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बटुक भैरव साधना

बटुक भैरव साधना- अकाल मौत से बचाती है 'भैरव साधना'
बटुक भैरव साधना से मिलेगा दुखों से छुटकारा
तंत्र साधना में शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण नामक छ: तांत्रिक षट् कर्म होते हैं। इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:- मारण, मोहनं, स्तंभनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये नौ प्रयोग हैं।
उक्त सभी को करने के लिए अन्य कई तरह के देवी-देवताओं की साधना की जाती है। अघोरी लोग इसके लिए शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना करते हैं। बहुत से लोग भैरव साधना, नाग साधना, पैशाचिनी साधना, यक्षिणी साधा या रुद्र साधना करते हैं। यह प्रस्तुत है अकाल मौत से बचाने वाली और धन संपत्ति प्रदान करने वाली बटुक भैरव साधना।
भैरव को शिव का रुद्र अवतार माना गया है। तंत्र साधना में भैरव के आठ रूप भी अधिक लोकप्रिय हैं- 1.असितांग भैरव, 2. रु-रु भैरव, 3. चण्ड भैरव, 4. क्रोधोन्मत्त भैरव, 5. भयंकर भैरव, 6. कपाली भैरव, 7. भीषण भैरव तथा 8. संहार भैरव। आदि शंकराचार्य ने भी 'प्रपञ्च-सार तंत्र' मंद अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं। तंत्र शास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है।
हालांकि प्रमुख रूप से काल भैरव और बटुब भैरव की साधना ही प्रचलन में है। इनका ही ज्यादा महत्व माना गया है। आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है। भैरव का सबसे सौम्य रूप बटुक भैरव और उग्र रूप है काल भैरव।
'महा-काल-भैरव' मृत्यु के देवता हैं। 'स्वर्णाकर्षण-भैरव' को धन-धान्य और संपत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तो 'बाल-भैरव' की आराधना बालक के रूप में की जाती है। सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही करते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की।
बटुक भैरवजी तुरंत ही प्रसन्न होने वाले दुर्गा के पुत्र हैं। बटुक भैरव की साधना से व्यक्ति अपने जीवन में सांसारिक बाधाओं को दूर कर सांसारिक लाभ उठा सकता है।
साधना का मंत्र : ।।ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा।। उक्त मंत्र की प्रतिदिन 11 माला 21 मंगल तक जप करें। मंत्र साधना के बाद अपराध-क्षमापन स्तोत्र का पाठ करें। भैरव की पूजा में श्री बटुक भैरव अष्टोत्तर शत-नामावली का पाठ भी करना चाहिए।
साधना यंत्र : बटुक भैरव का यंत्र लाकर उसे साधना के स्थान पर भैरवजी के चित्र के समीप रखें। दोनों को लाल वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर यथास्थिति में रखें। चित्र या यंत्र के सामने हाल, फूल, थोड़े काले उड़द चढ़ाकर उनकी विधिवत पूजा करके लड्डू का भोग लगाएं।
साधना समय : इस साधना को किसी भी मंगलवार या मंगल विशेष अष्टमी के दिन करना चाहिए शाम 7 से 10 बजे के बीच।
साधना चेतावनी : साधना के दौरान खान-पान शुद्ध रखें। सहवास से दूर रहें। वाणी की शुद्धता रखें और किसी भी कीमत पर क्रोध न करें। यह साधना किसी गुरु से अच्छे से जानकर ही करें।
साधना नियम व सावधानी :
1. यदि आप भैरव साधना किसी मनोकामना के लिए कर रहे हैं तो अपनी मनोकामना का संकल्प बोलें और फिर साधना शुरू करें।
2. यह साधना दक्षिण दिशा में मुख करके की जाती है।
3. रुद्राक्ष या हकीक की माला से मंत्र जप किया जाता है।
4. भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें।
5. भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिए।
6. साधक लाल या काले वस्त्र धारण करें।
7. हर मंगलवार को लड्डू के भोग को पूजन-साधना के बाद कुत्तों को खिला दें और नया भोग रख दें।
8. भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण करना चाहिए।
9. भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार किया जाता है, जैसे रविवार को चावल-दूध की खीर, सोमवार को मोतीचूर के लड्डू, मंगलवार को घी-गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी या लड्डू, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को तले हुए पापड़, उड़द के पकौड़े या जलेबी का भोग लगाया जाता है।
इस साधना से बटुक भैरव प्रसन्न होकर सदा साधक के साथ रहते हैं और उसे सुरक्षा प्रदान करते हैं अगाल मौत से बचाते हैं। ऐसे साधक को कभी धन की कमी नहीं रहती और वह सुखपूर्वक वैभवयुक्त जीवन- यापन करता है। जो साधक बटुक भैरव की निरंतर साधना करता है तो भैरव बींब रूप में उसे दर्शन देकर उसे कुछ सिद्धियां प्रदान करते हैं जिसके माध्यम से साधक लोगों का भला करता है।
.भैरव नाम जाप से कई रोगों से मुक्ति
भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्ठाान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगाना लाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है। खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है। एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।
तांत्रोक्त भैरव कवच
ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः |
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ||
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा |
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ||
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे |
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ||
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा |
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ||
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः |
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ||
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु |
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ||
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः |
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ||
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः |
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ||
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा |
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ||
इस आनंददायक कवच का प्रतिदिन पाठ करने से प्रत्येक विपत्ति में सुरक्षा प्राप्त होती है| यदि योग्य गुरु के निर्देशन में इस कवच का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाए तो साधक सर्वत्र विजयी होकर यश, मान, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि से पूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है|
विज्ञान भैरव तंत्र
एक अद्भुत ग्रंथ है भारत मैं। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अद्भुत ग्रंथ पृथ्वी् पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव तंत्र। छोटी सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनियां में खोजनी मुश्किल है। कुछ एक सौ बारह सूत्र है। हर सुत्र में एक ही बात है। पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात, और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
शिव-पार्वती--विज्ञान भैरव तंत्र
पार्वती पूछ रहीं है शंकर से,शांत कैसे हो जाऊँ? आनंद को कैसे उपलब्धर हो जाऊँ? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तिैयों में शंकर उत्त र देते है। दो पंक्तिायों में वे कहते है, बाहर जाती है श्वागस, भीतर जाती है श्वाास। दोनों के बीच में ठहर जा, अमृत को उपलब्धव हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वाजस, भीतर आती है श्वादस, दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्धु हो जाएगा। पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। शंकर दो-दो में कहते चले जाते है। हर बार पार्वती कहती है। नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तिरयां। और हर पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति् का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वामस, अंदर जाती श्वा स। जन्म् और मृत्युक, यह रहा जन्म यह रही मृत्युर। दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहे। एक सौ बारह बार। पर एक ही बात दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रतिकार-आसक्तिछ–विरक्तिथ, ठहर जा—अमृत की उपलब्धि। दो के बीच दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए वह गोल्डकन मीन, स्वथर्ण सेतु को उपलब्धृ हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वहीं है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है। कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थर हो जाना। सम्मानन-अपमान, ठहर जाओ—मुक्तिक। दुख-सुख, रूक जाओ—प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु,ठहर जाओ—सच्चिदानंद में गति। कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना ओर दो के बीच में तटस्थ् हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्तक योग का सार इतना ही है। दो के बीच में जो ठहर जाता,वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्धी हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठि त हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत में च्युित हो जाती है।
विघ्नहर्ता भैरव
शिवपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान भैरव प्रकट हुए थे, जिसे श्रीकाल भैरवाष्टमी के रूप में जाना जाता है। रूद्राष्टाध्यायी तथा भैरव तंत्र के अनुसार भैरव को शिवजी का अंशावतार माना गया है। भैरव का रंग श्याम है। उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण किए हुए हैं। इनका वाहन श्वान (कुत्ता) है। इनकी वेश-भूषा लगभग शिवजी के समान है। भैरव श्मशानवासी हैं। ये भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। भक्तों पर स्नेहवान और दुष्टों का संहार करने में सदैव तत्पर रहते हैं। भगवान भैरव अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर बल, बुद्धि, तेज, यश, धन तथा मुक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भैरव जयंती को अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव का व्रत रखता है, पूजन या उनकी उपासना करता है वह समस्त कष्टों से मुक्त हो जाता है।
रविवार एवं मंगलवार को भैरव की उपासना का दिन माना गया है। कुत्ते को इस दिन मिष्ठान खिलाकर दूध पिलाना चाहिए।
ब्रह्माजी के वरदान स्वरू प भैरव जी में सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामथ्र्य है, अत: इन्हें "भैरव" नाम से जाना जाता है। इनसे काल भी भयभीत रहता है अत: "काल भैरव" के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें "आमर्दक" कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार या मंगलवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी।
काशी में भैरव
त्रैलोक्य से न्यारी, मुक्ति की जन्मभूमि, बाबा विश्वनाथ की राजधानी "काशी' की रचना स्वयं भगवान शंकर ने की है। प्रलय काल में काशी का नाश नहीं होता। उस समय पंचमहाभूत यहीं पर शवरुप में शयन करते हैं। इसलिए इसे महाश्मशान भी कहा गया है। काशी का संविधान भगवान शिव का बनाया हुआ है, जबकि त्रैलोक्य का ब्रह्मा द्वारा। त्रैलोक्य का पालन विष्णु और दण्ड का कार्य यमराज करते हैं, परंतु काशी का पालन श्री शंकर और दण्ड का कार्य भैरव जी करते हैं। यमराज के दण्ड की पीड़ा से बत्तीस गुनी अधिक पीड़ा भैरव के दण्ड की होती है। जीव यमराज के दण्ड को सहन कर लेता है, परंतु भैरव का दण्ड असह्य होता है। भगवान शंकर अपनी नगरी काशी की व्यवस्था अपने गणों द्वारा कराते हैं। इन गणों में दण्डपाणि आदि भैरव, भूत- प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी, वीर आदि प्रमुख है।
भैरव की उत्पत्ति
ब्रह्मा और विष्णु में एक समय विवाद छिड़ा कि परम तत्व कौन है ? उस समय वेदों से दोनों ने पूछा :- क्योंकि वेद ही प्रमाण माने जाते हैं। वेदों ने कहा कि सबसे श्रेष्ठ शंकर हैं। ब्रह्मा जी के पहले पाँच मस्तक थे। उनके पाँचवें मस्तक ने शिव का उपहास करते हुए, क्रोधित होते हुए कहा कि रुद्र तो मेरे भाल स्थल से प्रकट हुए थे, इसलिए मैंने उनका नाम "रुद्र' रखा है। अपने सामने शंकर को प्रकट हुए देख उस मस्तक ने कहा कि हे बेटा ! तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी रक्षा कर्रूँगा।
(स्कंद पुराण, काशी खण्ड अध्याय ३०)
भैरव का नामकरण
इस प्रकार गर्व युक्त ब्रह्मा जी की बातें सुनकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने अंश से भैरवाकृति को प्रकट किया। शिव ने उससे कहा कि "काल भैरव' ! तुम इस पर शासन करो। साथ ही उन्होंने कहा कि तुम साक्षात "काल' के भी कालराज हो। तुम विश्व का भरण करनें में समर्थ होंगे, अतः तुम्हारा नाम "भैरव' भी होगा। तुमसे काल भी डरेगा, इसलिए तुम्हें "काल भैरव' भी कहा जाएगा। दुष्टात्माओं का तुम नाश करोगे, अतः तुम्हें "आमर्दक' नाम से भी लोग जानेंगे। हमारे और अपने भक्तों के पापों का तुम तत्क्षण भक्षण करोगे, फलतः तुम्हारा एक नाम "पापभक्षण' भी होगा।
भैरव को शंकर का वरदान
भगवान शंकर ने कहा कि हे कालराज ! हमारी सबसे बड़ी मुक्ति पुरी "काशी' में तुम्हारा आधिपत्य रहेगा। वहाँ के पापियों को तुम्हीं दण्ड दोगे, क्योंकि "चित्रगुप्त' काशीवासियों के पापों का लेखा- जोखा नहीं रख सकेंगे। वह सब तुम्हें ही रखना होगा।
कपर्दी- भैरव
शंकर की इतनी बातें सुनकर उस आकृति "भैरव' ने ब्रह्मा के उस पाँचवें मस्तक को अपने नखाग्र भाग से काट लिया। इस पर भगवान शंकर ने अपनी दूसरी मूर्ति भैरव से कहा कि तुम ब्रह्मा के इस कपाल को धारण करो। तुम्हें अब ब्रह्म- हत्या लगी है। इसके निवारण हेतु "कापालिक' व्रत ग्रहण कर लोगों को शिक्षा देने के लिए सर्वत्र भिक्षा माँगो और कापालिक वेश में भ्रमण करो। ब्रह्मा के उस कपाल को अपने हाथों में लेकर कपर्दी भैरव चले और हत्या उनके पीछे चली। हत्या लगते ही भैरव काले पड़ गये। तीनो लोक में भ्रमण करते हुए वह काशी आये।
कपर्दी (कपाल) भैरव व कपालमोचन तीर्थ
श्री भैरव काशी की सीमा के भीतर चले आये, परंतु उनके पीछे आने वाली हत्या वहीं सीमा पर रुक गयी। वह प्रवेश नहीं कर सकी। फलतः वहीं पर वह धरती में चिग्घाड़ मारते हुए समा गयी। हत्या के पृथ्वी में धंसते ही भैरव के हाथ में ब्रह्मा का मस्तक गिर पड़ा। ब्रह्म- हत्या से पिण्ड छूटा, इस प्रसन्नता में भैरव नाचने लगे। बाद में ब्रह्म कपाल ही कपाल मोचन तीर्थ नाम से विख्यात हुआ और वहाँ पर कपर्दी भैरव, कपाल भैरव नाम से (लाट भैरव) अब काशी में विख्यात हैं। यहाँ पर श्री काल भैरव काशीवासियों के पापों का भक्षण करते हैं। कपाल भैरव का सेवक पापों से भय नहीं खाता।
भैरव के भक्तों से यमराज भय खाते हैं
काशीवासी भैरव के सेवक होने के कारण कलि और काल से नहीं डरते। भैरव के समीप अगहन बदी अष्टमी को उपवास करते हुए रात्रि में जागरण करने वाला मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है। भैरव के सेवकों से यमराज भय खाते हैं। काशी में भैरव का दर्शन करने से सभी अशुभ कर्म भ हो जाते हैं। सभी जीवों के जन्मांतरों के पापों का नाश हो जाता है। अगहन की अष्टमी को विधिपूर्वक पूजन करने वालों के पापों का नाश श्री भैरव करते हैं। मंगलवार या रविवार को जब अष्टमी या चतुर्दशी तिथि पड़े, तो काशी में भैरव की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। इस यात्रा के करने से जीव समस्त पापो से मुक्त हो जाता है। जो मूर्ख काशी में भैरव के भक्तों को कष्ट देते हैं, उन्हें दुर्गति भोगनी पड़ती है। जो मनुष्य श्री विश्वेश्वर की भक्ति करता है तथा भैरव की भक्ति नहीं करता, उसे पग- पग पर कष्ट भोगना पड़ता है। पापभक्षण भैरव की प्रतिदिन आठ प्रदक्षिणा करनी चाहिए। आमर्दक पीठ पर छः मास तक जो लोग अपने इष्ट देव का जप करते हैं, वे समस्त वाचिक, मानसिक एवं कायिक पापों में लिप्त नहीं होते। काशी में वास करते हुए, जो भैरव की सेवा, पूजा या भजन नहीं करे, उनका पतन होता है।
श्री भैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है-
विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:। शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिव ही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती।
यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें।
उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरव की भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष आसव-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
काल भैरव अष्टमी तंत्र साधना के लिए अति उत्तम मानी जाती है। कहते हैं कि भगवान का ही एक रुप है भैरव साधना भक्त के सभी संकटों को दूर करने वाली होती है। यह अत्यंत कठिन साधनाओं में से एक होती है जिसमें मन की सात्विकता और एकाग्रता का पूरा ख्याल रखना होता है। भैरवाष्टमी या कालाष्टमी के दिन पूजा उपासना द्वारा सभी शत्रुओं और पापी शक्तियों का नाश होता है और सभी प्रकार के पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। भैरवाष्टमी के दिन व्रत एवं षोड्षोपचार पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायक माना जाता है। इस दिन श्री कालभैरव जी का दर्शन-पूजन शुभ फल देने वाला होता है।
भैरव जी की पूजा उपासना मनोवांछित फल देने वाली होती है। यह दिन साधक भैरव जी की पूजा अर्चना करके तंत्र-मंत्र की विद्याओं को पाने में समर्थ होता है। यही सृष्टि की रचना, पालन और संहारक हैं। इनका आश्रय प्राप्त करके भक्त निर्भय हो जाता है तथा सभी कष्टों से मुक्त
रहता है।
भैरवाष्टमी पूजन
भगवान शिव के इस रुप की उपासना षोड्षोपचार पूजन सहित करनी चाहिए। रात्री समय जागरण करना चाहिए व इनके मंत्रों का जाप करते रहना चाहिए। भजन कीर्तन करते हुए भैरव कथा व आरती की जाती है। इनकी प्रसन्नता हेतु इस दिन काले कुत्ते को भोजन कराना शुभ माना जाता है। मान्यता अनुसार इस दिन भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं, भूत, पिशाच एवं काल भी दूर रहता है।
भैरव उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है। भैरव देव जी के राजस, तामस एवं सात्विक तीनों प्रकार के साधना तंत्र प्राप्त होते हैं। भैरव साधना स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन और सम्मोहन जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए कि जाती है। इनकी साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं
ज्योतिषशास्त्र की पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे। साम्बसदाशिवकी अष्ट मूर्तियों में रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजी कलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं। इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।
श्री भैरव चालीसा
। दोहा ।।
श्री गणपति, गुरु गौरि पद, प्रेम सहित धरि माथ ।
चालीसा वन्दन करों, श्री शिव भैरवनाथ ।।
श्री भैरव संकट हरण, मंगल करण कृपाल।
श्याम वरण विकराल वपु, लोचन लाल विशाल ।।
जय जय श्री काली के लाला । जयति जयति काशी-कुतवाला ।।
जयति बटुक भैरव जय हारी । जयति काल भैरव बलकारी ।।
जयति सर्व भैरव विख्याता । जयति नाथ भैरव सुखदाता ।।
भैरव रुप कियो शिव धारण । भव के भार उतारण कारण ।।
भैरव रव सुन है भय दूरी । सब विधि होय कामना पूरी ।।
शेष महेश आदि गुण गायो । काशी-कोतवाल कहलायो ।।
जटाजूट सिर चन्द्र विराजत । बाला, मुकुट, बिजायठ साजत ।।
कटि करधनी घुंघरु बाजत । दर्शन करत सकल भय भाजत ।।
जीवन दान दास को दीन्हो । कीन्हो कृपा नाथ तब चीन्हो ।।
वसि रसना बनि सारद-काली । दीन्यो वर राख्यो मम लाली ।।
धन्य धन्य भैरव भय भंजन । जय मनरंजन खल दल भंजन ।।
कर त्रिशूल डमरु शुचि कोड़ा । कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोड़ा ।।
जो भैरव निर्भय गुण गावत । अष्टसिद्घि नवनिधि फल पावत ।।
रुप विशाल कठिन दुख मोचन । क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन ।।
अगणित भूत प्रेत संग डोलत । बं बं बं शिव बं बं बोतल ।।
रुद्रकाय काली के लाला । महा कालहू के हो काला ।।
बटुक नाथ हो काल गंभीरा । श्वेत, रक्त अरु श्याम शरीरा ।।
करत तीनहू रुप प्रकाशा । भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा ।।
रत्न जड़ित कंचन सिंहासन । व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन ।।
तुमहि जाई काशिहिं जन ध्यावहिं । विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं ।।
जय प्रभु संहारक सुनन्द जय । जय उन्नत हर उमानन्द जय ।।
भीम त्रिलोकन स्वान साथ जय । बैजनाथ श्री जगतनाथ जय ।।
महाभीम भीषण शरीर जय । रुद्र त्र्यम्बक धीर वीर जय ।।
अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय । श्वानारुढ़ सयचन्द्र नाथ जय ।।
निमिष दिगम्बर चक्रनाथ जय । गहत अनाथन नाथ हाथ जय ।।
त्रेशलेश भूतेश चन्द्र जय । क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय ।।
श्री वामन नकुलेश चण्ड जय । कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय ।।
रुद्र बटुक क्रोधेश काल धर । चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर ।।
करि मद पान शम्भु गुणगावत । चौंसठ योगिन संग नचावत ।
करत कृपा जन पर बहु ढंगा । काशी कोतवाल अड़बंगा ।।
देयं काल भैरव जब सोटा । नसै पाप मोटा से मोटा ।।
जाकर निर्मल होय शरीरा। मिटै सकल संकट भव पीरा ।।
श्री भैरव भूतों के राजा । बाधा हरत करत शुभ काजा ।।
ऐलादी के दुःख निवारयो । सदा कृपा करि काज सम्हारयो ।।
सुन्दरदास सहित अनुरागा । श्री दुर्वासा निकट प्रयागा ।।
श्री भैरव जी की जय लेख्यो । सकल कामना पूरण देख्यो ।।
।। दोहा ।।
जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार ।
कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार ।।
जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार ।
उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बड़े अपार ।।
आरती श्री भैरव जी की
जय भैरव देवा, प्रभु जय भैरव देवा ।
जय काली और गौरा देवी कृत सेवा ।। जय ।।
तुम्हीं पाप उद्घारक दुःख सिन्धु तारक ।
भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक ।। जय ।।
वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी ।
महिमा अमित तुम्हारी जय जय भयहारी ।। जय ।।
तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होवे ।
चौमुख दीपक दर्शन दुःख खोवे ।। जय ।।
तेल चटकि दधि मिश्रित भाषावलि तेरी ।
कृपा करिये भैरव करिए नहीं देरी ।। जय ।।
पांव घुंघरु बाजत अरु डमरु जमकावत ।
बटुकनाथ बन बालकजन मन हरषावत ।। जय ।।
बटकुनाथ की आरती जो कोई नर गावे ।
कहे धरणीधर नर मनवांछित फल पावे ।। जय ।।
भैरव वशीकरण मन्त्र
१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।
२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।
३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।
भगवान भैरव की साधना
वशीकरण, उच्चाटन, सम्मोहन, स्तंभन, आकर्षण और मारण जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए भैरव साधना की जाती है। इनकी साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। जन्म कुंडली में छठा भाव रिपु यानि शत्रु का भाव होता है। लग्न से षष्ठ भाव भी रिपु का है। इस भाव के अधिपति, भाव में स्थित ग्रह और उनकी दृष्टि से शत्रु संबंधी कष्ट होना संभव है। षष्ठस्थ-षष्ठेश संबंधियों को शत्रु बनाता है। यह शत्रुता कई कारणों से हो सकती है। आपकी प्रगति कभी-कभी दूसरों को अच्छी नहीं लगती और वे आपकी प्रगति को प्रभावित करने के लिए तांत्रिक क्रियाओं का सहारा लेकर आपको प्रभावित करते हैं। तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव से व्यवसाय, धंधे में आशानुरूप प्रगति नहीं होती। दिया हुआ रूपया नहीं लौटता, रोग या विघ्न बाधाओं से पीडा अथवा बेकार की मुकदमेबाजी में धन की बर्बादी हो सकती है। इस प्रकार की शत्रु बाधा निवारण के लिए भैरव साधना फलदायी है।
भैरव भगवान शिव के द्वादश स्वरूप हैं। मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ। भगवान भैरव के तीन प्रमुख रूप हैं- बटुक भैरव, महाकाल भैरव और स्वर्णाकर्षण भैरव। इनमें से भक्तगण बटुक भैरव की ही सर्वाधिक पूजा करते हैं। रविवार और मंगलवार का व्रत करने से भगवान भैरव प्रसन्न होते हैं। तंत्रशास्त्र में अष्ट भैरव का उल्लेख भी मिलता है- असितांग भैरव, रू रू भैरव, चंद्र भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव। भगवान भैरव की साधना में ध्यान का अधिक महत्व है। इसी को ध्यान में रखकर सात्विक, राजसिक व तामसिक स्वरूपों का ध्यान किया जाता है। ध्यान के बाद इस मंत्र का जप करने का विधान है।
ऊं ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय
कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं।
भगवान भैरव के उक्त मंत्र के जप करने से व्यक्ति शत्रु के समक्ष अप्रतिम पुरूषार्थ से युक्त होता है। ऎसा मानते हैं मुकदमे या कारागार से मुक्ति के लिए भी इस मंत्र की साधना करने से लाभ होता है। भगवान बटुक भैरव के सात्विक स्वरू प का ध्यान करने से आयु में वृद्धि और आधि-व्याधि से मुक्ति मिलती है। इनके राजस स्वरू प का ध्यान करने से विविध अभिलाषाओं की पूर्ति संभव है। इनके तामस स्वरूप का ध्यान करने से शत्रु नाश, सम्मोहन, वशीकरणादि प्रभाव समाप्त होता है। व्याधि से मुक्ति के लिए व भैरव के तामस स्वरूप की साधना करना हितकर है। भैरव अष्टमी पर शत्रु दमन एवं बाधा निवारण व तांçन्त्रक के प्रभाव को नष्ट करने के लिए इनकी साधना शीघ्र फलदायी है। भैरव अष्टमी के दिन शत्रु बाधा से पीडित, कोर्ट-कचहरी संबंधी परेशानी, तंत्र क्रियाओं के प्रभाव को नष्ट करने के लिए भगवान भैरव की आराधना करें। इस दिन भगवान भैरव को प्रसन्न करने के लिए उनके विग्रह को चोला चढाएं, भैरव स्तोत्र या भैरव नामावली का पाठ करे या किसी पंडित से कराएं। उडद की दाल के नैवेद्य भैरव को चढाएं। शत्रु बाधा निवारण के लिए यदि आप चाहें तो भैरव यंत्र की साधना भी कर सकते हैं। भैरव यंत्र का निर्माण भैरव अष्टमी के दिन तांबे या भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही से अनार की कलम से कर लें। यंत्र निर्माण के बाद इसका विधि पूर्वक पूजन करके प्राण-प्रतिष्ठा करें। स्वयं यंत्र नहीं बना सके तो इसका निर्माण किसी पंडित से करा लें।
।। ॐ हंषंनंगंकंसंखं महाकाल भैरवाय नम:।।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है।
भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है।
बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।।
काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।।
भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है।
भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख किया है जिनके माध्यम से उक्त अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है।
लोक देवता : लोक जीवन में भगवान भैरव को भैरू महाराज, भैरू बाबा, मामा भैरव, नाना भैरव आदि नामों से जाना जाता है। कई समाज के ये कुल देवता हैं और इन्हें पूजने का प्रचलन भी भिन्न-भिन्न है, जो कि विधिवत न होकर स्थानीय परम्परा का हिस्सा है। यह भी उल्लेखनीय है कि भगवान भैरव किसी के शरीर में नहीं आते।
पालिया महाराज : सड़क के किनारे भैरू महाराज के नाम से ज्यादातर जो ओटले या स्थान बना रखे हैं दरअसल वे उन मृत आत्माओं के स्थान हैं जिनकी मृत्यु उक्त स्थान पर दुर्घटना या अन्य कारणों से हो गई है। ऐसे किसी स्थान का भगवान भैरव से कोई संबंध नहीं। उक्त स्थान पर मत्था टेकना मान्य नहीं है।
भैरव चरित्र : भैरव के चरित्र का भयावह चित्रण कर तथा घिनौनी तांत्रिक क्रियाएँ कर लोगों में उनके प्रति एक डर और उपेक्षा का भाव भरने वाले तांत्रिकों और अन्य पूजकों को भगवान भैरव माफ करें। दरअसल भैरव वैसे नहीं है जैसा कि उनका चित्रण किया गया है। वे मांस और मदिरा से दूर रहने वाले शिव और दुर्गा के भक्त हैं। उनका चरित्र बहुत ही सौम्य, सात्विक और साहसिक है। उनका कार्य है शिव की नगरी काशी की सुरक्षा करना और समाज के अपराधियों को पकड़कर दंड के लिए प्रस्तुत करना। जैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसके पास जासूसी ‍कुत्ता होता है। उक्त अधिकारी का जो कार्य होता है वही भगवान भैरव का कार्य है।
भैरव मंदिर : काशी का काल भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्लीClick here to see more news from this city के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ा खाड़ का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है।
पूजा विधानः मान्यताएं और तर्क
शराब इस लिए चढ़ाई जाती है क्योंकि मान्यता है कि भैरव को शराब चढ़ाकर बड़ी आसानी से मन मांगी मुराद हासिल की जा सकती है। कुछ लोग मानते हैं कि शराब ग्रहण कर भैरव अपने उपासक पर कुछ उसी अंदाज में मेहरबान हो जाते हैं जिस तरह आम आदमी को शराब पिलाकर अपेक्षाकृत अधिक लाभ उठाया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह छोटी सोच है। हमारे यहां तीन तरह से भैरव की उपासना की प्रथा रही है। राजसिक, सात्त्विक और तामसिक। हमारे देश में वामपंथी तामसिक उपासना का प्रचलन हुआ, तब मांस और शराब का प्रयोग कुछ उपासक करने लगे। ऐसे उपासक विशेष रूप से श्मशान घाट में जाकर मांस और शराब से भैरव को खुश कर लाभ उठाने लगे। लेकिन भैरव बाबा की उपासना में शराब, मांस की भेंट जैसा कोई विधान नहीं है। शराब, मांस आदि का प्रयोग राक्षस या असुर किया करते थे। किसी देवी-देवता के नाम के साथ ऐसी चीजों को जोड़ना उचित नहीं है। कुछ लोगों के कारण ही आम आदमी के मन में यह भावना जाग उठी कि काल भैरव बड़े क्रूर, मांसाहारी और शराब पीने वाले देवता हैं। किसी भी देवता के साथ ऐसी बातें जोड़ना पाप ही कहलाएगा। गृहस्थ के लिए इन दोनों चीजों का पूजा में प्रयोग वर्जित है। गृहस्थों के लिए काल भैरवाष्टक स्तोत्र का नियमित पाठ सर्वोत्तम है, जो अनेक बाधाओं से मुक्ति दिलाता है। काल भैरव तंत्र के अधिष्ठाता माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि तंत्र उनके मुख से प्रकट होकर उनके चरणों में समा जाता है। लेकिन, भैरव की तांत्रिक साधना गुरुगम्य है। योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही यह साधना की जानी चाहिए।
काल भैरव की उत्पत्ति और काशी से संबंध
पहली कथा है कि ब्रह्मा जी ने पूरी सृष्टि की रचना की। ऐसा मानते हैं कि उस समय प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी। पृथ्वी के ऊपर लगातार भार बढ़ने लगा। पृथ्वी परेशान होकर ब्रह्मा के पास गई। पृथ्वी ने ब्रह्मा जी से कहा कि मैं इतना भार सहन नहीं कर सकती। तब ब्रह्मा जी ने मृत्यु को लाल ध्वज लिए स्त्री के रूप में उत्पन्न किया और उसे आदेश दिया कि प्राणियों को मारने का दायित्त्व ले। मृत्यु ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि मैं ये पाप नहीं कर सकती। ब्रह्माजी ने कहा कि तुम केवल इनके शरीर को समाप्त करोगी लेकिन जीव तो बार-बार जन्म लेते रहेंगे। इस पर मृत्यु ने ब्रह्माजी की बात स्वीकार कर ली और तब से प्राणियों की मृत्यु शुरू हो गई। समय के साथ मानव समाज में पाप बढ़ता गया। तब शंकर भगवान ने ब्रह्मा जी से पूछा कि इस पाप को समाप्त करने का आपके पास क्या उपाय है। ब्रह्माजी ने इस विषय में अपनी असमर्थता जताई। शंकर भगवान शीघ्र कोपी हैं। उन्हें क्रोध आ गया और उनके क्रोध से काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई थी। इससे काल भैरव को ब्रह्म हत्या लग गयी। काल भैरव तीनों लोकों में भ्रमण करते रहे लेकिन ब्रह्म हत्या से वे मुक्त नहीं हो पाए। ऐसी मान्यता है कि जब काल भैरव काशी पहुंचे, तब ब्रह्म हत्या ने उनका पीछा छोड़ा। उसी समय आकाशवाणी हुई कि तुम यहीं निवास करो और काशीवासियों के पाप-पुण्य के निर्णय का दायित्त्व संभालो। तब से भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए।
कथा-दो
दूसरी कथा यह भी है कि एक बार देवताओं की सभा हुई थी। उसमें ब्रह्मा जी के मुख से शंकर भगवान के प्रति कुछ अपमानजनक शब्द निकल गए। तब शंकर भगवान ने क्रोध में हुंकार भरी और उस हुंकार से काल भैरव प्रकट हुए और ब्रह्मा जी के उस सिर को काट दिया जिससे ब्रह्मा जी ने शंकर भगवान की निंदा की थी। काल भैरव को ब्रह्म हत्या दोष लगने और काशी में वास करने तक की आगे की कथा पहली कथा जैसी ही है। यह भी मान्यता है कि धर्म की मर्यादा बनाएं रखने के लिए भगवान शिव ने अपने ही अवतार काल भैरव को आदेश दिया था कि हे भैरव, तुमने ब्रह्माजी के पांचवें सिर को काटकर ब्रह्म हत्या का जो पाप किया है, उसके प्रायश्चित के लिए तुम्हें पृथ्वी पर जाकर माया जाल में फंसना होगा और विश्व भ्रमण करना होगा। जब ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर तुम्हारे हाथ से गिर जाएगा, उसी समय तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे और उसी स्थान पर स्थापित हो जाओगे। काल भैरव की यह यात्रा काशी में समाप्त हुई थी।
काल भैरव बड़े दयालु-कृपालु
काल भैरव का नाम सुनते ही एक अजीब-सी भय मिश्रित अनुभूति होती है। एक हाथ में ब्रह्माजी का कटा हुआ सिर और अन्य तीनों हाथों में खप्पर, त्रिशूल और डमरू लिए भगवान शिव के इस रुद्र रूप से लोगों को डर भी लगता है, लेकिन ये बड़े ही दयालु-कृपालु और जन का कल्याण करने वाले हैं। भैरव शब्द का अर्थ ही होता है भरण-पोषण करने वाला, जो भरण शब्द से बना है। काल भैरव की चर्चा रुद्रयामल तंत्र और जैन आगमों में भी विस्तारपूर्वक की गई है। शास्त्रों के अनुसार कलियुग में काल भैरव की उपासना शीघ्र फल देने वाली होती है। उनके दर्शन मात्र से शनि और राहु जैसे क्रूर ग्रहों का भी कुप्रभाव समाप्त हो जाता है। काल भैरव की सात्त्विक, राजसिक और तामसी तीनों विधियों में उपासना की जाती है।
इनकी पूजा में उड़द और उड़द से बनी वस्तुएं जैसे इमरती, दही बड़े आदि शामिल होते हैं। चमेली के फूल इन्हें विशेष प्रिय हैं। पहले भैरव को बकरे की बलि देने की प्रथा थी, जिस कारण मांस चढ़ाने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन अब परिवर्तन आ चुका है। अब बलि की प्रथा बंद हो गई है। आजकल धन की चाह में स्वर्णाकर्षण भैरव की भी साधना की जा रही है। स्वर्णाकर्षण भैरव काल भैरव का सात्त्विक रूप हैं, जिनकी पूजा धन प्राप्ति के लिए की जाती है। यह हमेशा पाताल में रहते हैं, जैसे सोना धरती के गर्भ में होता है। इनका प्रसाद दूध और मेवा है। यहां मदिरा-मांस सख्त वर्जित है। भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। इस कारण इनकी साधना का समय मध्य रात्रि यानी रात के 12 से 3 बजे के बीच का है। इनकी उपस्थिति का अनुभव गंध के माध्यम से होता है। शायद यही वजह है कि कुत्ता इनकी सवारी है। कुत्ते की गंध लेने की क्षमता जगजाहिर है। देवी महाकाली, काल भैरव और शनि देव ऐसे देवता हैं जिनकी उपासना के लिए बहुत कड़े परिश्रम, त्याग और ध्यान की आवश्यकता होती है। तीनों ही देव बहुत कड़क, क्रोधी और कड़ा दंड देने वाले माने जाते है। धर्म की रक्षा के लिए देवगणों की अपनी-अपनी विशेषताएं है। किसी भी अपराधी अथवा पापी को दंड देने के लिए कुछ कड़े नियमों का पालन जरूरी होता ही है। लेकिन ये तीनों देवगण अपने उपासकों, साधकों की मनाकामनाएं भी पूरी करते हैं। कार्यसिद्धि और कर्मसिद्धि का आशीर्वाद अपने साधकों को सदा देते रहते हैं। भगवान भैरव की उपासना बहुत जल्दी फल देती है। इस कारण आजकल उनकी उपासना काफी लोकप्रिय हो रही है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि भैरव की उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है। शनि की पूजा बढ़ी है। अगर आप शनि या राहु के प्रभाव में हैं तो शनि मंदिरों में शनि की पूजा में हिदायत दी जाती है कि शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। मान्यता है कि 40 दिनों तक लगातार काल भैरव का दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है। इसे चालीसा कहते हैं। चन्द्रमास के 28 दिनों और 12 राशियां जोड़कर ये 40 बने हैं।
भैरव साधना जैसी क्रियायें हैं ! इनकी साधना करने से सभी प्रकार की अहित में की गयीं तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं ! इस प्रकार की शत्रु बाधा निवारण के लिए भी भैरव साधना फलदायी है. भगवान बटुक भैरव के सात्विक स्वरूप का ध्यान करने से आयु में वृद्धि और समस्त आधि-व्याधि से मुक्ति मिलती है. इनके राजस स्वरूप का ध्यान करने से विविध अभिलाषाओं की पूर्ति संभव है. इनके तामस स्वरूप का ध्यान करने से किसी के द्वारा आपके अहित में की गयी शत्रु नाश, सम्मोहन, वशीकरणादि क्रियाओं का असर समाप्त हो जाता है ! भैरव की साधना में जुड़ने से शनि या राहु केतु से पीड़ित व्यक्ति सिर्फ शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन ही कर ले तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है ! भैरव नाथ तो स्वयं ही नाथों के नाथ हैं तंत्रों के ज्ञाता और मन्त्रों के साधक हैं ! नाथ संप्रदाय तो तंत्र का ही सिरमोर है ! इसी भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है. भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं. भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है. गृहस्थों के लिए काल भैरवाष्टक स्तोत्र का नियमित पाठ सर्वोत्तम है, जो अनेक बाधाओं से मुक्ति दिलाता है ! आईये आप को आज कुछ उपाय भी बता दें जो वशीकरण , स्तम्भन , विद्वेषण ,उचाटन, मोहन और मरण क्रियाओं के असर को ख़त्म कर देते हैं !
भैरव जी को उनका प्रिय भोग काली उड़द और उड़द से बने मिष्ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगायें बाबा प्रसन्न होंगे ! इसके अलावा सरसों का तेल, काजल सिंदूर और चमेली का तेल आदि से इनका सिंगार भी कर सकते हैं ! चलिए आप को भैरव बाबा का एक साधारण सा सर्वकार्य सिद्ध करने वाला मन्त्र भी बता दें ! ये मन्त्र है तीव्र भैरव मन्त्र :-
॥ ऊं भ्रं काल भैरवाय फट॥
।। ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।।
ॐ भयहरणं च भैरव:
शत्रु बाधा निवारण हेतु मन्त्र : -
ऊं ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणा कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं। इसी तरह अगर पाठ शुद्धता से करें तो कोई भी कष्ट आप का कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा बल्कि अप दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की ही करेंगे !
श्री बटुक भैरव स्तोत्र
सभी प्रकार की आपदाओं के निवारण का एक सिद्ध प्रयोग
(हिन्दी पद्यानुवाद)
।। पूर्व-पीठिका ।।
मेरु-पृष्ठ पर सुखासीन, वरदा देवाधिदेव शंकर से –
पूछा देवी पार्वती ने, अखिल विश्व-गुरु परमेश्वर से ।
जन-जन के कल्याण हेतु, वह सर्व-सिद्धिदा मन्त्र बताएँ –
जिससे सभी आपदाओं से साधक की रक्षा हो, वह सुख पाए ।
शिव बोले, आपद्-उद्धारक मन्त्र, स्तोत्र हूं मैं बतलाता,
देवि ! पाठ जप कर जिसका, है मानव सदा शान्ति-सुख पाता ।
।। ध्यान ।।
सात्विकः-
बाल-स्वरुप वटुक भैरव-स्फटिकोज्जवल-स्वरुप है जिनका,
घुँघराले केशों से सज्जित-गरिमा-युक्त रुप है जिनका,
दिव्य कलात्मक मणि-मय किंकिणि नूपुर से वे जो शोभित हैं,
भव्य-स्वरुप त्रिलोचन-धारी जिनसे पूर्ण-सृष्टि सुरभित है ।
कर-कमलों में शूल-दण्ड-धारी का ध्यान-यजन करता हूँ,
रात्रि-दिवस उन ईश वटुक-भैरव का मैं वन्दन करता हूँ ।
राजसः-
नवल उदीयमान-सविता-सम, भैरव का शरीर शोभित है,
रक्त-अंग-रागी, त्रैलोचन हैं जो, जिनका मुख हर्षित है ।
नील-वर्ण-ग्रीवा में भूषण, रक्त-माल धारण करते हैं,
शूल, कपाल, अभय, वर-मुद्रा ले साधक का भय हरते हैं ।
रक्त-वस्त्र बन्धूक-पुष्प-सा जिनका, जिनसे है जग सुरभित,
ध्यान करुँ उन भैरव का, जिनके केशों पर चन्द्र सुशोभित ।
तामसः-
तन की कान्ति नील-पर्वत-सी, मुक्ता-माल, चन्द्र धारण कर,
पिंगल-वर्ण-नेत्रवाले वे ईश दिगम्बर, रुप भयंकर ।
डमरु, खड्ग, अभय-मुद्रा, नर-मुण्ड, शुल वे धारण करते,
अंकुश, घण्टा, सर्प हस्त में लेकर साधक का भय हरते ।
दिव्य-मणि-जटित किंकिणि, नूपुर आदि भूषणों से जो शोभित,
भीषण सन्त-पंक्ति-धारी भैरव हों मुझसे पूजित, अर्चित ।
।। १०८ नामावली श्रीबटुक-भैरव ।।
भैरव, भूतात्मा, भूतनाथ को है मेरा शत-शत प्रणाम ।
क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रदः, क्षेत्रपाल, क्षत्रियः भूत-भावन जो हैं,
जो हैं विराट्, जो मांसाशी, रक्तपः, श्मशान-वासी जो हैं,
स्मरान्तक, पानप, सिद्ध, सिद्धिदः वही खर्पराशी जो हैं,
वह सिद्धि-सेवितः, काल-शमन, कंकाल, काल-काष्ठा-तनु हैं ।
उन कवि-स्वरुपः, पिंगल-लोचन, बहु-नेत्रः भैरव को प्रणाम ।
वह देव त्रि-नेत्रः, शूल-पाणि, कंकाली, खड्ग-पाणि जो हैं,
भूतपः, योगिनी-पति, अभीरु, भैरवी-नाथ भैरव जो हैं,
धनवान, धूम्र-लोचन जो हैं, धनदा, अधन-हारी जो हैं,
जो कपाल-भृत हैं, व्योम-केश, प्रतिभानवान भैरव जो हैं,
उन नाग-केश को, नाग-हार को, है मेरा शत-शत प्रणाम ।
कालः कपाल-माली त्रि-शिखी कमनीय त्रि-लोचन कला-निधि
वे ज्वलक्षेत्र, त्रैनेत्र-तनय, त्रैलोकप, डिम्भ, शान्त जो हैं,
जो शान्त-जन-प्रिय, चटु-वेष, खट्वांग-धारकः वटुकः हैं,
जो भूताध्यक्षः, परिचारक, पशु-पतिः, भिक्षुकः, धूर्तः हैं,
उन शुर, दिगम्बर, हरिणः को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम ।
जो पाण्डु-लोचनः, शुद्ध, शान्तिदः, वे जो हैं भैरव प्रशान्त,
शंकर-प्रिय-बान्धव, अष्ट-मूर्ति हैं, ज्ञान-चक्षु-धारक जो हैं,
हैं वहि तपोमय, हैं निधीश, हैं षडाधार, अष्टाधारः,
जो सर्प-युक्त हैं, शिखी-सखः, भू-पतिः, भूधरात्मज जो हैं,
भूधराधीश उन भूधर को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम ।
नीलाञ्जन-प्रख्य देह-धारी, सर्वापत्तारण, मारण हैं,
जो नाग-यज्ञोपवीत-धारी, स्तम्भी, मोहन, जृम्भण हैं,
वह शुद्धक, मुण्ड-विभूषित हैं, जो हैं कंकाल धारण करते,
मुण्डी, बलिभुक्, बलिभुङ्-नाथ, वे बालः हैं, वे क्षोभण हैं ।
उन बाल-पराक्रम, दुर्गः को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम ।
जो कान्तः, कामी, कला-निधिः, जो दुष्ट-भूत-निषेवित हैं,
जो कामिनि-वश-कृत, सर्व-सिद्धि-प्रद भैरव जगद्-रक्षाकर हैं,
जो वशी, अनन्तः हैं भैरव, वे माया-मन्त्रौषधि-मय हैं,
जो वैद्य, विष्णु, प्रभु सर्व-गुणी, मेरे आपद्-उद्धारक हैं ।
उन सर्व-शक्ति-मय भैरव-चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम ।
।। फल-श्रुति ।।
इन अष्टोत्तर-शत नामों को-भैरव के जो पढ़ता है,
शिव बोले – सुख पाता, दुख से दूर सदा वह रहता है ।
उत्पातों, दुःस्वप्नों, चोरों का भय पास न आता है,
शत्रु नष्ट होते, प्रेतों-रोगों से रक्षित रहता है ।
रहता बन्धन-मुक्त, राज-भय उसको नहीं सताता है,
कुपित ग्रहों से रक्षा होती, पाप नष्ट हो जाता है ।
अधिकाधिक पुनुरुक्ति पाठ की, जो श्रद्धा-पूर्वक करते हैं,
उनके हित कुछ नहीं असम्भव, वे निधि-सिद्धि प्राप्त करते हैं ।
श्री बटुक भैरव अपराध क्षमा पन स्तोत्र
ॐ गुरोः सेवा व्याकत्वा गुरुबचन शकतोपि न भवे
भवत्पुजा – ध्यानाज्ज्प हवन –यागा दिरहित : !
त्व्दर्चा- निर्माणे क्वचिदपि न यत्नं च कृतवान ,
जग ज्जाल-ग्रस्तों झटितिकुरु हादर मायि विभो !! 1 !!
प्रभु दुर्गा सुनो ! तव शरणतां सोयधिगतवान ,
कृपालों ! दुखार्त: कमपि भवदन्नयं प्रकथये !
सुहृत ! सम्पतेयहं सरल –विरल साधक जन ,
स्तवदन्य: क्स्त्राता भव-दहन –दाहं शमयति !!2!!
वदान्यों मन्यसत्वं विविध जनपालों वभसि वै ,
दयालुर्दी नर्तान भवजलधिपारम गमयसि !
अतस्त्वतो याचे नति- नियमतोयकिञ्च्नधन ,
सदा भूयात भावः पदनलिनयोस्ते तिमिरहा !!3!!
अजापूर्वो विप्रो मिलपदपरो योयतिपतितो ,
महामूर्खों दुष्टो वृजननिरत: पामरनृप: !
असत्पाना सक्त्तो यवन युवती व्रातरमण,
प्रभा वातत्वन्नान्म: परमपदवी सोप्याधिगत !!4!!
द्यां दीर्घाम दीने बटुक ! कुरु विश्वम्भर मयी,
न चन्यस्संत्राता परम शिव मां पलाया विभो !
महाशचर्याम प्राप्तस्त्व सरलदृष्टच्या विरहित: ,
कृपापूर्णेनेत्रे: कजदल निर्भेमा खचयतात !!5!!
सहस्ये किं हंसो नहि तपति दीनं जनचयम,
घनान्ते किं चंर्दोंयसमकर- निपातो भुवितले!
कृपादृष्टे स्तेहं भयहर भिवों किं विरहितों,
जले वा हमर्ये वा घनरस- निपातो न विषम!!6!!
त्रिमूर्तित्वं गीतों हरिहर- विधात्मकगुणो !
निराकारा: शुद्ध: परतरपर: सोयप्यविषय: ,
द्या रूपं शान्तम मुनिगननुतं भक्तदायितं !!7!!
तपोयोगं संख्यम यम-नियम –चेत: प्रयजनं,
न कौलाचर्चा-चक्रम हरिहरविधिनां प्रियतरम!
न जाने ते भक्तिम परममुनिमार्गाम मधु विधि,
तथाप्येषा वाणी परिरटति नित्यं तव यश :!!8!!
न मे कांक्षा धर्मे न वसुनिच्ये राज्य निवहे: ,
न मे स्त्रीणा भोगे सखि-सुत-कटुम्बेषु न च मे!
यदा यद्द्द भाव्यं भवतु भगवन पूर्वसकृतान ,
ममैत्तू प्रथर्यम तव विमल- भक्ति: प्रभवतात!!9!!
कियांस्तेस्मदभार: पतित पतिता स्तारयासि भो,
मद्न्य: क: पापी ययन बिमुख पाठ रहित :!
दृढ़ो मे विश्वासस्तव नियति रुद्धार विषय:,
सदा स्याद विश्र्म्भ: कवचिदपि मृषा माँ च भवतात!!10!!
भवदभावादभिन्नो व्यसन- निरत: को मदपरो ,
मदान्ध: पाप आत्मा बटुक !शिव ! ते नाम रहित !
उदरात्मन बन्धो नहि तवकतुल्य: कालुपहा ,
पुनः संचिन्त्यैवं कुरु हृदि यथेच्छसि तथा !!11!!
जपान्ते स्नानांते हमुषसि च निशिथे जपति यो ,
महा सौख्यं देवी वितरति नु तस्मै प्रमुदित:!
अहोरात्रम पाशर्वे परिवसति भकतानु गमनों ,
वयोन्ते संहृष्ट: परिनियति भकतानस्व भुवनम !!12!!

श्रीस्वर्णाकर्षणभैरवस्तोत्र
।।श्रीमार्कण्डेयउवाच।।
भगवन् ! प्रमथाधीश ! शिव-तुल्य-पराक्रम !
पूर्वमुक्तस्त्वयामन्त्रं, भैरवस्यमहात्मनः।।
इदानींश्रोतुमिच्छामि, तस्यस्तोत्रमनुत्तमं।
तत्केनोक्तंपुरास्तोत्रं, पठनात्तस्यकिंफलम्।।
तत्सर्वंश्रोतुमिच्छामि, ब्रूहिमेनन्दिकेश्वर !।।
।।श्रीनन्दिकेश्वरउवाच।।
इदंब्रह्मन् ! महा-भाग, लोकानामुपकारक !
स्तोत्रंवटुक-नाथस्य, दुर्लभंभुवन-त्रये।।
सर्व-पाप-प्रशमनं, सर्व-सम्पत्ति-दायकम्।
दारिद्र्य-शमनंपुंसामापदा-भय-हारकम्।।
अष्टैश्वर्य-प्रदंनृणां, पराजय-विनाशनम्।
महा-कान्ति-प्रदंचैव, सोम-सौन्दर्य-दायकम्।।
महा-कीर्ति-प्रदंस्तोत्रं, भैरवस्यमहात्मनः।
नवक्तव्यंनिराचारे, हिपुत्रायचसर्वथा।।
शुचयेगुरु-भक्ताय, शुचयेऽपितपस्विने।
महा-भैरव-भक्ताय, सेवितेनिर्धनायच।।
निज-भक्तायवक्तव्यमन्यथाशापमाप्नुयात्।
स्तोत्रमेतत्भैरवस्य, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मनः।।
श्रृणुष्वब्रूहितोब्रह्मन् ! सर्व-काम-प्रदायकम्।।
विनियोगः-ॐअस्यश्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-स्तोत्रस्यब्रह्माऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-देवता, ह्रींबीजं, क्लींशक्ति, सःकीलकम्, मम-सर्व-काम-सिद्धयर्थेपाठेविनियोगः।
ध्यानः-
मन्दार-द्रुम-मूल-भाजिविजितेरत्नासनेसंस्थिते।
दिव्यंचारुण-चञ्चुकाधर-रुचादेव्याकृतालिंगनः।।
भक्तेभ्यःकर-रत्न-पात्र-भरितंस्वर्णदधानोभृशम्।
स्वर्णाकर्षण-भैरवोभवतुमेस्वर्गापवर्ग-प्रदः।।
।।स्तोत्र-पाठ।।
ॐनमस्तेऽस्तुभैरवाय, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मने,
नमःत्रैलोक्य-वन्द्याय, वरदायपरात्मने।।
रत्न-सिंहासनस्थाय, दिव्याभरण-शोभिने।
नमस्तेऽनेक-हस्ताय, ह्यनेक-शिरसेनमः।
नमस्तेऽनेक-नेत्राय, ह्यनेक-विभवेनमः।।
नमस्तेऽनेक-कण्ठाय, ह्यनेकान्तायतेनमः।
नमोस्त्वनेकैश्वर्याय, ह्यनेक-दिव्य-तेजसे।।
अनेकायुध-युक्ताय, ह्यनेक-सुर-सेविने।
अनेक-गुण-युक्ताय, महा-देवायतेनमः।।
नमोदारिद्रय-कालाय, महा-सम्पत्-प्रदायिने।
श्रीभैरवी-प्रयुक्ताय, त्रिलोकेशायतेनमः।।
दिगम्बर ! नमस्तुभ्यं, दिगीशायनमोनमः।
नमोऽस्तुदैत्य-कालाय, पाप-कालायतेनमः।।
सर्वज्ञायनमस्तुभ्यं, नमस्तेदिव्य-चक्षुषे।
अजितायनमस्तुभ्यं, जितामित्रायतेनमः।।
नमस्तेरुद्र-पुत्राय, गण-नाथायतेनमः।
नमस्तेवीर-वीराय, महा-वीरायतेनमः।।
नमोऽस्त्वनन्त-वीर्याय, महा-घोरायतेनमः।
नमस्तेघोर-घोराय, विश्व-घोरायतेनमः।।
नमःउग्रायशान्ताय, भक्तेभ्यःशान्ति-दायिने।
गुरवेसर्व-लोकानां, नमःप्रणव-रुपिणे।।
नमस्तेवाग्-भवाख्याय, दीर्घ-कामायतेनमः।
नमस्तेकाम-राजाय, योषित्कामायतेनमः।।
दीर्घ-माया-स्वरुपाय, महा-माया-पतेनमः।
सृष्टि-माया-स्वरुपाय, विसर्गायसम्यायिने।।
रुद्र-लोकेश-पूज्याय, ह्यापदुद्धारणायच।
नमोऽजामल-बद्धाय, सुवर्णाकर्षणायते।।
नमोनमोभैरवाय, महा-दारिद्रय-नाशिने।
उन्मूलन-कर्मठाय, ह्यलक्ष्म्यासर्वदानमः।।
नमोलोक-त्रेशाय, स्वानन्द-निहितायते।
नमःश्रीबीज-रुपाय, सर्व-काम-प्रदायिने।।
नमोमहा-भैरवाय, श्रीरुपायनमोनमः।
धनाध्यक्ष ! नमस्तुभ्यं, शरण्यायनमोनमः।।
नमःप्रसन्न-रुपाय, ह्यादि-देवायतेनमः।
नमस्तेमन्त्र-रुपाय, नमस्तेरत्न-रुपिणे।।
नमस्तेस्वर्ण-रुपाय, सुवर्णायनमोनमः।
नमःसुवर्ण-वर्णाय, महा-पुण्यायतेनमः।।
नमःशुद्धायबुद्धाय, नमःसंसार-तारिणे।
नमोदेवायगुह्याय, प्रबलायनमोनमः।।
नमस्तेबल-रुपाय, परेषांबल-नाशिने।
नमस्तेस्वर्ग-संस्थाय, नमोभूर्लोक-वासिने।।
नमःपाताल-वासाय, निराधारायतेनमः।
नमोनमःस्वतन्त्राय, ह्यनन्तायनमोनमः।।
द्वि-भुजायनमस्तुभ्यं, भुज-त्रय-सुशोभिने।
नमोऽणिमादि-सिद्धाय, स्वर्ण-हस्तायतेनमः।।
पूर्ण-चन्द्र-प्रतीकाश-वदनाम्भोज-शोभिने।
नमस्तेस्वर्ण-रुपाय, स्वर्णालंकार-शोभिने।।
नमःस्वर्णाकर्षणाय, स्वर्णाभायचतेनमः।
नमस्तेस्वर्ण-कण्ठाय, स्वर्णालंकार-धारिणे।।
स्वर्ण-सिंहासनस्थाय, स्वर्ण-पादायतेनमः।
नमःस्वर्णाभ-पाराय, स्वर्ण-काञ्ची-सुशोभिने।।
नमस्तेस्वर्ण-जंघाय, भक्त-काम-दुघात्मने।
नमस्तेस्वर्ण-भक्तानां, कल्प-वृक्ष-स्वरुपिणे।।
चिन्तामणि-स्वरुपाय, नमोब्रह्मादि-सेविने।
कल्पद्रुमाधः-संस्थाय, बहु-स्वर्ण-प्रदायिने।।
भय-कालायभक्तेभ्यः, सर्वाभीष्ट-प्रदायिने।
नमोहेमादि-कर्षाय, भैरवायनमोनमः।।
स्तवेनानेनसन्तुष्टो, भवलोकेश-भैरव !
पश्यमांकरुणाविष्ट, शरणागत-वत्सल !
श्रीभैरवधनाध्यक्ष, शरणंत्वांभजाम्यहम्।
प्रसीदसकलान्कामान्, प्रयच्छममसर्वदा।।
।।फल-श्रुति।।
श्रीमहा-भैरवस्येदं, स्तोत्रसूक्तंसु-दुर्लभम्।
मन्त्रात्मकंमहा-पुण्यं, सर्वैश्वर्य-प्रदायकम्।।
यःपठेन्नित्यमेकाग्रं, पातकैःसविमुच्यते।
लभतेचामला-लक्ष्मीमष्टैश्वर्यमवाप्नुयात्।।
चिन्तामणिमवाप्नोति, धेनुंकल्पतरुंध्रुवम्।
स्वर्ण-राशिमवाप्नोति, सिद्धिमेवसमानवः।।
संध्याययःपठेत्स्तोत्र, दशावृत्त्यानरोत्तमैः।
स्वप्नेश्रीभैरवस्तस्य, साक्षाद्भूतोजगद्-गुरुः।
स्वर्ण-राशिददात्येव, तत्क्षणान्नास्तिसंशयः।
सर्वदायःपठेत्स्तोत्रं, भैरवस्यमहात्मनः।।
लोक-त्रयंवशीकुर्यात्, अचलांश्रियंचाप्नुयात्।
नभयंलभतेक्वापि, विघ्न-भूतादि-सम्भव।।
म्रियन्तेशत्रवोऽवश्यमलक्ष्मी-नाशमाप्नुयात्।
अक्षयंलभतेसौख्यं, सर्वदामानवोत्तमः।।
अष्ट-पञ्चाशताणढ्यो, मन्त्र-राजःप्रकीर्तितः।
दारिद्र्य-दुःख-शमनं, स्वर्णाकर्षण-कारकः।।
ययेनसंजपेत्धीमान्, स्तोत्रवाप्रपठेत्सदा।
महा-भैरव-सायुज्यं, स्वान्त-कालेभवेद्ध्रुवं।।
मूल-मन्त्रः- “ॐऐंक्लांक्लींक्लूंह्रांह्रींह्रूंसःवंआपदुद्धारणायअजामल-बद्धायलोकेश्वरायस्वर्णाकर्षण-भैरवायममदारिद्र्य-विद्वेषणायश्रींमहा-भैरवायनमः।”
बटुक भैरव अष्टोत्तर-शतनाम स्तोत्र ( संहार क्रम )
विनियोग:- ॐ अस्य श्रीबटुक भैरव स्तोत्र मन्त्रस्य, कालाग्नि रूद्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, आपदुद्धारक बटुक भैरवो देवता, ह्रीं बीजम्, भैरवी वल्लभः शक्तिः, नील वर्णों दण्ड पाणि: कीलकं, समस्त शत्रु दमने समस्ता-पन्निवारणे सर्वाभीष्ट प्रदाने च विनियोगः ।
ऋष्यादि न्यास :-
ॐ कालाग्नि ऋषये नमः शिरसि ।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे ।
आपदुद्धारक श्रीबटुक भैरव देवतायै नमः हृदये ।
ह्रीं बीजाय नमः गुह्यये ।
भैरवी वल्लभ शक्तये नमः पादयोः
नील वर्णों दण्ड-पाणि: कीलकाय नमः नाभौ ।
समस्त शत्रु दमने समस्तापन्निवारणे सर्वाभीष्ट प्रदाने च विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
मूल-मन्त्र :-
ॐ ह्रीं बं बटुकाय क्षौं क्षौं आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय स्वाहा ।
ध्यान :-
नील-जीमूत-संकाशो जटिलो रक्त-लोचनः ।
दंष्ट्रा कराल वदनः सर्प यज्ञोपवीत-वान् ।।
दंष्ट्राSSयुधालंकृतश्च कपाल-स्त्रग्-विभूषितः ।
हस्त-न्यस्त-करो टीका-भस्म-भूषित-विग्रहः ।।
नाग-राज-कटि-सूत्रों बाल-मूर्तिर्दिगम्बरः ।
मञ्जु-सिञ्जान-मञ्जरी-पाद-कम्पित-भूतलः ।।
भूत-प्रेत-पिशाचैश्च सर्वतः परिवारितः ।
योगिनी-चक्र-मध्यस्थो मातृ-मण्डल-वेष्टितः ।।
अट्टहास-स्फुरद्-वक्त्रो भृकुटी-भीषणाननः ।
भक्त-संरक्षणार्थ हि दिक्षु भ्रमण-तत्परः ।।
स्तोत्र
ॐ ह्रीं बटुकों वरदः शूरो भैरवः काल भैरवः ।
भैरवी वल्लभो भव्यो दण्ड पाणिर्दया निधिः ।।1
वेताल वाहनों रौद्रो रूद्र भृकुटि सम्भवः ।
कपाल लोचनः कान्तः कामिनी वश कृद् वशी ।।2
आपदुद्धारणो धीरो हरिणाङ्क शिरोमणिः ।
दंष्ट्रा-करालो दष्टोष्ठौ धृष्टो-दुष्ट-निवर्हणः ।।3
सर्प-हारः सर्प-शिरः सर्प-कुण्डल-मण्डितः ।
कपाली करुणा-पूर्णः कपालैक-शिरोमणिः ।।4
श्मशान-वासी मासांशी मधु-मत्तोSट्टहास-वान् ।
वाग्मी वाम-व्रतो वामो वाम-देव-प्रियंङ्करः ।।5
वनेचरो रात्रि-चरो वसुदो वायु-वेग-वान् ।
योगी योग-व्रत-धरो योगिनी-वल्लभो युवा ।।6
वीर-भद्रो विश्वनाथो विजेता वीर-वन्दितः ।
भूताध्यक्षो भूति-धरो भूत-भीति-निवरणः ।।7
कलङ्क-हीनः कंकाली क्रूरः कुक्कुर-वाहनः ।
गाढ़ो गहन-गम्भीरो गण-नाथ-सहोदरः ।।8
देवी-पुत्रो दिव्य-मूर्तिर्दीप्ति-मान् दिवा-लोचनः ।
महासेन-प्रिय-करो मान्यो माधव-मातुलः ।।9
भद्र-काली -पतिर्भद्रो भद्रदो भद्र-वाहनः ।
पशूपहार-रसिकः पाशी पशु-पतिः पतिः ।।10
चण्डः प्रचण्ड-चण्डेशश्चण्डी-हृदय-नन्दनः ।
दक्षो दक्षाध्वर-हरो दिग्वासा दीर्घ-लोचनः ।।11
निरातङ्को निर्विकल्पः कल्पः कल्पान्त-भैरवः ।
मद-ताण्डव-कृन्मत्तो महादेव-प्रियो महान् ।।12
खट्वांग-पाणिः खातीतः खर-शूलः खरान्त-कृत् ।
ब्रह्माण्ड-भेदनो ब्रह्म-ज्ञानी ब्राह्मण-पालकः ।।13
दिक्-चरो भू-चरो भूष्णुः खेचरः खेलन-प्रियः ,
सर्व-दुष्ट-प्रहर्त्ता च सर्व-रोग-निषूदनः ।
सर्व-काम-प्रदः शर्वः सर्व-पाप-निकृन्तनः ।।14
फल-श्रुति
इत्थमष्टोत्तर-शतं नाम्ना सर्व-समृद्धिदम् ।
आपदुद्धार-जनकं बटुकस्य प्रकीर्तितम् ।।
एतच्च श्रृणुयान्नित्यं लिखेद् वा स्थापयेद् गृहे ।
धारयेद् वा गले बाहौ तस्य सर्वा समृद्धयः ।।
न तस्य दुरितं किञ्चिन्न चौर-नृपजं भयम् ।
न चापस्मृति-रोगेभ्यो डाकिनीभ्यो भयं नहि ।।
न कूष्माण्ड-ग्रहादिभ्यो नापमृत्योर्न च ज्वरात् ।
मासमेकं त्रि-सन्ध्यं तु शुचिर्भूत्वा पठेन्नरः ।।
सर्व-दारिद्रय-निर्मुक्तो निधि पश्यति भूतले ।
मास-द्वयमधीयानः पादुका-सिद्धिमान् भवेत् ।।
अञ्जनं गुटिका खड्गं धातु-वाद-रसायनम् ।
सारस्वतं च वेताल-वाहनं बिल-साधनम् ।।
कार्य-सिद्धिं महा-सिद्धिं मन्त्रं चैव समीहितम् ।
वर्ष-मात्रमधीनः प्राप्नुयात् साधकोत्तमः ।।
एतत् ते कथितं देवि ! गुह्याद् गुह्यतरं परम् ।
कलि-कल्मष-नाशनं वशीकरणं चाम्बिके ! ।।
स्वर्णाकर्षण भैरवस्तोत्रम्
ॐ नमस्ते भैरवाय ब्रह्मविष्णु शिवात्मने । नमस्त्रैलोक्य वन्द्याय वरदाय वरात्मने ।।
रत्नसिंहासनस्थाय दिव्याभरण शोभिने । दिव्यमाल्य विभूषाय नमस्ते दिव्यमूर्तये ।।
नमस्तेअनेकहस्ताय अनेक शिरसे नमः । नमस्तेअनेकनेत्राय अनेक विभवे नमः ।।
नमस्तेअनेक कण्ठाय अनेकांशाय ते नमः । नमस्तेअनेक पार्श्वाय नमस्ते दिव्य तेजसे ।।
अनेकायुधयुक्ताय अनेक सुर सेविने । अनेकगुण युक्ताय महादेवाय ते नमः ।।
नमो दारिद्रयकालाय महासम्पद प्रदायिने । श्री भैरवी सयुंक्ताय त्रिलोकेशाय ते नमः ।।
दिगम्बर नमस्तुभ्यं दिव्यांगाय नमो नमः । नमोअस्तु दैत्यकालाय पापकालाय ते नमः ।।
सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्य चक्षुषे । अजिताय नमस्तुभ्यं जितामित्राय ते नमः ।।
नमस्ते रुद्ररूपाय महावीराय ते नमः । नामोअस्तवनन्तवीर्याय महाघोराय ते नमः ।।
नमस्ते घोर घोराय विश्वघोराय ते नमः । नमः उग्रायशान्ताय भक्तानांशान्तिदायिने ।।
गुरवे सर्वलोकानां नमः प्रणवरुपिणे । नमस्ते वाग्भवाख्याय दीर्घकामाय ते नमः ।।
नमस्ते कामराजाययोषित कामाय ते नमः । दीर्घमायास्वरुपाय महामाया ते नमः ।।
सृष्टिमाया स्वरूपाय विसर्गसमयाय ते । सुरलोक सुपूज्याय आपदुद्धारणाय च ।।
नमो नमो भैरवाय महादारिद्रय नाशिने । उन्मूलने कर्मठाय अलक्ष्म्याः सर्वदा नमः ।।
नमो अजामिलबद्धाय नमो लोकेश्वराय ते । स्वर्णाकर्षणशीलाय भैरवाय नमो नमः ।।
ममदारिद्रय विद्वेषणाय लक्ष्याय ते नमः । नमो लोकत्रयेशाय स्वानन्द निहिताय ते ।।
नमः श्रीबीजरुपाय सर्वकाम प्रदायिने । नमो महाभैरवाय श्रीभैरव नमो नमः ।।
धनाध्यक्ष नमस्तुभ्यं शरण्याय नमो नमः । नमः प्रसंनरुपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमस्ते मंत्ररुपाय नमस्ते मंत्ररुपिणे । नमस्ते स्वर्णरूपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमः सुवर्णवर्णाय महापुण्याय ते नमः । नमः शुद्धाय बुद्धाय नमः संसार तारिणे ।।
नमो देवाय गुह्माय प्रचलाय नमो नमः । नमस्ते बालरुपाय परेशां बलनाशिने ।।
नमस्ते स्वर्ण संस्थाय नमो भूतलवासिने । नमः पातालवासाय अनाधाराय ते नमः ।।
नमो नमस्ते शान्ताय अनन्ताय नमो नमः । द्विभुजाय नमस्तुभ्यं भुजत्रयसुशोभिने ।।
नमोअनमादी सिद्धाय स्वर्णहस्ताय ते नमः । पूर्णचन्द्र प्रतीकाशवदनाम्भोज शोभिने ।।
मनस्तेअस्तु स्वरूपाय स्वर्णालंकार शोभिने । नमः स्वर्णाकर्षणाय स्वर्णाभाय नमो नमः ।।
नमस्ते स्वर्णकण्ठाय स्वर्णाभाम्बर धारिणे । स्वर्णसिंहासनस्थाय स्वर्णपादाय ते नमः ।।
नमः स्वर्णाभपादय स्वर्णकाञ्ची सुशोभिने । नमस्ते स्वर्णजन्घाय भक्तकामदुधात्मने ।।
नमस्ते स्वर्णभक्ताय कल्पवृक्ष स्वरूपिणे । चिंतामणि स्वरूपाय नमो ब्रह्मादी सेविने ।।
कल्पद्रुमाद्यः संस्थाय बहुस्वर्ण प्रदायिने । नमो हेमाकर्षणाय भैरवाय नमो नमः ।।
स्तवेनान संतुष्टो भव लोकेश भैरव । पश्यमाम करुणादृष्टाय शरणागतवत्सल ।।
फलश्रुतिः
श्री महाभैरवस्येदं स्तोत्रमुक्तं सुदुर्लभम । मन्त्रात्मकं महापुण्यं सर्वैश्वर्यप्रदायकम ।।
यः पठेन्नित्यमेकाग्रं पातकैः स प्रमुच्यते । लभते महतीं लक्ष्मीमष्टएश्वर्यमवाप्नुयात ।।
चिंतामणिमवाप्नोति धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम । स्वर्णराशिं वाप्नोति शीघ्रमेव स मानवः ।।
त्रिसंध्यं यः पठेत स्तोत्रं दशावृत्या नरोत्तमः । स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य साक्षाद भूत्वा जगदगुरुः ।।
स्वर्णाराशिं ददात्यस्मै तत्क्षणं नास्ति संशयः । अष्टावृत्या पठेत यस्तु संध्यायां वा नरोत्तमः ।।
सर्वदा यः पठेत स्तोत्रं भैरवश्य महात्मनः ।।
लोकत्रयं वाशिकुर्यादचलां श्रियमाप्नुयात । न भयं विद्यते नवापि विषभूतादी सम्भवम ।।
अष्ट पञ्चाशद वर्णाढयो मन्त्रराजः प्रकीर्तितः । दारिद्रय दुःख शमनः स्वर्णाकर्षण कारकः ।।
य एन सन्जपेद धीमान स्तोत्रं वा प्रयठेत सदा । महाभैरव सायुज्यं सो अन्तकाले लभेद ध्रुवम ।।
स्वर्णाकर्षण मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं आपदुध्दरणाय ह्रां ह्रीं ह्रूं अजामिलबध्दाय लोकेश्वराय स्वार्णाकर्षणभैरवाय ममदारिद्रय विद्वेषणाय महाभैरवाय नमः श्रीं ह्रीं ऐं ।
यह श्री स्वर्ण भैरव तंत्र है, इस त्रान्त्रिक क्रिया के द्वारा स्वयं श्री भैरव स्वप्न में आकर आपका मार्ग प्रदर्शन करते है । एवं दरिद्रता नाश कर लक्ष्मी प्रदान करते है ।
तांत्रिक भैरव मंदिर
देश का दुर्लभ तांत्रिक मंदिर बाजनामठ
बाजनामठ देश का दुर्लभ तांत्रिक मंदिर है। सिद्ध तांत्रिकों के मतानुसार यह ऐसा तांत्रिक मंदिर है जिसकी हर ईंट शुभ नक्षत्र में मंत्रों द्वारा सिद्ध करके जमाई गई है। ऐसे मंदिर पूरे देश में कुल तीन हैं, जिनमें एक बाजनामठ तथा दो काशी और महोबा में हैं।
बाजनामठ का निर्माण 1520 ईस्वी में राजा संग्राम शाह द्वारा बटुक भैरव मंदिर के नाम से कराया गया था। इस मठ के गुंबद से त्रिशूल से निकलने वाली प्राकृतिक ध्वनि-तरंगों से शक्ति जागृत होती है।
कुछ कथानकों के अनुसार यह मठ ईसा पूर्व का स्थापित माना जाता है। आद्य शंकराचार्य के भ्रमण के समय उस युग के प्रचण्ड तांत्रिक अघोरी भैरवनंद का नाम अलौकिक सिद्धि प्राप्त तांत्रिक योगी के रूप में मिलता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार भैरव को जागृत करने के लिए उनका आह्वान तथा स्थापना नौ मुण्डों के आसन पर ही की जाती है। जिसमें सिंह, श्वान, शूकर, भैंस और चार मानव-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार नौ प्राणियों की बली चढ़ाई जाती है। किंतु भैरवनंद के लिए दो बलि शेष रह गई थी।
यह माना जाता है कि बाजनामठ का जीर्णोद्धार सोलहवीं सदी में गोंड राजा संग्राम शाह के शासनकाल में हुआ, किंतु इसकी स्थापना ईसा पूर्व की है।
बाजनामठ को लेकर एक जनश्रुति यह है कि एक तांत्रिक ने राजा संग्राम शाह की बलि चढ़ाने के लिए उन्हें बाजनामठ ले जाकर पूजा विधान किया। राजा से भैरव मूर्ति की परिक्रमा कर साष्टांग प्रणाम करने को कहा, राजा को संदेह हुआ और उन्होंने तांत्रिक से कहा कि वह पहले प्रणाम का तरीका बताए।
तांत्रिक ने जैसे ही साष्टांग का आसन किया, राजा ने तुरंत उसका सिर काटकर बलि चढ़ा दी। मार्गशीष महीने में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भैरव जयंती मनाई जाती है। यह दिन तांत्रिकों के लिए महत्वपूर्ण होता है। बाजनामठ की एक खशसियत यह है कि यहाँ पहले सिर्फ शनिवार को श्रद्धालुओं की भीड़ होती थी, लेकिन अब हर दिन यहाँ भारी भीड़ होती है।.....

भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव
शास्त्रों में भैरव के विभिन्न रुपों का उल्लेख मिलता है । तन्त्र में अष्ट भैरव तथा उनकी आठ शक्तियों का उल्लेख मिलता है । श्रीशंकराचार्य ने भी “प्रपञ्च-सार तन्त्र” में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं । सप्तविंशति रहस्य में सात भैरवों के नाम हैं । इसी ग्रन्थ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है । इसी में तीन वटुक-भैरवों का उल्लेख है । रुद्रायमल तन्त्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है । आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है ।
इनमें “बटुक-भैरव” सबसे सौम्य रुप है । “महा-काल-भैरव” मृत्यु के देवता हैं । “स्वर्णाकर्षण-भैरव” को धन-धान्य और सम्पत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तगो “बाल-भैरव” की आराधना बालक के रुप में की जाती है । सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही हरते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की । इनके अतिरिक्त तन्त्र साधना में भैरव के ये आठ रुप भी अधिक लोकप्रिय हैं -
१॰ असितांग भैरव, २॰ रु-रु भैरव, ३॰ चण्ड भैरव, ४॰ क्रोधोन्मत्त भैरव, ५॰ भयंकर भैरव, ६॰ कपाली भैरव, ७॰ भीषण भैरव तथा संहार भैरव ।
भैरव की उत्पत्ति
रुद्र के भैरवावतार की विवेचनाट शिव-पुराण में इस प्रकार है ” एक बार समस्त ऋषिगणों में परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई । वे परम-ब्रह्म को जानकर उसकी तपस्या करना चाहते थे । यह जिज्ञासा लेकर वे समस्त ऋषिगण देवलोक पहुँचे । वहाँ उन्होंने ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि हम सभी ऋषिगण उस परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से आपके पास आए हैं ।कृपा करके हमें बताइये कि वह कौन है, जिसकी तपस्या कर सकें ? इस पर ब्रह्मा जी ने स्वयं को ही इंगित करते हुए कहा, ” मैं ही वह परम-तत्त्व हूँ ।”
ऋषिगण उनके इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए । तब यही प्रश्न लेकर वे क्षीर-सागर में भगवान् विष्णु के पास गए, परन्तु उन्होंने भी कहा वे ही परम-तत्त्व हैं, अतः उनकी आराधना करना श्रेष्ठ है, किन्तु उनके भी उत्तर से ऋषि-समूह सन्तुष्ट नहीं हो सका । अन्त में उन्होंने वेदों के पास जाने का निश्चय किया । वेदों के समक्ष जाकर उन्होंने यही जिज्ञासा प्रकट की कि हमें परम-तत्त्व के बारे में ज्ञान दीजिये ।
इस पर वेदों ने उत्तर दिया कि, “शिव ही परम-तत्त्व है । वे ही सर्वश्रेष्ठ और पूजन के योग्य हैं ।” यह उत्तर सुनकर ब्रह्मा और विष्णु ने वेदों की बात को अस्वीकार कर दिया । उसी समय वहाँ एक तेज-पुँज प्रकट हुआ और उसने धीरे-धीरे एक पुरुषाकृति को धारण कर लिया । यह देख ब्रह्मा का पँचम सिर क्रोधोन्मत्त हो उठा और उस आकृति से बोला, “पूर्वकाल में मेरे भाल से ही तुम उत्पन्न हुए हो, मैंने ही तुम्हारा नाम ‘रुद्र’ रखा था । तुम मेरे पुत्र हो, मेरी शरण में आओ ।”
ब्रह्मा की इस गर्वोक्ति से वह तेज-पुँज रुपी शिव जी कुपित हो गए और उन्होंने एक अत्यन्त भीषण पुरुष को उत्पन्न कर उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “आप काल-राज हैं, क्योंकि काल की भाँति शोभित हैं । आप भैरव हैं, क्योंकि आप अत्यन्त भीषण हैं । आप काल-भैरव हैं, क्योंकि काल भी आपसे भयभीत होगा । आप आमर्दक हैं, क्योंकि आप दुष्टात्माओं का नाश करेंगे ।”
शिव से वरदान प्राप्त करके श्रीभैरव ने अपने नखाग्र से ब्रह्मा के अपराधकर्त्ता पँचम सिर का विच्छेद कर दिया । लोक मर्यादा रक्षक शिवजी ने ब्रह्म-हत्या मुक्ति के लिए भैरव को कापालिक व्रत धारण करवाया और काशी में निवास करने की आज्ञा दे दी ।
श्रीबटुक के पटल में भगवान् शंकर ने कहा कि “हे पार्वति ! मैंने प्राणियों को सभी प्रकार के सुख देने वाले बटुकभैरव का रुप धारण किया है । अन्य देवता तो देर से कृपा करते हैं, किन्तु भैरव शीघ्र ही अपने साधकों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । उदाहरण के तौर पर भैरव का वाहन कुत्ता अपनी स्वामी-भक्ति के लिए प्रसिद्ध है ।
शारदा तिलक आदि तन्त्र ग्रन्थों में श्री बटुक भैरव के सात्त्विक, राजस, तामस तीनों ध्यान भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है । रुप उपासना भेद से उनका फल भी भिन्न हैं । सात्त्विक ध्यान अपमृत्यु-नाशक, आयु-आरोग्य-प्रद तथा मोक्ष-प्रद है । धर्म, अर्थ, काम के लिए राजस ध्यान है । कृत्या, भूतादि तथा शत्रु-शमन के लिए तामस ध्यान किया जाता है ।
तान्त्रिक पूजन में आनन्द भैरव और भैरवी का पूजन आवश्यक होता है । इनका ध्यान आदि पूजा पद्धतियों में वर्णित किया गया है । तन्त्र साधना में “मजूंघोष” की साधना का वर्णन है । ये भैरव के ही स्वरुप माने गए हैं । इनकी उपासना से स्मृति की वृद्धि और जड़ता का नाश होता है ।
भैरव पूजा में रखी जाने वाली सावधानियाँ
१॰ भैरव साधना से नमोकामना पूर्ण होती है, अपनी मनोकामना संकल्प में बोलनी चाहिये ।
२॰ भैरव को नैवेद्य में मदिरा चढ़ानी चाहिए, यह सम्भव नहीं हो, तो मदिरा के स्थान पर दही-गुड़ मिलाकर अर्पित करें ।
३॰ भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें ।
४॰ भैरव मन्त्र का जप रुद्राक्ष माला से किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त काले हकीक की माला भी उपयुक्त है ।
५॰ भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिये ।
६॰ भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण कर लेना चाहिये ।
७॰ भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार निर्धारित है । रविवार को खीर, सोमवार को लड्डू, मंगलवार को घी और गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को उड़द के पकौड़े अथवा जलेबी तथा तले हुए पापड़ आदि का भोग लगाया जाता है ।

**** ॥ श्रीबटुक भैरवाष्टोत्तर शतनामवलिः ॥ *****

ॐ ह्रीं भैरवो भूतनाथाशच भूतात्मा भूतभावन।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रपालश्च क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्॥१॥
श्मशान वासी मांसाशी खर्पराशी स्मरांतकः।
रक्तपः पानपः सिद्धः सिद्धिदः सिद्धिसेवित॥२॥
कंकालः कालशमनः कलाकाष्टातनु कविः।
त्रिनेत्रो बहुनेत्रश्च तथा पिंगल-लोचनः॥३॥
शूलपाणिः खङ्गपाणिः कंकाली धूम्रलोचनः।
अभीरूर भैरवीनाथो भूतपो योगिनीपतिः॥४॥
धनदो अधनहारी च धनवान् प्रतिभानवान्।
नागहारो नागपाशो व्योमकेशः कपालभृत्॥५॥
कालः कपालमाली च कमनीयः कलानिधिः।
त्रिलोचनो ज्वलन्नेत्रः त्रिशिखी च त्रिलोचनः॥६॥
त्रिनेत्र तनयो डिम्भशान्तः शान्तजनप्रियः।
बटुको बहुवेशश्च खट्वांगो वरधारकः॥७॥
भूताध्यक्षः पशुपतिः भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शूरो हरिणः पांडुलोचनः॥८॥
प्रशांतः शांतिदः शुद्धः शंकर-प्रियबांधवः।
अष्टमूर्तिः निधीशश्च ज्ञान-चक्षुः तपोमयः॥९॥
अष्टाधारः षडाधारः सर्पयुक्तः शिखिसखः।
भूधरो भुधराधीशो भूपतिर भूधरात्मजः॥१०॥
कंकालधारी मुण्डी च नागयज्ञोपवीतवान्।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भी मारणः क्षोभणः तथा॥११॥
शुद्धनीलांजन प्रख्यो दैत्यहा मुण्डभूषितः।
बलिभुग् बलिभुङ्नाथो बालो अबालपराक्रमः॥१२॥
सर्वापित्तारणो दुर्गे दुष्टभूत-निषेवितः।
कामी कलानिधि कान्तः कामिनी वशकृद् वशी॥१३॥
जगद् रक्षा करो अनन्तो माया मंत्र औषधीमयः।
सर्वसिद्धिप्रदो वैद्यः प्रभविष्णुः करोतु शम्॥१४॥
॥ इति श्री बटुकभैरवाष्टोत्तरशतनामं समाप्तम् ॥

जय श्री राम ॐ रां रामाय नम:  श्रीराम ज्योतिष सदन, पंडित आशु बहुगुणा ,संपर्क सूत्र- 9760924411