब्द आता है, उस समय स्वयं की जिह्वा पर संबोधन भाव आने लगेगा, उससे स्वयं पर ही मंत्र का कुप्रभाव पड़ेगा ।
४॰ ‘बुद्धिं विनाशय’ पर परिभाषा का अर्थ मन में स्वयं पर आने लगेगा ।
सावधानियाँ :-
१॰ ऐसे समय में तारा मंत्र पुटित बगलामुखी मंत्र प्रयोग में लेवें, अथवा कालरात्रि देवी का मंत्र व काली अथवा प्रत्यंगिरा मंत्र पुटित करें । तथा कवच मंत्रों का स्मरण करें । सरस्वती विद्या का स्मरण करें अथवा गायत्री मंत्र साथ में करें ।
२॰ बगलामुखी मंत्र में “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” इस मंत्र में ‘सर्वदुष्टानां’ शब्द से आशय शत्रु को मानते हुए ध्यान-पूर्वक आगे का मंत्र पढ़ें ।
३॰ यही संपूर्ण मंत्र जप समय ‘सर्वदुष्टानां’ की जगह काम, क्रोध, लोभादि शत्रु एवं विघ्नों का ध्यान करें तथा ‘वाचं मुखं …….. जिह्वां कीलय’ के समय देवी के बाँयें हाथ में शत्रु की जिह्वा है तथा ‘बुद्धिं विनाशय’ के समय देवी शत्रु को पाशबद्ध कर मुद्गर से उसके मस्तिष्क पर प्रहार कर रही है, ऐसी भावना करें ।
४॰ बगलामुखी के अन्य उग्र-प्रयोग वडवामुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी, भानुमुखी, वृहद्-भानुमुखी, जातवेदमुखी इत्यादि तंत्र ग्रथों में वर्णित है । समय व परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करना चाहिये ।
५॰ बगला प्रयोग के साथ भैरव, पक्षिराज, धूमावती विद्या का ज्ञान व प्रयोग करना चाहिये ।
६॰ बगलामुखी उपासना पीले वस्त्र पहनकर, पीले आसन पर बैठकर करें । गंधार्चन में केसर व हल्दी का प्रयोग करें, स्वयं के पीला तिलक लगायें । दीप-वर्तिका पीली बनायें । पीत-पुष्प चढ़ायें, पीला नैवेद्य चढ़ावें । हल्दी से बनी हुई माला से जप करें । अभाव में रुद्राक्ष माला से जप करें | अन्य किसी माला से जप कभी न करें |
.2…पीताम्बरा बगलामुखी खड्ग मालामन्त्र
यह स्तोत्र शत्रुनाश एवं कृत्यानाश, परविद्या छेदन करने वाला एवं रक्षा कार्य हेतु प्रभावी है । साधारण साधकों को कुछ समय आवेश व आर्थिक दबाव रहता है, अतः पूजा उपरान्त नमस्तस्यादि शांति स्तोत्र पढ़ने चाहिये ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरा बगलामुखी खड्गमाला मन्त्रस्य नारायण ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, ॐ कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
हृदयादि-न्यासः-नारायण ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, ॐ कीलकाय नमः नाभौ, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास –
ॐ ह्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
वाचं मुखं पद स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
ध्यानः-
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे –
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का मानस पूजन करें –
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
खड्ग-माला-मन्त्रः-
ॐ ह्लीं सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तम्भय-स्तम्भय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु अपस्मारं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिका दन्तोष्ठ जिह्वा तालु-कण्ठ बाहूदर कुक्षि नाभि पार्श्वद्वय गुह्य गुदाण्ड त्रिक जानुपाद सर्वांगेषु पादादिकेश-पर्यन्तं केशादिपाद-पर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्म-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष, सर्व-ग्रहान् निवारय-निवारय सर्वम् अविधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हन-हन दारिद्रयं निवारय निवारय, सर्व-मन्त्र-स्वरुपिणि सर्व-शल्य-योग-स्वरुपिणि दुष्ट-ग्रह-चण्ड-ग्रह भूतग्रहाऽऽकाशग्रह चौर-ग्रह पाषाण-ग्रह चाण्डाल-ग्रह यक्ष-गन्धर्व-किंनर-ग्रह ब्रह्म-राक्षस-ग्रह भूत-प्रेतपिशाचादीनां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्वदिशं बन्धय-बन्धय, वाराहि बगलामुखी मां रक्ष-रक्ष दक्षिणदिशं बन्धय-बन्धय, किरातवाराहि मां रक्ष-रक्ष पश्चिमदिशं बन्धय-बन्धय, स्वप्नवाराहि मां रक्ष-रक्ष उत्तरदिशं बन्धय-बन्धय, धूम्रवाराहि मां रक्ष-रक्ष सर्वदिशो बन्धय-बन्धय, कुक्कुटवाराहि मां रक्ष-रक्ष अधरदिशं बन्धय-बन्धय, परमेश्वरि मां रक्ष-रक्ष सर्वरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्व-शत्रु-पलायनाय सर्व-शत्रु-कुलं मूलतो नाशय-नाशय, शत्रूणां राज्यवश्यं स्त्रीवश्यं जनवश्यं दह-दह पच-पच सकल-लोक-स्तम्भिनि शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय स्तम्भनमोहनाऽऽकर्षणाय सर्व-रिपूणाम् उच्चाटनं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं क्लीं ऐं वाक्-प्रदानाय क्लीं जगत्त्रयवशीकरणाय सौः सर्वमनः क्षोभणाय श्रीं महा-सम्पत्-प्रदानाय ग्लौं सकल-भूमण्डलाधिपत्य-प्रदानाय दां चिरंजीवने । ह्रां ह्रीं ह्रूं क्लां क्लीं क्लूं सौः ॐ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय राजस्तम्भिनि क्रों क्रों छ्रीं छ्रीं सर्वजन संमोहिनि सभास्तंभिनि स्त्रां स्त्रीं सर्व-मुख-रञ्जिनि मुखं बन्धय-बन्धय ज्वल-ज्वल हंस-हंस राजहंस प्रतिलोम इहलोक परलोक परद्वार राजद्वार क्लीं क्लूं घ्रीं रुं क्रों क्लीं खाणि खाणि , जिह्वां बन्धयामि सकलजन सर्वेन्द्रियाणि बन्धयामि नागाश्व मृग सर्प विहंगम वृश्चिकादि विषं निर्विषं कुरु-कुरु शैलकानन महीं मर्दय मर्दय शत्रूनोत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय महोग्रभूतजातं बन्धयामि बन्धयामि अतीतानागतं सत्यं कथय-कथय लक्ष्मीं प्रददामि-प्रददामि त्वम् इह आगच्छ आगच्छ अत्रैव निवासं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगले परमेश्वरि हुं फट् स्वाहा ।
विशेषः- मूलमन्त्रवता कुर्याद् विद्यां न दर्शयेत् क्वचित् ।
विपत्तौ स्वप्नकाले च विद्यां स्तम्भिनीं दर्शयेत् ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।
प्रकाशनात् सिद्धहानिः स्याद् वश्यं मरणं भवेत् ।
दद्यात् शानताय सत्याय कौलाचारपरायणः ।
दुर्गाभक्ताय शैवाय मृत्युञ्जयरताय च ।
तस्मै दद्याद् इमं खड्गं स शिवो नात्र संशयः ।
अशाक्ताय च नो दद्याद् दीक्षाहीनाय वै तथा ।
न दर्शयेद् इमं खड्गम् इत्याज्ञा शंकरस्य च ।।
।। श्रीविष्णुयामले बगलाखड्गमालामन्त्रः ।।
5….ये हैं श्री गणेश की 32 मंगलमूर्तियां श्री गणेश बुद्धि और विद्या के देवता है। जीवन को विघ्र और बाधा रहित बनाने के लिए श्री गणेश उपासना बहुत शुभ मानी जाती है। इसलिए हिन्दू धर्म के हर मंगल कार्य में सबसे पहले भगवान गणेश की उपासना की परंपरा है। माना जाता है कि श्री गणेश स्मरण से मिली बुद्धि और विवेक से ही व्यक्ति अपार सुख, धन और लंबी आयु प्राप्त करता है।
धर्मशास्त्रों में भगवान श्री गणेश के मंगलमय चरित्र, गुण, स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। भगवान को आदिदेव मानकर परब्रह्म का ही एक रूप माना जाता है। यही कारण है कि अलग-अलग युगों में श्री गणेश के अलग-अलग अवतारों ने जगत के शोक और संकट का नाश किया। इसी कड़ी में शास्त्रों में बताए गए है भगवान श्री गणेश के 32 मंगलकारी स्वरूप –
श्री बाल गणपति – छ: भुजाओं और लाल रंग का शरीर
श्री तरुण गणपति – आठ भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री भक्त गणपति – चार भुजाओं वाला सफेद रंग का शरीर
श्री वीर गणपति – दस भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री शक्ति गणपति – चार भुजाओं वाला सिंदूरी रंग का शरीर
श्री द्विज गणपति – चार भुजाधारी शुभ्रवर्ण शरीर
श्री सिद्धि गणपति – छ: भुजाधारी पिंगल वर्ण शरीर
श्री विघ्न गणपति – दस भुजाधारी सुनहरी शरीर
श्री उच्चिष्ठ गणपति – चार भुजाधारी नीले रंग का शरीर
श्री हेरम्भ गणपति – आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री उद्ध गणपति – छ: भुजाधारी कनक यानि सोने के रंग का शरीर
श्री क्षिप्र गणपति – छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री लक्ष्मी गणपति – आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री विजय गणपति – चार भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री महागणपति – आठ भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री नृत्त गणपति – छ: भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री एकाक्षर गणपति – चार भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री हरिद्रा गणपति – छ: भुजाधारी पीले रंग का शरीर
श्री त्र्यैक्ष गणपति – सुनहरे शरीर, तीन नेत्रों वाले चार भुजाधारी
श्री वर गणपति – छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री ढुण्डि गणपति – चार भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर
श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति – छ: भुजाधारी रक्ववर्णी, त्रिनेत्र धारी
श्री ऋण मोचन गणपति – चार भुजाधारी लालवस्त्र धारी
श्री एकदन्त गणपति – छ: भुजाधारी श्याम वर्ण शरीरधारी
श्री सृष्टि गणपति – चार भुजाधारी, मूषक पर सवार रक्तवर्णी शरीरधारी
श्री द्विमुख गणपति – पीले वर्ण के चार भुजाधारी और दो मुख वाले
श्री उद्दण्ड गणपति – बारह भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर वाले, हाथ में कुमुदनी और अमृत का पात्र होता है।
श्री दुर्गा गणपति – आठ भुजाधारी रक्तवर्णी और लाल वस्त्र पहने हुए।
श्री त्रिमुख गणपति – तीन मुख वाले, छ: भुजाधारी, रक्तवर्ण शरीरधारी
श्री योग गणपति – योगमुद्रा में विराजित, नीले वस्त्र पहने, चार भुजाधारी
श्री सिंह गणपति – श्वेत वर्णी आठ भुजाधारी, सिंह के मुख और हाथी की सूंड वाले
श्री संकष्ट हरण गणपति – चार भुजाधारी, रक्तवर्णी शरीर, हीरा जडि़त मुकूट पहने।
6….श्री अष्टलक्ष्मी स्तोत्र आदिलक्ष्मी सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवी चन्द्र सहोदरी हेममये | मुनिगणमंडित मोक्षप्रदायिनी मंजुलभाषिणी वेदनुते ||
पंकजवासिनी देवसुपुजित सद्रुणवर्षिणी शांतियुते | जय जय हे मधुसुदन कामिनी आदिलक्ष्मी सदा पली माम ||१|| धान्यलक्ष्मी |अहिकली कल्मषनाशिनि कामिनी वैदिकरुपिणी वेदमये | क्षीरमुद्भव मंगलरूपिणी मन्त्रनिवासिनी मन्त्रनुते | |
मंगलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पाद्युते | जय जय हे मधुसुदन कामिनी धान्यलक्ष्मी सदा पली माम|| २||
|| धैर्यलक्ष्मी ||जयवरवर्णिनी वैष्णवी भार्गवी मन्त्रस्वरूपिणी मन्त्रम्ये |सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनी शास्त्रनुते ||
भवभयहारिणी पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते |
जय जय हे मधुसुदन कामिनी धैर्यलक्ष्मी सदा पले माम ||३||
|| गजलक्ष्मी || जयजय दुर्गतिनाशिनी कामिनी सर्वफलप्रद शास्त्रमये |रथगज तुरगपदादी समावृत परिजनमंडित लोकनुते ||
हरिहर ब्रम्हा सुपूजित सेवित तापनिवारिणी पादयुते |
जय जय हे मधुसुदन कामिनी गजलक्ष्मी रूपेण पले माम ||४||
|| संतानलक्ष्मी || अहिखग वाहिनी मोहिनी चक्रनि रागविवर्धिनी लोकहितैषिणी स्वरसप्त भूषित गाननुते सकल सूरासुर देवमुनीश्वर ||
मानववन्दित पादयुते |
जय जय हे मधुसुदन कामिनी संतानलक्ष्मी त्वं पालय माम || ५ ||
|| विजय लक्ष्मी ||जय कमलासनी सद्रतिदायिनी ज्ञानविकासिनी गानमये |अनुदिनमर्चित कुमकुमधूसर-भूषित वासित वाद्यनुते ||कनकधस्तुति वैभव वन्दित शंकर देशिक मान्य पदे |जय जय हे मधुसुदन कामिनी विजयलक्ष्मी सदा पालय माम ||६ ||
|| विद्यालक्ष्मी || प्रणत सुरेश्वरी भारती भार्गवी शोकविनासिनी रत्नमये |मणिमयभूषित कर्णविभूषण शांतिसमवृत हास्यमुखे || नवनिधिदायिनी कलिमहरिणी कामित फलप्रद हस्त युते | जय जय हे मधुसुदन कामिनीविद्यालक्ष्मी सदा पालय माम ||
|| धनलक्ष्मी || धिमिधिमी धिंधिमी धिंधिमी धिंधिमी दुन्दुभी नाद सुपूर्णमये | घूमघूम घुंघुम घुंघुम घुंघुम शंखनिनाद सुवाद्यनुते || वेदपूराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते |जय जय हे मधुसुदन कामिनी धनलक्ष्मी रूपेण पालय माम || माता लक्ष्मी की कृपा पाने के लिये माँ लक्ष्मी के अष्टरुपों का नियमित स्मरण करना शुभ फलदायक माना गया है. अष्टलक्ष्मी स्त्रोत कि विशेषता है की इसे करने से व्यक्ति को धन और सुख-समृ्द्धि दोनों की प्राप्ति होती है. घर-परिवार में स्थिर लक्ष्मी का वास बनाये रखने में यह विशेष रुप से शुभ माना जाता है. अगर कोई भक्त यदि माता लक्ष्मी के अष्टस्त्रोत के साथ श्री यंत्र को स्थापित कर उसकी भी नियमित रुप से पूजा-उपासना करता है, तो उसके व्यापार में वृद्धि व धन में बढोतरी होती है
7…योगिनीतंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान होजाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जानेकी वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे।इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नहीहोगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एकऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँखोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करताहै। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोगजो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नहीमिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापरतथा त्रेता युग में ही मिलेगा.
तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा कीकलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजाअर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा?
इस पर शिव जी ने कहा की कलयुगमें तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधकको बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने केलिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा।
परन्तु ऐसा करने के लिएसाधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने कीतीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एकतांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।
मंत्र:मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एकसही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एकप्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पताचलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचाजा सकता है।
मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है।
मंत्रमन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करनाअथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकारमंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके।अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है।
तंत्र:श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोईबीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूपमें न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओंके सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि यावस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है।
तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है।जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहतेहैं।
यन्त्र:मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्टदूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकताहोती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसकाप्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जोतंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूरकरे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भीयन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्रइत्यादि।
यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिएजो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।
इसलिएएक सफल तांत्रिक साधक को मंत्र, तंत्र और यन्त्र का पूर्ण ज्ञान होनाचाहिए। विज्ञानं के प्रयोगों जैसे ही यदि तीनो में से किसी की भी मात्रा याप्रकार ग़लत हुई तो सफलता नही मिलेगी।

******************************* सर्व-यंत्र-मन्त्र-तंत्रोत्कीलन-स्तोत्र*********************

 ।। पार्वत्युवाच ।।

देवेश परमानन्द, भक्तानाम भयं प्रद !

आगमाः निगमाश्चैव, बीजं बीजोदयस्तथा ।।१।।

समुदायेन बीजानां, मन्त्रो मंत्रस्य संहिता ।

ऋषिच्छन्दादिकं भेदो, वैदिकं यामलादिकम् ।।२।।

धर्मोऽधर्मस्तथा ज्ञानं, विज्ञानं च विकल्पन ।

निर्विकल्प-विभागेन, तथा षट्-कर्म-सिद्धये ।।३।।

भुक्ति-मुक्ति-प्रकारश्च, सर्वं प्राप्तं प्रसादतः ।

कीलनं सर्व-मन्त्राणां, शंसयद् हृदये वचः ।।४।।

इति श्रुत्वा शिवा-नाथः, पार्वत्या वचनं शुभम् ।

उवाच परया प्रीत्या, मन्त्रोत्कीलनकं शिवां ।।५।।

।। शिव उचाव ।।

वरानने ! हि सर्वस्य, व्यक्ताव्यक्तस्य वस्तुनः ।

साक्षी-भूय त्वमेवासि, जगतस्तु मनोस्तथा ।।६।।

त्वया पृष्टं वरारोहे ! तद्वक्ष्याम्युत्कीलनम् ।

उद्दीपनं हि मंत्रस्य, सर्वस्योत्कीलनम भवेत् ।।७।।

पूरा तव मया भद्रे ! समाकर्षण-वश्यजा ।

मन्त्राणां कीलिता-सिद्धिः, सर्वे ते सप्त-कोटयः ।।८।।

तदानुग्रह-प्रीतस्त्वात्, सिद्धिस्तेषां फलप्रदा ।

येनोपायेन भवति, तं स्तोत्रं कथाम्यहम ।।९।।

श्रृणु भद्रेऽत्र सततमावाम्यामखिलं जगत् ।

तस्य सिद्धिर्भवेत्तिष्ठे, माया येषां प्रभावकम् ।।१०।।

अन्नं पानं हि सौभाग्यं, दत्तं तुभ्यं मया शिवे !

संजीवनं च मन्त्राणां, तथा दत्तुं पुनर्धुवम ।।११।।

यस्य स्मरण-मात्रेण, पाठेन जपतोऽपि वा !

अकीला अखिला मन्त्राः, सत्यं सत्यं न संशयः ।।१२।।

विनियोगः- ॐ अस्य सर्व-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्राणामुत्कीलन-मन्त्र-स्तोत्रस्य मूल-प्रकृतिः ऋषिः, जगतीच्छन्द, निरञ्जनो देवता, क्लीं वीजं, ह्रीं शक्तिः, ह्रः सौं कीलकं, सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यासः-ॐ मूल-प्रकृतिः ऋषये नमः शिरसि, ॐ जगतीच्छन्दसे नमः मुखे, ॐ निरञ्जनो देवतायै नमः हृदि,  ॐ क्लीं वीजाय नमः गुह्ये,  ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयो,  ॐ ह्रः सौं कीलकाय नमः नाभौ,  ॐ सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः सर्वांगे ।

षडङ्ग-न्यास - कर-न्यास –      अंग-न्यास -

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः          हृदयाय नमः

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा

ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः          शिखायै वषट्

ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः       कवचाय हुम्

ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः     नेत्र-त्रयाय वौषट्

ॐ ह्रः  करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः        अस्त्राय फट्

 ध्यानः-

ॐ ब्रह्म-स्वरुपममलं च निरञ्जनं तं,

ज्योतिः-प्रकाशमनिशं महतो महान्तम् ।

कारुण्य-रुपमति-बोध-करं प्रसन्नं,

दिव्यं स्मरामि सततं मनु-जीवनाय ।।

एवं ध्यात्वा स्मरेन्नित्यं, तस्य सिद्धिरस्तु सर्वदा । वाञ्छितं फलमाप्नोति, मन्त्र-संजीवनं ध्रुवम् ।।

मन्त्रः- ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रादीनामुत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं षट्-पञ्चाक्षराणामुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा । ॐ जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणां सञ्जीवनं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ ह्रीं जूं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः, कं खं गं घं ङं, चं छं जं झं ञं, टं ठं डं ढं णं, तं थं दं धं नं, पं फं बं भं मं, यं रं लं वं, शं षं सं हं ळं क्षं । मात्राऽक्षराणां सर्व उत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं , ॐ ह्रीं जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-स्तोत्र-कवचादीनां सञ्जीवय-सञ्जीवय कुरु-कुरु स्वाहा । ॐ सोऽहं हंसः ॐ सञ्जीवनं स्वाहा । ॐ ह्रीं मन्त्राक्षराणामुत्कीलय, उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा ।

ॐ ॐ प्रणव-रुपाय, अं आं परम-रुपिणे । इं ईं शक्ति-स्वरुपाय, उं ऊं तेजो-मयाय च ।।

ऋं ॠं रंजित-दीप्ताय, लृं ॡं स्थूल-स्वरुपिणे, एं ऐं वाचां विलासाय, ओं औं अं अः शिवाय च ।।

कं खं कमल-नेत्राय, गं घं गरुड़-गामिने । ङं चं श्री चन्द्र-भालाय, छं जं जय-कराय च ।।

झं ञं टं ठं जय-कर्त्रे, डं ढं णं तं पराय च । थं दं धं नं नमस्तस्मै, पं फं यन्त्र-मयाय च ।।

बं भं मं बल-वीर्याय, यं रं लं यशसे नमः । वं शं षं बहु-वादाय, सं हं ळं क्षं-स्वरुपिणे ।।

दिशामादित्य-रुपाय, तेजसे रुप-धारिणे । अनन्ताय अनन्ताय, नमस्तस्मै नमो नमः ।।

मातृकाया प्रकाशायै, तुभ्यं तस्यै नमो नमः । प्राणेशायै क्षीणदायै, सं सञ्जीव नमो नमः ।।

निरञ्जनस्य देवस्य, नाम-कर्म-विधानतः । त्वया ध्यानं च शक्तया च, तेन सञ्जायते जगत् ।।

स्तुतामहमचिरं ध्यात्वा, मायाया ध्वंस-हेतवे । सन्तुष्टा भार्गवायाहं, यशस्वी जायते हि सः ।।

ब्रह्माणं चेतयन्ती विविध-सुर-नरास्तर्पयन्ती प्रमोदाद् ।

ध्यानेनोद्दीपयन्ती निगम-जप-मनुं षट्-पदं प्रेरयन्ती ।।

सर्वान् देवान् जयन्ती दिति-सुत-दमनी साऽप्यहंकार-मूर्ति-

स्तुभ्यं तस्मै च जाप्यं स्मर-रचितमनुं मोचये शाप-जालात् ।।

इदं श्रीत्रिपुरा-स्तोत्रं पठेद् भक्तया तु यो नरः ।

सर्वान् कामानवाप्नोति सर्व-शापाद् विमुच्यते ।।.

************अनिष्ट निवारक दक्षिणावृत्ति शंख************

दक्षिणावृत्ति शंख कल्प में लिखा है-
- जिस घर में यह शंख रहता है वह कभी भी धन-धान्य से रिक्त नहीं रहता।
- भगवान विष्णु का आयुध होने के कारण यह अत्यंत मंगलकारी है।

- जिस परिवार में शास्त्रोक्त उपायों द्वारा इसकी स्थापना की जाती है, वहॉभूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस द्वारा पहुचाये जा रहे दुर्भिक्षों कास्वतः ही समाधान होने लगता है।
- शत्रु पक्ष कितना भी बलशाली क्यों न हो इसके प्रभाव से हानि नहीं पहॅुचा पाता।
- इसके प्रभाव से दुर्घटना, मृत्यु भय, चोरी आदि से रक्षा होती है।
दक्षिणावृत्ति शंख की महिमा अनेक प्रमाणिक ग्रंथों में मिलती है।
महाभारत में सभी योद्धाओं ने युद्ध घोष के लिए अलग-अलग शंख बजाये थे। गीता में इस विषय में लिखा है -
श्री कृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त, भीम सेन नेपौंड्र शंख बजाया था। युधिष्ठिर ने अनंत विजय शंख, नकुल ने सुघोष एवं सहदेवने मणिपुष्पक नामक शंखनाद किया था। पुलस्त्य संहिता में वर्णित है-
लक्ष्मी को प्राप्त करना और उसे स्थाई रुप से निवास देने का एक मात्रप्रयोग दक्षिणावृत्ति शंख प्रयोग ही है, जो कि अपने में आश्चर्यजनक रुप सेधन देने में समर्थ है। इसके प्रयोग से ऋण, दरिद्रता तथा रोग आदि मिट जाताहै तथा हर प्रकार से संपन्नता आने लगती है।
विश्वामित्र संहिता में वर्णनन आता है-
दक्षिणावृत्ति शंख कल्प प्रयोग से जो सफलता मिलती है, वह आश्चर्यजनक रुपसे अद्वितीय है। धन वर्षा करने और सुख समृद्धि प्रदान करने में इसकी तो कोईतुलना ही नहीं है।
गौरक्ष संहिता में लिखा है-
दक्षिणावृत्ति शंख कल्प प्रयोग एक श्रेष्ठ तांत्रिक प्रयोग है। इसका प्रभाव तुरंत तथा अचूक होता है।
मार्कन्डय पुराण के अनुसार -
भगवती लक्ष्मी के सभी प्रयोगों में दक्षिणावृत्ति शंख प्रयोग ही सर्वाधिकप्रमाणिक व धनवर्षा करने में समर्थ है। इसका प्रयोग उज्जवल रत्नों का सागरहै।
लक्ष्मी संहिता में लिखा है-
सभी प्रकार से दरिद्रता, दुःख, अभाव, रोग आदि को मिटाने में दक्षिणावृत्ति कल्प प्रयोग आश्चर्यजनक रुप से सफलता प्रदान करता है।
विष्णुपुराण के अनुसार-
समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में शंख भी एक है। माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अतः जहां शंख है, वही लक्ष्मी कावास है। स्वर्ग लोक में अष्ट सिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का स्थानमहत्वपूर्ण है।
कहने का तात्पर्य यह है कि शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का साक्षात प्रतीक माना गया है। धार्मिककृत्यों, अनुष्ठान-साधना, तांत्रिक क्रियाओं आदि में शंख का प्रयोगसर्वविदित है। परंतु विडम्बना है कि न तो हमें उचित शंख मिल पाते हैं और नही हम उनका उचित प्रयोग कर पाते हैं। परिणाम स्वरुप हमें वांछित फल भी नहींमिल पाते हैं। बाजार में आसानी से उपलब्ध किये जा रहे शंख वास्तव में 90 प्रतिशत तक खण्डित होते हैं। इसीलिए उनके सुप्रभाव हम अनुभूत नहीं कर पाते।
शंख अनेक नामों से मिलते हैं। जैसे लक्ष्मी शंख, गौमुखी शंख, कामधेनुशंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौड्र शंख, शुघोष शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शेषनाग शंख, शनि, राहु, केतु आदि शंख।
आकृति के अनुसार इन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है-
दक्षिणावृत्ति शंख अर्थात् दायें हाथ से पकड़ा जाने वाला, वामावृत्तिअर्थात् वायें हाथ से पकड़ा जाने वाला तथा मध्यावृत्ति अर्थात् बीच मेंखुले मुह वाला शंख। अपने चमत्कारिक गुणों के कारण दक्षिणावृत्ति तथामध्यावृत्ति शंख सरलता से नहीं मिल पाते। सौभाग्य से यदि आपको निर्दोष शंखमिल जाए तो उसे किसी शुभ मुहूर्त में गंगा जल, गौघृत, कच्चा दूध, मधु, गुड़आदि से अभिषेक करके अपने पूजा स्थल में लाल कपड़े के आसन पर स्थापित करलीजिए। इससे लक्ष्मी का चिर स्थाई निवास बना रहेगा। यदि लक्ष्मी जी कीविशेष कृपा के आप अभिलाषी हैं तो दक्षिणावृत्ति शंख का जोड़ अर्थात् नर औरमादा दोशंखों को देव प्रतिमा के सम्मुख स्थापित कर लें।
शंख कीविभिन्न प्रजातियों के अनुरुप शास्त्रों में विभिन्न प्रयोजनों की व्याख्यामिलती है। यथा नाम अन्नपूर्णा शंख घर में धन-धान्य की वृद्धि करता है।मणिपुष्पक तथा पांचजन्य शंख से भवन के विभिन्न वास्तु दोषों का निवारण होताहै। ऐसे शंख में जल भर कर भवन में छिड़कने से सौभाग्य का आगमन होता है।गणेश शंख में रखा हुआ जल सेवन करने से अनेक रोगों का शमन होता है। विष्णुनामक शंख से कार्य स्थल में छिड़काव करने से उन्नति के अवसर बनने लगते हैं।
जो साधक दक्षिणावृत्ति शंख कल्प करना चाहते हैं, वह सरल सा यह प्रयोग करके देखें, उनको आशातीत लाभ अवश्य ही मिलेगा।
पूजा सामग्री :
मुख्य सामग्री तो निर्दोष तथा पवित्र शंख ही है। इसके अतिरिक्त शुद्ध घीका दीपक, अगरबत्ती, कुमकुम, केसर, चावल, जल का पात्र, पुष्प, कच्चा दूध, चांदी का वर्क, इत्र, कपूर तथा नैवैध अर्थात् प्रसाद की व्यवस्था पूर्व मेंकरके रख लें।
पूजन विधि :
शुभ मुहूर्त में प्रातः स्नान कर शुद्धवस्त्र धारण करें। एक पात्र में सामने शंख रख लें। उसे दूध तथा जल सेस्नान कराएं। साफ कपड़े से उसे पोंछ कर उस पर चांदी का वर्क लगाएं। घी कादीपक जला कर अगरबत्ती जला लें। दूध तथा केसर मिश्रित घोल से शंख पर ‘श्रीं’ एकाक्षरी मंत्र लिख कर उसे तांबे अथवा चांदी के पात्र में स्थापित कर दें।अब निम्न मंत्र का जप करते हुए इस पर कुमकुम चावल तथा इत्र अर्पित करें।श्वेत पुष्प शंख पर चढ़ा कर प्रसाद भोग के रुप में अर्पित करें।
मंत्र-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीधर करस्थायपयोनिधि जाताय श्री। दक्षिणावृत्ति शंखाय ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीकराय पूज्याय नमः।।
अब मन, क्रम तथा वचन से शंख का ध्यान करें।
ध्यान मंत्र-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूं दक्षिणावृतशंखाय भगवते विश्वरुपायसर्वयोगीश्वराय त्रैलोक्यनाथाय सर्वकामप्रदाय सर्वऋद्धि समृद्धिवांछितार्थसिद्धिदाय नमः। ॐ सर्वाभरण भूषिताय प्रशस्यांगोपांगसंयुतायकल्पवृक्षाधः - स्थिताय कामधेनु - चिन्तामणि - नर्वानधिरुपायचतुर्दशरत्नपरिवृताय महासिद्धि - संहिताय लक्ष्मीदेवतायुताय कृष्णदेवताकरललिताय- श्री शंखमहानिधये नमः।
ध्यान मंत्र आवाहन मंत्र है अर्थात्स्तुति मंत्र है। इसके साथ 11 माला बीज मंत्र अथवा पांचजन्य गायत्री शंखमंत्र की जपना आवश्यक है।
बीज मंत्र-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूं दक्षिणमुखाय शंख निधये समुद्रप्रभावय नमः।
शंख गायत्री मंत्र-
ॐ पांचजन्याय विद्महे। पावमानाय धीमहि। तंनः शंखः प्रचोदयात्।
ऋद्धि-सिद्धि तथा सुख-समृद्धि के लिए एक बहुत ही सरल सा प्रयोग है। यदिआपके पास कोई दखिणावृत्ति शंख है तो उसका उपरोक्त ध्यान मंत्र से उसका पूजनकर लें। गायत्री अथवा बीज मंत्र अथवा दोनों मंत्र शंख के सामने बैठ करजपते रहें। एक मंत्र पूरा होने पर शंख में ठीक अग्नि में सामग्री होम करनेकी तरह चावल तथा नाग केसर दांये हाथ के अंगूठे तथा मध्यमा तथा अनामिकाउंगली से छोड़ते रहें। जब शंख भर जाए तो उसे घर में स्थापित कर लें। ध्यानरखें कि शंख की पूंछ उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। किसी शुभ मुहूर्त अथवादीवाली से पूर्व धन त्रियोदशी के दिन पुराने चावल तथा नागकेसर उपरोक्त विधिसे पुनः बदल लिया करें।
इस प्रकार सिद्ध किया हुआ शंख लाल कपड़े मेंलपेट कर धन, आभूषण आदि रखने के स्थान पर स्थापित करने से जीवन के हरक्षेत्र में निरंतर श्री की प्राप्ति होने लगती है।

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा ,संपर्क सूत्र- 9760924411